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द्वितीय अध्याय
प्रागुपात्तकर्मपटलानुभाग स्पर्द्धकानां शुद्धियोगेन प्रतिसमयानन्तगुणहीनानामुदीरणा क्षायोपशमिकी लब्धिः | १| क्षयोपशमविशिष्टोदीर्णानुभाग स्पर्द्धकप्रभवः परिणामः सातादिकर्मबन्धनिमित्तं सावद्य कर्म बन्धविरुद्धा शौद्ध लब्धिः | २ | यथार्थतत्त्वोपदेशतदुपदेशकाचार्याद्युपलब्धिरुपदिष्टार्थग्रहणधारणविचारणशक्तिर्वा दैनिकी लब्धिः | ३| अन्तः कोटा कोटी सागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामयोगेन सत्कर्म संख्येयसागरोपमसहस्रानायामन्तः कोटी कोटी सागरोपमस्थितौ स्थापितेषु आद्यसम्यक्त्वयोग्यता भवतीति प्रायोगिकी लब्धिः । श्लोक:
'अथाप्रवृत्तकापूर्वानिवृत्तिकरणत्रयम् ।
विधाय क्रमतो भव्यः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥' [ अमित० पञ्च. ११२८८
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भव्योऽनादिमिथ्यादृष्टिः षड्विंशतिमोह प्रकृतिसत्कर्मकः सादिमिथ्यादृष्टिर्वा षड्विंशति मोहप्रकृतिसत्कर्मकः सप्तविंशतिमोहप्रकृतिरात्कर्मको वा अष्टाविंशतिमोहप्रकृतिसत्कर्मको वा प्रथमसम्यक्त्वमादातुकामः शुभपरिनामाभिमुखोऽन्तर्मुहूर्तमनन्तगुणवृद्धया वर्धमानविशुद्धिश्चतुर्षु मनोयोगेष्वन्यतममनोयोगेन चतुर्षु वाग्योगेष्वन्यतमवायोगेन औदारिकर्व क्रियिक काययोगयोरन्यतरेण काययोगेन त्रिषु वेदेष्वन्यतमेन वेदेनालीढो निरस्तसंक्लेशो १२ हीयमानान्यतमकषायः साकारोपयोगो वर्द्धमानशुभपरिणामयोगेन सर्वप्रकृतीनां स्थिति ह्रासयन्नशुभप्रकृतीनामनुभागबन्धमपसारयन् शुभप्रकृतीनां वर्धयंस्त्रीणि करणानि प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त कालेन कर्तुमुपक्रमते । तत्रान्तःकोटीकोटीस्थितिकर्माणि कृत्वा यथाप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च क्रमेण प्रविशति । तत्र सर्व करणान १५
'समान अनुभाग शक्तिवाले परमाणुके समूहको वर्ग कहते हैं। वर्गोंके समूहको वर्गण कहते हैं और वर्गणाओंके समूहको स्पर्द्धक कहते हैं ।
क्षयोपशमसे युक्त उदीरणा किये गये अनुभाग स्पर्धकों से होनेवाले परिणामोंको विशुद्धिfor कहते हैं । वे परिणाम साता आदि कर्मोंके बन्धमें कारण होते हैं और पापकर्म के बन्धको रोकते हैं ||२|| यथार्थ तवका उपदेश और उसके उपदेशक आचार्योंकी प्राप्ति अथवा उपदिष्ट अर्थको ग्रहण, धारण और विचारनेकी शक्तिको देशनालब्धि कहते हैं || ३ || अन्त:कोटाकोटी सागरकी स्थितिको लेकर कर्मोंका बन्ध होनेपर विशुद्ध परिणामके प्रभाव से उसमें संख्यात हजार लागरकी स्थिति कम हो जानेपर अर्थात् संख्यात हजार सागर कम अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थिति होनेपर प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी योग्यता होती है । इसे प्रायोग्यलब्धि कहते हैं । इन चारों लब्धियोंके होनेपर भी सम्यक्त्व की प्राप्ति नियम नहीं है । हाँ, करणलब्धि होनेपर सम्यक्त्व नियमसे होता है । कहा है
'अथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणको क्रमसे करके भव्यजीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है'।
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इनका स्वरूप इस प्रकार है
जिस जीवको सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं हुई है उसे अनादि मिथ्यादृष्टि कहते हैं । उसके मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से छब्बीसकी ही सत्ता रहती है क्योंकि सम्यक्त्वके होनेपर ही एक मिध्यात्व कर्म तीन रूप होता है। जो जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसे छोड़ देता है उसे सादिमिथ्यादृष्टि कहते हैं । उसके मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी भी सत्ता होती है, सत्ताईसकी भी और छब्बीसकी भी । जब ये दोनों ही प्रकार के मिथ्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुख होते हैं तो उनके शुभ परिणाम होते हैं, अन्तर्मुहूर्त का तक उनकी विशुद्धि अनन्त गुणवृद्धि के साथ वर्धमान होती है, चार मनोयोगों में से कोई एक मनोयोग, चार वचनयोगों में से कोई एक वचनयोग, औदारिक और वैक्रियिक काययोग में
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