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धर्मामृत (अनगार )
'जीवति सुखं धने सति बहुपुत्रकलत्रमित्रसंयुक्तः । धनमपहरता तेषां जीवितमप्यपहृतं भवति ।। [ अथ द्रविणापहारः प्राणिनां प्राणापहार इति दर्शयतित्रैलोक्येनाप्यविक्रेयाननुप्राणयतोऽङ्गिनाम् । प्राणान् योऽणकः प्रायो हरन् हरति निघू णः ॥ ४९ ॥ अविक्रेयान् । यदाहुः —
'भुवनतलजीविताभ्यामेकं कश्चिद् वृणीष्व देवेन । इत्युक्तो भुवनतलं न वृणीते जीवितं मुक्त्वा ॥'
'यस्माद् भुवनमशेषं न भवत्येकस्य जीवितव्यार्थः । एकं व्यापादयतो तस्माद् भुवनं हतं भवति ॥' [
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अनुप्राणयतः - अनुगतं वर्तयतः । रायः - धनानि । अणकः - निकृष्टः । प्रायः - बाहुल्येन, प्रगतपुण्यो वा । यदाहु:
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तथा
'पापास्रवणद्वारं परधनहरणं वदन्ति परमेव । चौरः पापतरोऽसौ शौकरिकव्याधजारेभ्यः ॥' [
अथ चौरस्य मातापित्रादयोऽपि सर्वत्र सर्वदा परिहारमेवेच्छन्तीत्याह - दोषान्तरजुषं जातु मातापित्रादयो नरम् ।
संगृह्णन्ति न तु स्तेयमषीकृष्णमुखं क्वचित् ॥५०॥
] ४८
बनने पर उस धनको दूसरे लोग हथियाने की कोशिश करते हैं। अतः जो दूसरोंका धन हरता है पहले वह दूसरोंको दुःखी करता है । पीछे अपना धन हरे जानेपर स्वयं दुखी होता है । अतः यह कर्म मन वचन कायसे छोड़ने योग्य है। न तो मनमें किसीका एक पाई भी चुरानेका विचार करना चाहिए, न ऐसा करनेके लिए किसीसे कहना चाहिए और न स्वयं ऐसा करना चाहिये ||४८||
] ॥४९॥
आगे कहते हैं कि किसीके धनका हरना उसके प्राणोंका हरना है
तीनों लोकोंके भी मूल्यसे जिन प्राणोंको नहीं बेचा जा सकता उन प्राणोंकी समानता करनेवाले धनको हरण करनेवाला निर्दयी नीच मनुष्य प्रायः प्राणियोंके प्राणोंको हरता है ॥४९॥
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विशेषार्थ - यदि कोई कहे कि यदि तू मुझे अपने प्राण दे देवे तो मैं तुझे तीनों लोक दे दूँ। फिर भी कोई अपने प्राण देना नहीं चाहता। क्योंकि जब प्राण ही चले गये तो तीन लोक लेगा कौन ? इस तरह प्राण ऐसी वस्तु है जिनका कोई मूल्य नहीं हो सकता । धन भी मनुष्यका ऐसा ही प्राण है। फिर भी नीच मनुष्य सदा दूसरोंका धन हरनेके लिए आतुर रहते हैं । ऐसे धनहारी चोर पशु-पक्षियों का शिकार करनेवालों से भी अधिक पापी हैं । कहा है - ' पर धनके हरणको पापास्रवका उत्कृष्ट द्वार कहते हैं । इसलिए चोर व्यक्ति पशु पक्षीका शिकार करनेवालोंसे और दुराचारियोंसे भी अधिक पापी है' ||४९ ॥
चोरके माता-पिता आदि भी सर्वत्र सर्वदा उससे दूर ही रहना चाहते हैंचोरीके सिवाय अन्य अपराध करनेवाले मनुष्यको तो माता पिता वगैरह कदाचित्
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