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________________ २०० धर्मामृत ( अनगार) अथ मत्यादिज्ञानानामप्युपयोगो मुमुक्षूणां स्वार्थसिद्धय विधेय इत्युपदेशार्थमाह मत्यवधिमनःपर्ययबोधानपि वस्तुतत्त्वनियतत्वात् । उपयुञ्जते यथास्वं मुमुक्षवः स्वार्थसंसिद्धये ॥४॥ अवधि:-अधोगतं बहतरं द्रव्यमवच्छिन्नं वा रूपि द्रव्यं धीयते व्यवस्थाप्यते अनेनेत्यवधिर्देशप्रत्यक्षज्ञानविशेषः । स त्रेधा देशावध्यादिभेदात् । तत्र देशावधिरवस्थितोऽनवस्थितोऽनुगाम्यननुगामी वर्धमानो ६ हीयमानश्चेति षोढा स्यात् । परमावधिरनवस्थितहीयमानवर्जनाच्चतुर्धा । सर्वावधिस्त्ववस्थितोऽनुगाम्यननुगामी चेति त्रेधा । भवति चात्र श्लोकः 'देशावधिः सानवस्थाहानिः स परमावधिः। वर्धिष्णुः सर्वावधिस्तु सावस्थानुगमेतरः ॥' [ आगे उपदेश देते हैं कि मुमुक्षुओंको स्वार्थकी सिद्धिके लिए मति आदि ज्ञानोंका भी उपयोग करना चाहिए मुमुक्षुगण स्वार्थकी संप्राप्तिके लिए मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका भी यथायोग्य उपयोग करते हैं। क्योंकि ये ज्ञान भी वस्तुतत्त्वके नियामक हैं, वस्तुका यथार्थ स्वरूप बतलाते हैं ॥४॥ विशेषार्थ-मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर इन्द्रिय और मनकी सहायतासे जो अर्थको जानता है वह मतिज्ञान है । उसके मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध आदि अनेक भेद हैं। बाह्य और अन्तरंगमें स्पष्ट अवग्रहादि रूप जो इन्द्रियजन्य ज्ञान और स्वसंवेदन होता है उसे मति और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। स्वयं अनुभूत अतीत अर्थको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको स्मृति कहते हैं जैसे वह देवदत्त । यह वही है, यह उसके समान है, यह उससे विलक्षण है इस प्रकारके स्मृति और प्रत्यक्षके जोड़रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान या संज्ञा कहते हैं । आगके बिना कभी भी कहींपर धुआँ नहीं होता, या आत्माके बिना शरीरमें हलन-चलन आदि नहीं होता यह देखकर जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ आग होती है या जिस शरीरमें हलन-चलन है उसमें आत्मा है इस प्रकारकी व्याप्ति के ज्ञानको तकर ऊह या चिन्ता कहते हैं। उक्त व्याप्तिज्ञानके बलसे धूमको देखकर अग्निका ज्ञान करना अनुमान या अभिनिबोध है। रात या दिनमें अकस्मात् बाह्य कारणके बिना 'कल मेरा भाई आवेगा' इस प्रकारका जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रतिभा है। अर्थको ग्रहण करनेकी शक्तिको बुद्धि कहते हैं। पठितको ग्रहण करनेकी शक्तिको मेधा कहते हैं। ऊहापोह करनेकी शक्तिको प्रज्ञा कहते हैं । ये सब इन्द्रिय और मनके निमित्तसे होनेवाले मतिज्ञानके ही भेद हैं। अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर अधिकतर अधोगत द्रव्यको अथवा मर्यादित नियतरूपी द्रव्यको जाननेवाले ज्ञानको अवधि कहते हैं। यह देशप्रत्य भेद है। उसके तीन भेद हैं-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि । देशावधिके छह भेद हैंअवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान और हीयमान । परमावधिके अनवस्थित और हीयमानको छोड़कर शेष चार भेद हैं। सर्वावधिके तीन ही भेद हैंअवस्थित, अनुगामी और अननुगामी । कहा भी है 'देशावधि अनवस्था और हानि सहित है। परमावधि बढ़ता है और सर्वावधि अवस्थित अनुगामी और अननुगामी होता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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