________________
चतुर्थ अध्याय
२९५ विश्रं-आमगन्धि । आद्यूनः-लम्पटः । प्रेताः-नारकाः । मूर्छाल:-मूर्छितः। अनुगुणयेत्अनुकूलयेत् । तरं-प्रतरणम् । वैतरण्यां-नरकनद्याम् ॥९५।।
अथ पञ्चभिः पद्यवृद्धसांगत्यविधातुमनाः कुशलसातत्यकामस्य मुमुक्षोर्मोक्षमार्गनिर्वहणचणानां परिचरण- ३ मत्यन्तकरणीयतया प्रागुपक्षिपति
स्वानूकाङ्कशिताशयाः सुगुरुवाग्वृत्त्यस्तचेतःशयाः,
संसारातिबृहद्भयाः परहितव्यापारनित्योच्छ्याः । प्रत्यासन्नमहोदयाः समरसीभावानुभावोदयाः,
सेव्याः शश्वदिह त्वयादृतनयाः श्रेयःप्रबन्धेप्सया ॥१६॥ अनूक:-कुलम् । तच्चेह पितृगुरुसंबन्धि । कुलीनो हि दुरपवादभयादकृत्यानितरां जुगुप्सते । चेतः- १ शयः-कामः । यदाह
_ 'यः करोति गुरुभाषितं मुदा संश्रये वसति वृद्धसंकुले ।
मुञ्चते तरुणलोकसंगतिं ब्रह्मचर्यममलं स रक्षति ॥ [ उच्छ्रयः-उत्सवः । महोदयः-मोक्षः। समरसोभावः-शुद्धचिदानन्दानुभकः । तदनुभावाःसद्योरागादिप्रक्षयजातिकारणवैरोपशमनोपसर्गनिवारणादयस्तेषामुदय उत्कर्षों येषाम् ।। अथवा समरसीभावस्यानुभावः कार्यमुदयो बुद्धितपोविक्रियौषधिप्रभृतिलब्धिलक्षणोऽभ्युदयो येषाम् ॥१६॥ अथ वृद्धतरसांगत्ययोः फलविशेषमभिलषतिकालुष्यं पुंस्युदीर्ण जल इव कतकैः संगमाद्वयेति वृद्ध
रश्मक्षेपादिवाप्तप्रशममपि लघूदेति तत्षिङ्गसङ्गात् । वाभिगन्धो मृदीवोद्भवति च युवभिस्तत्र लीनोऽपि योगाद,
रागो द्राग्वृद्धसङ्गात्सरटवदुपलक्षेपतश्चैति शान्तिम् ॥१७॥ आगे पाँच श्लोकोंसे वृद्ध पुरुषोंकी संगतिका विधान करना चाहते हैं। सर्वप्रथम निरन्तर कुशलताके इच्छुक मुमुक्षुको मोक्षमार्गका निर्वहण करने में कुशल गुरुओंकी सेवा अवश्य करनेका निर्देश करते हैं
हे साधु ! इस ब्रह्मचर्यव्रतमें चारित्र अथवा कल्याणमें रुकावट न आनेकी इच्छासे तुझे ऐसे नीतिशाली वृद्धाचार्योंकी सेवा करनी चाहिए जिनका पितृकुल और गुरुकुल उनके चित्तको कुमार्गमें जानेसे रोकता है (क्योंकि कुलीन पुरुष खोटे अपवादके भयसे खोटे कार्योंसे अत्यन्त ग्लानि करता है), सच्चे गुरुओंके वचनोंके अनुसार चलनेसे जिनका कामविकार नष्ट हो गया है, जो संसारके दुःखोंसे अत्यन्त भीत रहते हैं, सदा परहितके व्यापारमें आनन्द मानते हैं, जिनका मोक्ष निकट है, तथा शुद्ध चिदानन्दके अनुभवके प्रभावसे जिनके तत्काल रागादिका प्रक्षय, जन्मसे होनेवाले वैरका उपशमन, उपसर्गनिवारण आदिका उत्कर्ष पाया जाता है अथवा शुद्ध चिदानन्दके अनुभवका कार्य बुद्धि, विक्रिया, तप, औषधि आदि ऋद्धिरूप अभ्युदय पाया जाता है, ऐसे आचार्योंकी संगति अवश्य करनी चाहिए ॥१६॥
वृद्धजनोंकी और युवाजनोंकी संगतिके फलमें अन्तर बतलाते हैं
जैसे जलमें कीचड़के योगसे उत्पन्न हुई कालिमा निर्मलीके चूर्णके योगसे शान्त हो जाती है वैसे ही अपने निमित्तोंके सम्बन्धसे जीवमें उत्पन्न हुई कालिमा अर्थात् द्वेष, शोक,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org