SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्पष्टम् 1 उक्तं च अपि च तथा चतुर्थ अध्याय मरदु व जियदु व जीवो अजदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स पत्थि बंधो हिसामित्तेण समिदस्स । [ प्रवचनसार ३।१७ ] म्रियेतां वा म्रियतां जीवः प्रमादबहुलस्य निश्चिता हिंसा । प्राणव्यपरोपेऽपि प्रमादहीनस्य सा नास्ति ॥ [ अमित श्रा. ६।२५ ] 'अत्ता चेव अहिंसा अत्ता हिंसित्ति सिच्छया समए । जो होइ अप्पमत्त अहिंसगो हिंसगो इयरो ॥ [ भ. आरा० ८० ] ||२३|| Jain Education International विशेषार्थ – जैनधर्मके अनुसार अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जानेसे या दुःखी हो जानेसे ही हिंसा नहीं होती । संसारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी हैं फिर भी जैन सिद्धान्त इस प्राणिघातको हिंसा नहीं कहता । जैन सिद्धान्तकी दृष्टिसे हिंसारूप परिणाम ही हिंसा है । प्रमत्तयोगसे प्राणघातको हिंसा कहा है । यहाँ प्रमत्त योग और प्राणघात दो पद इसलिए दिये हैं कि यदि दोनोंमें से एकका अभाव हो तो हिंसा नहीं है। जहाँ प्रमत्तयोग नहीं है केवल प्राणघात है वहाँ हिंसा नहीं है । कहा है- 'ईर्यासमिति पूर्वक चलते हुए तपस्वी के पैर उठानेपर चलनेके स्थान में यदि कोई क्षुद्र जन्तु आ गिरे और वह उस साधुके पैर से कुचलकर मर जावे तो उस साधुको उस सूक्ष्म जन्तुके घात के निमित्तसे सूक्ष्म-सा भी बन्ध आगममें नहीं कहा है ।' और भी आचार्य सिद्धसेनने अपनी द्वात्रिंशिकामें कहा है कि 'कोई प्राणी दूसरेको प्राणोंसे वियुक्त करता है, उसके प्राण ले लेता है फिर भी हिंसासे संयुक्त नहीं होता, उसे हिंसाका पाप नहीं लगता। एक प्राणी दूसरेको मारनेका कठोर विचार करता है. उसका कल्याण नहीं होता । तथा कोई दूसरे प्राणियों को नहीं मारता हुआ भी हिंसकपनेको प्राप्त होता है । इस प्रकार है जिन ! तुमने यह अतिगहन प्रशमका हेतु - शान्तिका मार्ग बतलाया है ।' २३९ क्यों एक प्राणोंका घात करके भी हिंसाके पापका भागी नहीं होता और क्यों दूसरा प्राणोंका घात नहीं करके भी पापका भागी होता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - जीव चाहे जिये चाहे मरे जो अयत्नाचारी है उसे अवश्य हिंसाका पाप लगता है । किन्तु जो यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है उसे हिंसा हो जाने मात्रसे पापबन्ध नहीं होता। इस तरह जैनधर्ममें हिंसाके दो भेद किये हैं- द्रव्यहिंसा या बहिरंगहिंसा और भावहिंसा या अन्तरंगहिंसा | केवल द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं है भावहिंसा ही हिंसा है । द्रव्यहिंसा के अभाव में भी केवल भावहिंसाके कारण सिक्थकमत्स्य तन्दुलमत्स्य (मरकर ) सातवें नरक में जाता है । अतः शुद्धनयसे अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है बाह्यहिंसा हिंसा नहीं है । षट्खं., [ पु. १४, पृ. १. 'म्रियतां मा मृत जीव: ' - अमि श्राव. ६ । २५ ॥ २. 'वियोजयति चासुभिर्न च बधेन संयुज्यते, शिवं च न परोपमर्दपरुषस्मृतेविद्यते । वधोपनयमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि त्वयायमतिदुर्गमः प्रशमहेतुरुद्योतितः ॥ For Private & Personal Use Only ३ ६ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy