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________________ ३ १२ धर्मामृत (अनगार ) अथैवं स्त्रीवैराग्यपञ्चकोपचितं ब्रह्मचर्यव्रतं स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरस-स्वशरीरसंस्कारपरिहारस्वभावभावनापञ्चकेन स्थैर्यमापादयेदित्युपदेष्टुमिदमाचष्टेरामकथाश्रुतौ श्रुतिपरिभ्रष्टोऽसि चेद् भ्रष्टदृक्, तद्रम्याङ्गनिरीक्षणे भवसि चेत्तत्पूर्वं भुक्तावसि । निःसंज्ञो यदि वृष्यवाञ्छित रसास्वादेऽरसज्ञोऽसि चेत्, २९८ संस्कारे स्वतनोः कुजोऽसि यदि तत् सिद्धोऽसि तुयंव्रते ॥ १०१ ॥ रामारागकथाश्रुती - रामायां स्त्रियां रागो रतिः, तदर्थं रामयो वा रागेण क्रियमाणा कथा तदाकर्णने । श्रुतिपरिभ्रष्टः --- अत्यन्तवधिरः संस्कारपराङ्मुखोऽसीत्यर्थः ॥ १०१ ॥ अथ वृष्यद्रव्यसौहित्यप्रभावं भावयति को न वाजीकृतां दृप्तः कन्तुं कन्दलयेद्यतः । ऊर्ध्वमूलमधःशाखमृषयः पुरुषं विदुः ॥१०२॥ वाजी कृतां - अवाजिनं वाजिनं कुर्वन्ति वाजी कृतो रतो वृद्धिकराः क्षीराद्यर्थास्तेषाम् । कन्दलयेत् - उद्भावयेत् । जीह्वेन्द्रियसंतर्पणाप्रभवत्वात् कन्दर्पदर्पस्य । अत्र पूर्वरतानुस्मरण - वृष्येष्टर सादिवर्जनस्य पुनरुपदेशो ब्रह्मचर्य पालने अत्यन्तयत्नः कर्तव्य इति बोधयति । मुहुः साध्यत्वात्तस्य । तथा च ब्रुवन्ति - आगे कहते हैं कि स्त्रीरागकथाश्रवण, उसके मनोहर अंगोंका निरीक्षण, पूर्व भुक्त भोगोंका स्मरण, कामोद्दीपक भोजन और शरीर संस्कार इन पाँचोंके त्यागरूप पाँवनाओं से ब्रह्मचर्य व्रतको स्थिर करना चाहिए हे साधु ! यदि तू स्त्रीमें राग उत्पन्न करनेवाली अथवा स्त्रीसे रागसे की जानेवाली कथाको सुननेमें बहरा है, यदि तू उसके मुख, स्तन आदि मनोहर अंगों को देखने में अन्धा है, यदि तू पहले भोगी हुई स्त्रीका स्मरण करनेमें असैनी है, यदि तू वीर्यवर्धक इच्छित रसोंके आस्वाद में जिह्वाहीन है, यदि तू अपने शरीरके संस्कार करनेमें वृक्ष है (वृक्ष अपना संस्कार नहीं करते) तो तू ब्रह्मचर्य व्रतमें सिद्ध है - सच्चा ब्रह्मचारी है ॥ १०१ ॥ विशेषार्थ - आँख, कान और जिह्वा तथा मनपर नियन्त्रण किये बिना ब्रह्मचर्यका पालन नहीं हो सकता । इसलिए ब्रह्मचारीको स्त्रियोंके विषय में अन्धा, बहरा, गूँगा तथा असंज्ञी तक बनना चाहिए । इसीलिए जैन मुनि स्नान, विलेपन, तेलमर्दन, दन्तमंजन आदि शरीर संस्कार नहीं करते । रसना इन्द्रियको भी स्पर्शन इन्द्रियकी तरह कामेन्द्रिय कहा है । इसका जीतना स्पर्शनसे भी कठिन है । अकलंक देवने तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है कि जो स्पर्शजन्य सुखका त्याग कर देते हैं वे भी रसनाको वशमें नहीं रख सकते। आगममें भी कहा है – 'इन्द्रियोंमें रसना, कुममें मोहनीय, व्रतोंमें ब्रह्मचर्य और गुप्तियों में मनोगुप्ति ये चार बड़े कष्टसे वशमें आते हैं ॥ १०१ ॥ वीर्यवर्द्धक रसोंके सेवनका प्रभाव बतलाते हैं ● मनुष्यों को घोड़े के समान बना देनेवाले वीर्यवर्द्धक दूध आदि पदार्थोंको वाजीकरण कहते हैं । वाजीकरणके सेवनसे मत्त हुआ कौन पुरुष कामविकारको नहीं करता अर्थात् सभी करते हैं। क्योंकि ऋषियोंने पुरुषको ऊर्ध्वमूल और अधःशाख कहा है ॥ १०२ ॥ १. तदर्था रामया रागेण वा-भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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