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________________ ३ १५० धर्मामृत (अनगार ) विनेत्यादि -- यद्वार्तिकम् - [ त श्लोक ३।३ ] विना परोपदेशेन तत्त्वार्थप्रतिभासनम् । निसर्गोऽधिगमस्तेन कुलं तदिति निश्चयः ॥ ४८|| सम्यक्त्व तत्त्वार्थके परिज्ञानसे शून्य होने के कारण सम्भव नहीं है । निसर्गका अर्थ है परोपदेशसे निरपेक्ष ज्ञान । जैसे सिंह निसर्गसे शूर होता है । यद्यपि उसका शौर्य अपने विशेष कारणों से होता है तथापि किसीके उपदेशकी उसमें अपेक्षा नहीं होती इसलिए लोकमें उसे नैसर्गिक कहा जाता है । उसी तरह परोपदेशके बिना मति आदि ज्ञानसे तत्त्वार्थको जानकर होनेवाला तत्त्वार्थश्रद्धान निसर्ग कहा जाता है । शंका- इस तरह तो सम्यग्दर्शनके साथ मति आदि ज्ञानोंकी जो उत्पत्ति मानी गयी है कि सम्यग्दर्शनके होनेपर ही मति आदि ज्ञान होते हैं उसमें विरोध आता है। क्योंकि, सम्यग्दर्शनसे पहले भी मति आदि ज्ञान आप कहते हैं ? समाधान -- नहीं, सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करनेके योग्य मति अज्ञान आदिको मति ज्ञान कहा जाता है । वैसे मति आदि ज्ञानोंकी उत्पत्ति तो सम्यग्दर्शनके समकालमें ही होती है । शंका - तब तो मिथ्याज्ञानसे जाने हुए अर्थ में होनेवाला सम्यग्दर्शन मिथ्या कहा जायेगा ? समाधान - यदि ऐसा है तब तो ज्ञान भी मिथ्या ही कहा जायेगा । शंका - सत्यज्ञानका विषय अपूर्व होता है इसलिए मिथ्याज्ञानसे जाने हुए अर्थ में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती | समाधान - तब तो सभीके सत्यज्ञानकी सन्तान अनादि हो जायेगी । शंका - सत्यज्ञानसे पहले उसके विषयमें मिथ्याज्ञानकी तरह सत्यज्ञानका भी अभाव है इसलिए सत्यज्ञानकी अनादिताका प्रसंग नहीं आता । समाधान - तब तो मिथ्याज्ञानकी तरह सत्यज्ञानका भी अभाव होनेसे सर्वज्ञानसे शून्य ज्ञाता के जड़त्वका प्रसंग आता है । किन्तु ज्ञाता जड़ नहीं हो सकता | शंका - सत्यज्ञानसे पहले उसके विषयका ज्ञान न तो मिथ्या है क्योंकि उसमें सत्यज्ञानको उत्पन्न करनेकी योग्यता है और न सत्य है क्योंकि वह पदार्थके यथार्थ स्वरूपको नहीं जानता । किन्तु वह सत्य और मिथ्यासे भिन्न ज्ञान सामान्य है अतः उसके द्वारा जाने गये अर्थ में प्रवृत्त होनेवाला सत्यज्ञान न तो मिथ्याज्ञानके द्वारा जाने गये अर्थका ग्राहक है और न गृहीतग्राही है । समाधान - तब तो सत्यज्ञानका विषय कथंचित् अपूर्व है सर्वथा नहीं, यह बात सिद्ध होती है । और उसे स्वीकार करने पर सम्यग्दर्शनको भी वैसा ही स्वीकार करना होगा । तब मिथ्याज्ञानसे जाने हुए अर्थ में या सत्यज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन कैसे हुआ कहा जायेगा। जिससे उसके समकालमें मति ज्ञानादिके मानने में विरोध आये । शंका- सभी सम्यग्दर्शन अधिगमज ही होते हैं क्योंकि ज्ञान सामान्यसे जाने हुए पदार्थ में होते हैं । समाधान नहीं, क्योंकि अधिगम शब्दसे परोपदेश सापेक्ष तत्त्वार्थ ज्ञान लिया जाता है | शंका- इस तरह तो इतरेतराश्रय दोष आता है क्योंकि सम्यग्दर्शन हो तो परोपदेशपूर्वक तत्त्वार्थज्ञान हो और परोपदेशपूर्वक तत्त्वार्थज्ञान हो तो सम्यग्दर्शन हो । समाधान - परोपदेश निरपेक्ष तत्त्वार्थज्ञानकी तरह सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करनेके योग्य परोपदेश सापेक्ष तत्त्वार्थज्ञान सम्यग्दर्शनके होनेसे पूर्व ही अपने कारणसे उत्पन्न हो जाता है । इसलिए इतरेतराश्रय दोष नहीं आता । शंका - सभी सम्यग्दर्शन स्वाभाविक ही होते हैं क्योंकि मोक्षकी तरह अपने समयपर स्वयं ही उत्पन्न होते हैं । समाधान - आपका हेतु असिद्ध है तथा सर्वथा नहीं जाने हुए अर्थ में श्रद्धान नहीं हो सकता । शंका - जैसे शूद्रको 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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