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धर्मामृत ( अनगार) तत्स्वरूपविशेषशास्त्रं त्विदम्
'विज्ञि-( चिन्ति- )ताचिन्तिता दिचिन्तिताद्यर्थवेदकम् । स्यान्मनःपर्ययज्ञानं चिन्तकश्च नृलोकगः ॥' 'द्विधा हृत्पर्ययज्ञानमृज्व्या विपुलया धिया। अवक्रवाङ्मनःकायवर्त्यर्थजनितस्त्रिधा॥' 'स्यान्मतिविपुला षोढा वक्रावक्राङ्गवाग्घृदि । तिष्ठतां व्यञ्जनार्थानां षड्भिदां ग्रहणं यतः ॥' 'पूर्वास्त्रिकालरूप्यर्थान् वर्तमाने विचिन्तके । वेत्त्यस्मिन् विपुला धीस्तु भूते भाविनि सत्यपि ॥' 'विनिद्राष्टदलाम्भोजसन्निभं हृदये स्थितम् ।
प्रोक्तं द्रव्यमनः ( तज्ज्ञैर्मनः )पर्ययकारणम् ॥ [ ] इत्यादि । वस्तुतत्त्वनियतत्वात्-वस्तुनो द्रव्यपर्यायात्मनोऽर्थस्य तत्त्वं याथात्म्यं तत्र नियताः प्रतिनियतवृत्त्या निबद्धास्तेषां भावस्तत्त्वं तस्मात् । तथाहि-इन्द्रियजा मतिः कतिपयपर्यायविशिष्टं मूर्तमेव वस्तु भी तीन प्रकार का है-क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्रभवाननुगामी । जो क्षेत्रान्तरमें साथ नहीं जाता, भवान्तरमें ही साथ जाता है वह क्षेत्राननुगामी अवधिज्ञान है। जो भवान्तरमें साथ नहीं जाता, क्षेत्रान्तरमें ही साथ जाता है वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनोंमें साथ नहीं जाता किन्तु एक ही क्षेत्र और भवके साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्रभवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल विनाशको प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर ही नष्ट होता है वह अप्रतिपाती है। जिस अवधिज्ञानका करण जीवके शरीरका एकदेश होता है वह एक क्षेत्र है। जो अवधिज्ञान शरीरके सब अवयवोंसे होता है वह अनेकक्षेत्र है। तीर्थकर, देवों और नारकियोंके अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान होता है।
तत्त्वार्थ वार्तिकमें (१।२२।५) में प्रथम आठ भेदोंमें-से देशावधिके आठों भेद बतलाये हैं। परमावधिके हीयमान और प्रतिपाती भेदोंके सिवाय शेष छह भेद बतलाये हैं और सर्वावधिके अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद बतलाये हैं।
दूसरेके मनमें स्थित अर्थको मन कहते हैं उसका स्पष्ट जानना मनःपर्यय है । उसका लक्षण है
विशदमनोवृत्ति अर्थात् मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न विशुद्धिवाला जीव अपने या परके मनको लेकर दूसरेके मनोगत अर्थको जानता है उस ज्ञानको मनःपर्यय कहते हैं। उसका विशेष स्वरूप शास्त्र में इस प्रकार कहा है
'मनुष्य लोकमें स्थित जीवके द्वारा चिन्तित, अचिन्तित, अर्द्धचिन्तित अर्थको जाननेवाला मनःपर्यय ज्ञान है । उसके दो भेद हैं-ऋजुमति मनःपर्यय और विपुलमति मनःपर्यय । ऋजुमतिके तीन भेद हैं-ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ, ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ, ऋजुकायकृतार्थज्ञ । अर्थात् मनके द्वारा पदार्थका स्पष्ट चिन्तन करके, वचनके द्वारा स्पष्ट कहकर, शरीरकी चेष्टा स्पष्ट रूपसे करके भूल जाता है कि मैंने अमुक पदार्थका चिन्तन किया था या अमुक बात कही थी या शरीरके द्वारा अमुक क्रिया की थी। इस प्रकारके अर्थको ऋजुमतिज्ञानी पूछनेपर या बिना पूछे भी जान लेता है कि अमुक पदार्थका तुमने इस रीतिसे विचार किया था
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