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________________ चतुर्थ अध्याय ३१३ शुद्धचैतन्यलक्षणैः प्राणवियोजयति । मृतान्–पञ्चत्वमापन्नान् । पिण्डप्रदाद्यैः-पिण्डप्रदान-जलतर्पणऋगशोधनादिभिः । जनुषान्धता-जात्यन्धत्वम् । सुविधिना-सम्यगविहिताचरणेन ॥११५।। अथ पुत्रिकामुढात्मनां स्वार्थभ्रंशं सखेदमावेदयतिमात्रादीनामदृष्टद्रुघणहतिरिवाभाति यज्जन्मवार्ता सौस्थ्यं यत्संप्रदाने क्वचिदपि न भवत्यन्वहं दुर्भगेव । या दुःशीलाऽफला वा स्खलति हृदि मृते विप्लुप्ते वा धवेऽन्त र्या दन्दग्धीह मुग्धा दुहितरि सुतवद् घ्नन्ति धिक् स्वार्थमन्धाः ॥११६॥ द्रघणः-मुद्गरः । अफला-निरपत्या। विप्लुते-पुरुषार्थसाधनसामर्थ्यपरिभ्रष्टे । दन्दग्धिगर्हितं दहति ॥११॥ अवस्थामें ही अपने पिता आदिको कष्ट पहुंचाता है। वह मरने पर पिण्डदान करके हमारा उद्धार करेगा यह जो मिथ्या धारणा है चाहे वह कुलागत हो या किसीके उपदेशसे हुई हो उसे तो छोड़ दे। क्योंकि किसीके पिण्डदानसे मरे हुए का उद्धार कैसे हो सकता है। कहा भी है-'यदि ब्राह्मणों और कौओंके द्वारा खाया गया अन्न परलोकमें पितरोंको तृप्त करता है तो उन पितरोंने पूर्व जन्ममें जो शुभ या अशुभ कर्म किये थे वे तो व्यर्थ ही हुए कहलाये।' अत: इस मिथ्याविश्वासको छोडकर सदा यही दष्टि बनानी चाहिए कि आत्माका सच्चा पुत्र यह आत्मा ही है क्योंकि यह आत्मा ही सम्यक् आचरणके द्वारा संसार-समुद्रसे अपना उद्धार करने में समर्थ है। दूसरा कोई भी इसका उद्धार नहीं कर सकता ॥११५।। जो पुत्रियोंके मोहसे मूढ़ बने हुए हैं उनके भी स्वार्थके नाशको खेद सहित बतलाते हैं जिसके जन्मकी बात माता-पिता आदिके लिए अचानक हुए मुद्गरके आघातकी तरह लगती है, जिसके वरके विषयमें माता आदिका चित्त कहीं भी चैन नहीं पाता, विवाहनेपर यदि उसके सन्तान न हुई या वह दुराचारिणी हुई तो भर्ताको अप्रियअभागिनीकी तरह माता आदिके हृदयमें रात-दिन कष्ट देती है, यदि पति मर गया या परदेश चला गया अथवा नपुंसक हुआ तो माता आदिके अन्तःकरणको जलाया करती है। ऐसी दुःखदायक पुत्रीमें पुत्रकी तरह मोह करनेवाले अन्धे मनुष्य स्वार्थका घात करते हैं यह बड़े खेदकी बात है ।।११६।। विशेषार्थ-'पुत्री उत्पन्न हुई है' यह सुनते ही माता-पिता दुःखसे भर उठते हैं, जब वह विवाह योग्य होती है तो उसके लिए वरकी खोज होती है । वरके कुल, शील, सम्पत्तिकी चर्चा चलनेपर माता-पिताको कहीं भी यह सन्तोष नहीं होता कि हम अपनी कन्या योग्य वरको दे रहे हैं। उसके बाद भी यदि कन्या दुराचारिणी हुई या उसके सन्तान नहीं हुई, या पतिने उसको त्याग दिया, या पतिका मरण हो गया अथवा वह छोड़कर चला गया तब भी माता-पिताको रात-दिन कष्ट रहता है। अतः पुत्रकी तरह पुत्री भी दुःखकी खान है ॥११६। १. द्विजैश्च कार्यदि भुक्तमन्नं मृतान् पितृ स्तर्पयते परत्र । पुराजितं तत्पितृभिविनष्टं शुभाशुभं तेन हि कारणेन ॥-वराङ्गचरित २५।६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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