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चतुर्थ अध्याय तिक्तं-भूनिम्बनिम्बादिप्रायमौषधम् । सन्नः-अभिभूतः । तथा चोक्तम्
'तीवातिरपि नाजीणं' पिबेच्छूलघ्नमौषधम् ।
आमसन्नो नलो नाल पक्तुं दोषौषधाशनम् ।।' [ अपि च
'सप्ताहादौषधं केचिदाहुरन्ये दशाहतः।
केचिल्लघ्वन्नभुक्तस्य योज्यमानोल्वणे तु न ॥ [ एतेन द्विपदसंगाच्चतुष्पदसंगस्य बहुतरापायत्वं समर्थितम् ॥१२३॥ अथाचेतनसंगाच्चेतनसंगस्य बाधाकरत्वमाचष्टे
यौनमौखादिसंबन्धद्वारेणाविश्य मानसम् ।
यथा परिग्रहश्चित्वान् मथ्नाति न तथेतरः ॥१२४॥ यौन:-योनेरागतः सोदरादिसंबन्धः । मौख:-मुखादागतः शिष्यादिसंबन्धः । आदिशब्दात् १२ जन्यजनकत्व-पोष्यपोषकत्व-भोग्य भोक्तभावादिसंबन्धा यथास्वमवसेयाः। चित्वान्-चेतनावान् । मथ्नातिव्यथयति ॥१२४॥
अथ पञ्चदशभिः पद्यरचेतनपरिग्रहस्य दोषानुद्भावयतिनीम चिरायता आदि कटु औषधि स्वास्थ्यकर नहीं हो सकती तो फिर घीकी तो बात ही क्या है ? ॥१२३।।
विशेषार्थ-द्विपदोंके संगसे चौपायोंका संग ज्यादा कष्टदायक होता है; क्योंकि जब दो पैरवाला कष्टदायक है तो चार पैरवाला तो उससे दूना कष्टदायक होगा । दृष्टान्त दिया है आमरोगीका। जब पेट में रसका परिपाक ठीक नहीं होता तो उदराग्नि मन्द होती जाती है। कटुक औषधि स्वभावसे ही आँवके लिए पाचक होती है। किन्तु जिस आँवरोगीको कटु औषधि भी अनुकूल नहीं पड़ती उसके लिए घी कैसे पथ्य हो सकता है ? घी तो चिक्कण और शीतल होनेसे आँवको बढ़ाता है। अतः जब दोपाया ही कष्टकर है तब चौपायेका तो कहना ही क्या? ॥१२३॥
आगे कहते हैं कि अचेतन परिग्रहसे चेतन परिग्रह अधिक कष्टकर है
योनि और मुख आदिकी अपेक्षासे होनेवाले सम्बन्धोंके द्वारा गाढ़रूपसे प्रविष्ट होकर चेतन परिग्रह मनुष्यके मनको जैसा कष्ट देती है वैसा कष्ट अचेतन परिग्रह नहीं देती ॥१२४।।
विशेषार्थ-अचेतन परिग्रहके साथ तो मनुष्यका केवल स्वामित्व सम्बन्ध रहता है किन्तु सहोदर भाई-बहनके साथ यौन सम्बन्ध होता है और गुरु-शिष्य आदिका मौखिक सम्बन्ध होता है। इसी तरह पिता-पुत्रका जन्य-जनक सम्बन्ध होता है, पति-पत्नीका भोग्य-भोक्तृत्व सम्बन्ध होता है। ये सब सम्बन्ध अधिक अनुरागके कारण होनेसे अधिक कष्टदायक भी होते हैं। इसीसे ग्रन्थकारने चेतन परिग्रहके पश्चात् अचेतन परिग्रहका कथन किया है ॥१२४॥
___ आगे दस श्लोकोंसे अचेतन परिग्रहके दोष बतलानेकी भावनासे प्रथम ही घरके दोष बतलाते हैं क्योंकि घर ही दोषोंका घर है१. जीर्णी भ. कु. च.। २. न तु भ. कु. च.।
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