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________________ चतुर्थं अध्याय महतामप्यहो मोहग्रहः कोऽप्यनवग्रहः । ग्राहयत्यस्वमस्वांश्च योऽहंममधिया हठात् ॥१३६॥ अनवग्रहः - स्वच्छन्दो दुर्निवार इत्यर्थः, चिरावेशो वा । अस्वं - अनात्मभूतं देहादिकमात्मबुद्धया, ३ अस्वांश्च -- अनात्मीयभूतान् दारागृहादीन् मम बुद्धयेति संबन्धः ॥ १३६॥ ३२५ अथापकुर्वतोऽपि चारित्रमोहस्योच्छेदाय काललब्धावेव विदुषा यतितव्यमित्यनुशास्तिदुःखानुबन्धैकपरान रातीन्, समूलमुन्मूल्य परं प्रतप्स्यन् । को वा विना कालमरेः प्रहन्तुं धीरो व्यवस्यत्यपराध्यतोऽपि ॥ १३७॥ अरातीन् - मिथ्यात्वादीन् चोरचरटादींश्च । प्रतप्स्यन् — प्रतप्तुमिच्छन् । अरे: - चारित्रमोहस्य प्रतिनायकस्य च । धीरः - विद्वान् स्थिरप्रकृतिश्च ॥१३७॥ आश्चर्य है कि गृहस्थ अवस्था में तीर्थंकर आदिके भी यह चारित्रमोहनीयरूप ग्रह इतना दुर्निवार होता है जिसे कहना शक्य नहीं है; क्योंकि यह जो अपने रूप नहीं हैं उन शरीर आदि में 'यह मैं हूँ' ऐसी बुद्धि और जो अपने नहीं हैं पर हैं, उन स्त्री- पुत्रादिमें 'ये मेरे हैं' ऐसी बुद्धि बलपूर्वक उत्पन्न कराता है । अर्थात् यद्यपि वे तत्त्वको जानते हैं तथापि चारित्रमोहनीयके वशीभूत होकर अन्यथा व्यवहार करते हैं ॥ १३६ ॥ आगे यह शिक्षा देते हैं कि यद्यपि चारित्रमोहनीय अपकारी है फिर भी विद्वान्को काललब्ध आनेपर ही उसके उच्छेदका प्रयत्न करना चाहिए केवल दुःखोंको ही देने में तत्पर मिथ्यात्व आदि शत्रुओंका समूल उन्मूलन करके अर्थात् संवरके साथ होनेवाली निर्जरा करके उत्कृष्ट तप करनेका इच्छुक कौन विद्वान् होगा जो कालके बिना अपकार करनेवाले भी चारित्रमोहनीयका नाश करनेके लिए उत्साहित होगा ॥१३७॥ Jain Education International विशेषार्थ - लोक में भी देखा जाता है कि स्थिर प्रकृतिवाला धीर नायक 'जबतक योग्य समय न प्राप्त हो अपने अपकार कर्ता के साथ भी सद्व्यवहार करना चाहिए' इस नीतिको मनमें धारण करके यद्यपि नित्य कष्ट देनेवाले चोर, वटमार आदिको निर्वंश करके प्रतापशाली होना चाहता है फिर भी अपराधी भी शत्रुको समयपर ही मारनेका निश्चय करता है । इसी तरह यद्यपि चारित्रमोह अपकारकारी है किन्तु पूरी तैयारी के साथ उचित समयपर ही उसके विध्वंस के लिए तत्पर होना चाहिए । उचित समय से आशय यह है कि न तो समयका बहाना लेकर उससे विरत होना चाहिए और न पूरी तैयारीके बिना जल्दबाजी में ही किसी आवेशमें आकर व्रतादि धारण करना चाहिए। जैसे वर्तमान काल मुनिधर्मकी निर्मल प्रवृत्तिके लिए अनुकूल नहीं है । श्रावकों का खान-पान बिगड़ चुका है । अब श्रावक मुनिके पधारनेपर उसीके उद्देश्य से भोजन बनाते हैं। मुनि एक स्थानपर रह नहीं सकते । विहार करते हैं तो मार्ग में आहार की समस्या रहती है उसके लिए मुनिको स्वयं प्रयत्न भी करना पड़ जाता है । और इस तरह परिवार से भी अधिक उपधि पीछे लग जाती है | अतः इस काल में मुनित्रत तभी लेना चाहिए जब परिग्रह के अम्बारसे बचकर साधुमार्ग पालना शक्य हो ॥१३७॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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