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द्वितीय अध्याय 'अहमेको न मे कश्चिदस्ति त्राता जगत्त्रये । इति व्याधिव्रजोत्क्रान्ति भीति शङ्कां प्रचक्षते ॥ एतत्तत्त्वमिदं तत्त्वमेतद्वतमिदं व्रतम् ।
एष देवश्च देवोऽयमिति शङ्कां विदुः पराम् ।।' -[ सोम. उपा. ] अञ्जनस्य-अञ्जननाम्नश्चोरस्य ।।७४॥ अथ कांक्षातिचारनिश्चयार्थमाह
या रागात्मनि भङ्गरे परवशे सन्तापतृष्णारसे
दुःखे दुःखदबन्धकारणतया संसारसौख्ये स्पृहा । स्याज्ज्ञानावरणोदयकजनितभ्रान्तेरिदं दृक्तपो
माहात्म्यादुदियान्ममेत्यतिचरत्येषेव काक्षा दृशम् ॥७५॥ रागात्मनि–इष्टवस्तुविषयप्रीतिस्वभावे । सन्तापतृष्णारसे --- सन्तापश्च तृष्णा च रसो निर्यासोऽन्तःसारोऽस्य । उक्तं च
हुए कहा है-जिस संसारमें देवोंके स्वामी इन्द्रोंका भी विलय देखा जाता है तथा जहाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश-जैसे देव भी कालके ग्रास बन चुके हैं उस संसारमें कुछ भी शरण नहीं है। जैसे शेरके पंजे में फंसे हुए हिरनको कोई नहीं बचा सकता, वैसे ही मृत्युके मुखमें गये हुए प्राणीको भी कोई नहीं बचा सकता । यदि मरते हुए जीवको देव, तन्त्र, मन्त्र, क्षेत्रपाल वगैरह बचा सकते तो मनुष्य अमर हो जाते । रक्षाके विविध साधनोंसे युक्त बलवानसे बलवान् मनुष्य भी मृत्युसे नहीं बचता। यह सब जानते-देखते हुए भी मनुष्य तीव्र मिथ्यात्वके फन्दे में फंसकर भूत, प्रेत, यक्ष, आदिको शरण मानता है। आयुका क्षय होनेसे मरण होता है और आयु देने में कोई भी समर्थ नहीं है अतः स्वर्गका स्वामी इन्द्र भी मृत्यु से नहीं बचा सकता । दूसरोंको बचानेकी बात तो दूर है, यदि देवेन्द्र अपनेको स्वर्गसे च्युत होनेसे बचा सकता तो वह सर्वोत्तम भोगोंसे सम्पन्न स्वर्गको ही क्यों छोड़ता। इसलिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही शरण है, अन्य कुछ भी संसारमें शरण नहीं है, उसीकी परम श्रद्धासे सेवा करनी चाहिए । इस प्रकारकी श्रद्धाके बलसे भयरूप शंकासे छुटकारा मिल सकता है। अतः परमात्मामें विशुद्ध भाव युक्त अन्तरंग अनुराग करना चाहिए और उनके द्वारा कहे गये धर्मको मोक्षमार्ग मानकर संशयरूप शंकासे मुक्त होना चाहिए और सम्यग्दर्शनके निःशंकित अंगका पालन करने में प्रसिद्ध हुए अंजनचौरके जीवनको स्मृति में रखना चाहिए कि किस तरह उसने सेठ जिनदत्तके द्वारा बताये गये मन्त्रपर दृढ़ श्रद्धा करके पेड़में लटके छीकेपर बैठकर उसके बन्धन काट डाले और नीचे गड़े अस्त्र-शस्त्रोंसे मृत्युका भय नहीं किया। तथा अंजनसे निरंजन हो गया ||७४||
कांक्षा नामक अतीचारको कहते हैं
सांसारिक सुख इष्ट वस्तुके विषयमें प्रीतिरूप होनेसे रागरूप है, स्वयं ही नश्वर है, पुण्यके उदयके अधीन होनेसे पराधीन है, सन्ताप और तृष्णा उसके फल हैं, दुःखदायक अशुभ कर्मके बन्धका कारण होनेसे दुःखरूप है। ऐसे सांसारिक सुखमें एकमात्र ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाली भ्रान्तिसे जो आकांक्षा होती है कि सम्यग्दर्शनके या तपके माहात्म्यसे मुझे यह इन्द्र आदिका पद या संसारका सुख प्राप्त हो, यही कांक्षा सम्यग्दर्शनमें अतीचार लगाती है ।।७५।।
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