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चतुर्थ अध्याय
२३५ तेषां च पूर्णापूर्णानां प्राणसंख्या यथा
'सर्वेष्वङ्गेन्द्रियायूंषि पूर्णेष्वानः शरीरिषु । वाग् द्वित्र्यादिहृषीकेषु मनः पूर्णेषु संज्ञिषु॥ तथा संज्ञिनि चैकैको हीनोऽन्येष्वन्त्ययोर्द्वयम् ।
अपर्याप्तेषु सप्ताद्या एकैकोऽन्येषु हीयते ॥' [ अमित. पं. सं. १११२५-१२६ ] संज्ञिनः पर्याप्तस्य स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनोवाक्कायबलानि त्रीण्यायुरुच्छासश्चेति दश। ६ असंज्ञिनो मनोवर्जा नव । चतुरिन्द्रियस्य मनःश्रोत्रवा अष्टौ । त्रीन्द्रियस्य ते चक्षर्वाः सप्त । द्वीन्द्रियस्य ते घ्राणवाः षट् । एकेन्द्रियस्य ते रसनवाग्बलाम्यां विना चत्वारः । तथा संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्चापर्याप्तस्य मनोवागुच्छवासवर्जास्ते सप्त । चतुरिन्द्रियस्य श्रोत्रवर्जाः षट् । त्रीन्द्रियस्य ते चार्वर्जाः पञ्च । द्वीन्द्रियस्य ते घ्राणं विना चत्वारः। एकेन्द्रियस्य ते रसनं विना त्रयः । पर्याप्तापर्याप्तलक्षणं यथा
'गृहवस्त्रादिकं द्रव्यं पूर्णापूर्ण यथा भवेत् । पूर्णेतरास्तथा जीवाः पर्याप्तेतरनामतः ॥ आहाराङ्गेन्द्रियप्राणवाचः पर्याप्तयो मनः । चतस्रः पञ्च षट् चैकद्वयक्षादौ संज्ञिनां च ताः ।। पयोप्ताख्योदयाज्जीवः स्वस्वपयोतिनिष्ठितः। वपुर्यावदपर्याप्तं तावन्निवयंपूर्णकः ।। निष्ठापयेन्न पर्याप्तिमपूर्णस्योदये स्वकाम् ।
सान्तर्मुहूर्तमृत्युः स्याल्लब्ध्यपर्याप्तकः स तु ॥ [ ] निगोदजीवोंसे प्रतिष्ठित होते हैं। इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंके प्राणोंकी संख्या इस प्रकार है-संज्ञी पर्याप्तकके स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और उच्छवास ये दस प्राण होते हैं। असंज्ञीके मनको छोड़कर नौ प्राण होते हैं चतुरिन्द्रियके मन और श्रोत्रको छोड़कर आठ होते हैं। तेइन्द्रियके उनमें-से चक्षुको छोड़कर सात प्राण होते हैं। दो-इन्द्रियके उनमें-से घ्राणको छोड़कर छह प्राण होते हैं। एकेन्द्रियके उनमें-से रसना और वचनबलको छोड़कर चार प्राण होते हैं। तथा संज्ञी और असंज्ञी अपर्याप्तकके मनोबल, वचनबल और उच्छ्वासको छोड़कर सात प्राण होते हैं। चतुरिन्द्रियके श्रोत्रको छोड़कर छह प्राण होते हैं । तेइन्द्रियके चक्षुको छोड़कर पाँच प्राण होते हैं। दोइन्द्रियके घ्राणके बिना चार प्राण होते हैं। एकेन्द्रियके रसनाके बिना तीन प्राण होते हैं। पर्याप्त
और अपर्याप्तका लक्षण इस प्रकार है-जैसे मकान, घट, वस्त्र आदि द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण होते हैं वैसे ही पूर्ण जीवोंको पर्याप्त और अपूर्ण जीवोंको अपर्याप्त कहते हैं। __आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं। इनमें एकेन्द्रियके आरम्भकी चार पर्याप्तियाँ होती है, विकलेन्द्रियके पाँच और संज्ञीके छह पर्याप्तियाँ होती हैं।
पर्याप्तिनामकर्मका उदय होनेपर जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियोंकी पूर्तिमें लग जाता है। जबतक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक उसे निवृत्यपर्याप्तक कहते हैं। और अपर्याप्त नामकमका उदय होनेपर जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियोंकी पूर्ति नहीं कर पाता । अन्तमुहूर्तमें ही उसका मरण हो जाता है। उसे लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं।
ण होते हैं।
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