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चतुर्थ अध्याय
३१५ निश्छद्म मेद्यति विपद्यपि संपदीव यः सोऽपि मित्रमिह मोहयतीति हेयः ।।
श्रेयः परत्र तु विबोधयतीति तावच्छक्यो न याववसितुं सकलोऽपि सङ्गः ॥११९॥ मेद्यति-स्निह्यति । असितुं-त्यक्तुम् । उक्तं च_ 'संगेः सर्वात्मना त्याज्यो मुनिभिर्मोक्तुमिच्छुभिः ।
स चेत्त्यक्तुं न शक्येत कार्यस्तात्मर्शिभिः ॥' [ अपि च
'संगः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्यक्तुं न शक्यते । स सद्भिः सह कर्तव्यः सन्तः संगस्य भेषजम् ॥ [
]॥११९॥ अथ अत्यन्तभक्तिमतोऽपि भूत्यस्याकृत्यप्रधानत्वादनुपादेयतां लक्षयति
योऽतिभक्ततयात्मेति कापिभिः कल्प्यतेऽङ्गवत् ।
सोऽप्यकृत्येऽग्रणी त्यः स्यावामस्याञ्जनेयवत् ॥१२०॥ कार्यिभिः-स्वार्थपरैः । आञ्जनेयवत्-हनूमानिव ॥१२०॥ अथ दासीदासस्य स्वीकारो मनस्तापाय स्यादित्याह___ अतिसंस्तवधृष्टत्वावनिष्टे जाघटीति यत् ।
तहासीदासमृक्षीव कर्णात्ताः कस्य शान्तये ॥१२॥ जाघटीति-भृशं पुनः पुनर्वा चेष्टते ॥१२१॥ होनेसे छोड़ने योग्य हैं और जो परलोक सम्बन्धी कार्यों में सहायक हैं, नीचेकी भूमिकामें ही उनका अनुसरण करना चाहिए
___ जो निश्छल भावसे सम्पत्तिकी तरह विपत्तिमें भी स्नेह करता है ऐसा भी मित्र इस जन्ममें हेय है-छोड़ने योग्य है क्योंकि वह मोह उत्पन्न करता है । किन्तु जबतक समस्त परिग्रह छोड़नेकी सामर्थ्य नहीं है तब तक परलोकके विषयमें ऐसे मित्रका आश्रय लेना चाहिए जो आत्मा और शरीरके भेदज्ञानरूप विशिष्ट बोधको कराता है ।।११९॥
विशेषार्थ-कहा भी है-'मुक्तिके इच्छुक मुनियोंको सर्वरूपसे परिप्रहका त्याग करना चाहिए । यदि उसका छोड़ना शक्य न हो तो आत्मदर्शी महर्षियोंकी संगति करना चाहिए।' तथा-सर्वरूपसे परिग्रहको छोड़ना चाहिए। यदि उसका छोड़ना शक्य न हो तो सज्जन पुरुषोंकी संगति करना चाहिए। क्योंकि सन्त पुरुष परिग्रहको औषधि है ।।११९||
____अत्यन्त भक्तियुक्त भी सेवक अकृत्य करने में अगुआ हो जाता है अतः वह भी उपादेय नहीं है
जैसे बाह्यदृष्टि मनुष्य अत्यन्त सम्बद्ध होनेसे शरीर में 'यह मैं हूँ' ऐसी कल्पना करते हैं उसी तरह स्वार्थ में तत्पर मनुष्य अपनेमें अत्यन्त अनुरक्त होनेसे जिसे 'यह मैं हूँ' ऐसा मानते हैं, वह भृत्य भी रामचन्द्रके सेवक हनुमान्की तरह हिंसादि कार्यो में अगुआ हो जाता है । अतः सेवक नामक चेतन परिग्रह भी त्याज्य है ॥१२०॥
आगे कहते हैं कि दासी-दासको रखना भी मनके लिए सन्तापकारक होता है___ जैसे स्त्री भालुसे इतना घनिष्ठ परिचय हो जानेपर भी कि उसका कान पकड़ लिया जाये, वह कभी भी निश्चिन्तता प्रदान नहीं करती उससे सावधान ही रहना पड़ता है । उसी १. त्याज्य एवाखिलः सङ्गो मुनिभिः-ज्ञानार्णव १३८ ।
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