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________________ चतुर्थ अध्याय २५५ अथामृतानुभावभूयसस्तथा (-भूयस्तया) सूनृतवचसो नित्यसेव्यतामुपदिशतिविद्याकामगवीशकृत्करिमरिपातीप्यसपौषधं, कोतिस्वस्तटिनी हिमाचलतटं शिष्टाब्दषण्डोष्णगुम् । वाग्देवीललनाविलासकमलं धीसिन्धुवेलाविधं, विश्वोद्धारचणं गणन्तु निपुणाः शश्वद्वचः सूनृतम् ॥४१॥ कामगवी-कामधेनुः । तदुक्तम् 'सत्यं वदन्ति मुनयो मुनिभिर्विद्या विनिर्मिताः सर्वाः। म्लेच्छानामपि विद्या सत्यभृतां सिद्धिमायान्ति ॥ [ ] शकृत्करिः-वत्सः। अरीत्यादि-शत्रुकृतापकारपन्नगप्रतिकर्तृ । स्वस्तटिनी-आकाशगङ्गा। ९ उष्णगुः-आदित्यः । विश्वोद्धारचणं-त्रिजगदनुग्रहणप्रतीतम् । गृणन्तु-भाषन्ताम् ॥४१॥ विशेषार्थ-सभी लौकिक और शास्त्रीय व्यवहार सत्यपर प्रतिष्ठित हैं। यदि सर्वत्र असत्यका ही चलन हो जाये तो लोकमें देन-लेनका व्यवहार, व्यापार आदि सब गड़बड़ हो जाये । कोई किसीका विश्वास ही न करे । यही स्थिति शास्त्रीय व्यवहारोंकी भी हो जाये क्योंकि तब कौन विश्वास करेगा कि शास्त्रकारोंने जो कुछ कहा है वह सत्य है ? और तब कैसे लोग शास्त्रोंकी आज्ञाका पालन करेंगे ? अतः विश्वका सभी व्यवहार लुप्त हो जायेगा। इसी तरह यदि लोग इसे मारो, उसे काटो, अमुकका धन छीन लो, अमुककी स्त्री भगा लो जैसे सावध वचनों पर उतर आयें तो पापाचारका ही राज्य हो जावे। अप्रिय वचन तो विष, शस्त्राघात और आगसे भी अधिक दुःखदायक होते हैं। कहावत है कि तीरका घाव भर आता है किन्तु तीखी बाणीका घाव नहीं भरता। तथा गाली-गलौज तो बीच पुरुषोंमें भी अच्छी नहीं मानी जाती। इस प्रकारके असत्य वचनोंका दुष्फल इसी जन्ममें राजदण्डके रूपमें मिलता है। जब उसका ही भय लोग नहीं करते तब दुर्गतिका भय भला कैसे कर सकते हैं ? यह बड़े दुःख और खेदकी बात है ॥४०॥ प्रिय और सत्य वचनके अनेक आश्चर्यकारक प्रभाव होनेसे उसका नित्य आचरण करनेका उपदेश देते हैं सत्य वचन विद्यारूपी कामधेनुका बच्चा है, शत्रुओंके द्वारा किये गये अपकाररूपी सर्पका इलाज है, कीर्तिरूप गङ्गाके उद्गमके लिए हिमाचल पर्वत है, शिष्ट पुरुषरूपी कमलवनको विकसित करनेके लिए सूर्य है, सरस्वतीरूपी ललनाका क्रीडाकमल है, लक्ष्मीरूपी समुद्रकी वेलाके लिए चन्द्रमा है । यतः सत्य वचन इन छह विशेषताओंको लिये हुए है अतः जगत्का विपत्तियोंसे उद्धार करनेमें समर्थ है। इसलिए सूक्ष्मदृष्टिवाले विचारशील पुरुषोंको सदा सत्य वचन बोलना चाहिए ॥४१॥ विशेषार्थ-विधिपूर्वक साधन करनेसे जो सिद्ध होती है उसे विद्या कहते हैं। विद्याएँ इच्छित पदार्थोंको देती हैं इसलिए उन्हें कामधेनु कहा है। जैसे कामधेनु अपने बछड़ेके संयोगसे इच्छित अर्थ दूध देती है वैसे ही सत्य वचनके संयोगसे ही विद्या इच्छित मनोरथोंको पूर्ण करती है। कहा भी है-'मुनिगण सत्य बोलते हैं इसलिए मुनियोंने सब विद्याओंका निर्माण किया है। सत्य बोलनेवाले म्लेच्छोंकी भी विद्याएँ सिद्ध हो जाती हैं।' सत्यवादीका शत्रु भी अपकार नहीं करते। जैसे हिमालयसे गंगा निकलकर फैलती है वैसे ही सत्यरूपी हिमालयसे कीर्तिरूपी गंगा निकलकर फैलती है, सत्यवादीका यश सर्वत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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