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चतुर्थ अध्याय
२४९ अथ वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनभावनापञ्चकेन भाव्यमानमहिंसामहाव्रतं स्थिरीभूय परं माहात्म्यमासादयतीत्युपदिशति
निगृह्णतो वाङ्मनसो यथावन्मार्ग चरिष्णोविधिवद्ययाहम् । ___ आदाननिक्षेपकृतोऽन्नपाने दृष्टे च भोक्तः प्रतपयहिंसा ॥३४॥
चरिष्णोः-साधुत्वेन पर्यटतः । विधिवत्-शास्त्रोक्तविधानेन । यथाहं यदसंयमपरिहारेणादातुं निक्षेप्तुं च योग्यं ज्ञानसंयमाद्युपकरणं तदनतिक्रमेण । आदाननिक्षेपकृतः-ग्रहणस्थापनकारिणः। दृष्टे- कल्पते (-न कल्पते-) वेति चक्षुषा निरूपिते । भोक्तुः-साधुभुञानस्य । प्रतपति-अव्याहतप्रभावो भवति ॥३४॥
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सेन धीवर प्रतिदिन जाल लेकर मछली मारने जाता था। एक दिन एक साधुको उसने नमस्कार किया और उनका उपदेश सुना। साधुने उससे कहा कि तुम्हारे जालमें जो पहली मछली आये उसे मत मारना। उसने ऐसा ही किया। उस मछली पर निशानके लिए धागा बाँधकर जलमें छोड़ दिया। किन्तु उस दिन पाँच बार वही मछली उसके जालमें आयी और उसने उसे जलमें छोड़ दिया । इतने में सन्ध्या हो गयी और वह खाली हाथ घर लौटा। उसकी पत्नीने उसे खाली हाथ देखकर द्वार नहीं खोला। वह बाहर ही सो गया और साँपके काटनेसे मर गया। मरकर उसने दूसरे जन्ममें जिस तरह पाँच बार मृत्युके मुखसे छुटकारा पाया, उसकी रोचक कथा कथाकोश आदि ग्रन्थोंमें वर्णित है। अतः हिंसाको त्यागकर अहिंसा पालनका व्रत लेना चाहिए ॥३३॥
आगे कहते हैं कि वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन इन पाँच भावनाओंसे भाया गया अहिंसाव्रत स्थिर होकर उत्कृष्ट माहात्म्यको प्राप्त कराता है
जो मुमुक्षु संक्लेश, सत्कार, लोक प्रसिद्धि आदिकी चाहको त्यागकर वचन और मनका निरोध करता है, शास्त्रोक्त विधानके अनुसार मार्गमें चलता है, असंयमको बचाते हुए ग्रहण करने और रखने के योग्य पुस्तकादि उपकरणोंका ग्रहण और निक्षेपण करता है तथा यह योग्य है या नहीं इस प्रकार आँखोंसे देखकर अन्न पानको खाता है, उसकी अहिंसा बड़ी प्रभावशाली होती है ॥३४॥
विशेषार्थ-अहिंसाव्रतकी पाँच भावनाएँ आगममें कही हैं-वचन गुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान निक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन। इन्हींका स्वरूप ऊपर कहा है और आगे भी कहेंगे। इन भावनाओंसे अहिंसाकी पुष्टि होती है। वचनका निरोध करनेसे कठोर आदि वचनसे होने वाली हिंसा नहीं होती । मनका निरोध होनेसे दुर्विचारसे होनेवाली हिंसा नहीं होती। ईर्या समिति पूर्वक चलनेसे मार्ग चलनेसे होनेवाली हिंसा नहीं होती । देखकर उपकरणोंको ग्रहण करने और देखकर रखनेसे उठाने-धरनेमें होनेवाली हिंसा नहीं होती। देखकर दिनमें खानपान करनेसे भोजन-सम्बन्धी हिंसाका बचाव होता है। साधुको इतनी ही क्रियाएँ तो करनी पड़ती हैं। यदि प्रमादका योग न हो तो हिंसा हो नहीं सकती। अतः सदा अप्रमादी होकर ही प्रवृत्ति करना चाहिए। तभी अहिंसाका पालन पूरी तरहसे सम्भव है॥३४॥
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