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धर्मामृत (अनगार
पुराणि शरीराणि एकेन्द्रियादिकायाः । पक्षे – शत्रु । तेषां भ्रंशः - कायपक्षेऽप्रादुर्भावो नगरपक्षे च विनाशः । कृतोऽसौ यत्राभ्युदयसर्जनकर्मणि सम्यक्त्वाराध को हि जीवः सम्यक्त्वग्रहणात् प्रागबद्धायुष्कश्चेत्तदा नरकादिषु न ३ प्राप्नोति । बद्धायुष्कोऽप्यधोन रकभूमिषट्कादिषु नोत्पद्यते । तथा चोक्तम्'छसुट्ठिमासु पुढविसु जोइसि-वण- भवण-सव्वइत्थी सु ।
वारस मिच्छुववाए सम्माइट्ठी ण उववण्णा ॥' [ पं. सं. १।१९३ ] एतेनेदमपि योगमतं प्रत्युक्तं भवति
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'नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥' [ ]
न चोपभोगात् प्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यंभावात् संसारानुच्छेदः समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्यावगतकर्मसामर्थ्येत्पादितयुगपदशेषशरीरद्वारावाप्ताशेषभोगस्योपात्तकर्मप्रक्षयात्, भाविकर्मोत्पत्तिनिमित्तमिथ्याज्ञानजनितानुसन्धानविकलत्वाच्च संसारच्छेदोपपत्तेः । अनुसंधीयते गतं चित्तमनेनेत्यनुसंधानं रागद्वेषाविति । १२ क्लृप्तप्रभा—आहितप्रभावातिशया नियतिः - दैवं तच्चेह पुण्यं, पक्षे महेश्वरशक्तिविशेषः । तत्राद्यशक्तिह पार्वती तथा चाहितातिशया सती नियतिर्भक्तान् प्रति परमाभ्युदयं करोतीति भावः । फेलेत्यादि फेलाभुक्तोच्छिष्टम् । सा चेह सुरेन्द्रादिविभूतिः । तां हि भुक्त्वा त्यक्त्वा च सम्यक्त्वा राधकाः परमार्हन्त्यलक्ष्मीलक्षणं १५ परमाभ्युदयं लब्ध्वा शिवं लभन्ते । तथा चोक्तम् —
'देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोऽचं नीयम् ।
धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः ॥ ' [ रत्न श्रा. ४१ ] फेलां भोक्तारः ताच्छीत्यादिना भुञ्जानाः फेलाभोक्तारः, अतथाभूतास्तथाभूताः कृता जगत्पतयः ऊर्ध्वमध्याधोभुवनस्वामिनो यत्र यया वा ॥ ६८ ॥
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विशेषार्थ - जैसे शैवधर्म में महादेव परमपुरुष हैं और उनकी आद्या शक्ति पार्वती है। उस शक्ति प्रभावित होकर नियति शत्रुओंके नगरोंको नष्ट करती है । उसी तरह जैनधर्म में परमपुरुष परमात्मा है और उसकी आद्य या प्रधान शक्ति सम्यग्दर्शन है । उस सम्यग्दर्शनसे प्रभावित नियति अर्थात् पुण्य एकेन्द्रियादि पर्यायमें जन्मको रोकता है। आशय यह है कि सम्यक्त्वका आराधक जीव सम्यक्त्व ग्रहणसे पहले यदि आगामी भवकी आयुका बन्ध नहीं करता तो वह मरकर नरक आदि दुर्गति में नहीं जाता। यदि आयुबन्ध कर लेता है तो नीचे के छह नरकों आदिमें जन्म नहीं लेता । कहा भी है-नीचे के छह नरकोंमें, ज्योतिषीदेव, व्यन्तरदेव, भवनवासी देवोंमें और सब स्त्रियोंमें अर्थात् तिर्यंची, मानुषी और देवी इन बारह मिथ्योपपाद में अर्थात् जिनमें मिध्यादृष्टि जीव ही जन्म लेता है, सम्यग्दृष्टि का जन्म नहीं होता। इससे नैयायिक वैशेषिकोंका यह मत भी खण्डित होता है कि सैकड़ों करोड़ कल्प बीत जानेपर भी भोगे बिना कर्मोंका क्षय नहीं होता । किये हुए शुभ और अशुभ कर्म अवश्य ही भोगने पड़ते हैं । इस तरह सम्यक्त्व के प्रभाव से दुर्गतियों का नाश होता है; नरेन्द्रसुरेन्द्र आदिकी विभूतियाँ प्राप्त होती हैं । सम्यग्दृष्टि जीव उन्हें भी भोगकर छोड़ देते हैं और परम आर्हन्त्य लक्ष्मीरूप परम अभ्युदयको प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करते हैं । आचार्य समन्तभद्रने कहा है - जिनेन्द्रका भक्त भव्य सम्यग्दृष्टि अपरिमित माहात्म्य वाली देवेन्द्रोंके समूहकी महिमाको, राजाओंके शिरोंसे पूजनीय राजेन्द्रचक्र अर्थात् चक्रवर्ती पदको, और समस्त लोकों को निम्न करनेवाले धर्मेन्द्रचक्र अर्थात् तीर्थंकर पदको प्राप्त करके मोक्षको प्राप्त करता है ||६||
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