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________________ ६ द्वितीय अध्याय १४१ पर्ययवृत्तिः-संक्लेशविशुद्धिरूपा परिणतिः परिशुद्धी यो बोधः पर्ययस्तत्र वृत्तिरिति व्युत्पत्तेः । सैषा भावनिर्जरा। यावता कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिवृहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा । तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समपात्तकर्मपुद्गलानां च द्रव्यनिर्जरा । एतेन 'अंशत' इत्याद्यपि व्याख्यातं बोद्धव्यम। उक्तं च 'जह कालेण तवेण भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण । भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा' ।। [ द्रव्य सं. ३६ ] ॥४२॥ अथ निर्जराभेदनिर्मानार्थमाह द्विधा कामा सकामा च निर्जरा कर्मणामपि । फलानामिव यत्पाकः कालेनोपक्रमेण च ॥४३॥ अकामा-कालपक्वकर्मनिर्जरणलक्षणा। सकामा--उपक्रमपक्वकर्मनिर्जरणलक्षणा । उपक्रमेणबुद्धिपूर्वकप्रयोगेण । स च मुमुक्षूणां संवरयोगयुक्तं तपः । उक्तं च 'संवरजोगेहि जुदो तवेहि जो चिट्ठदे बहुविहेहि । कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं ॥' [ पञ्चास्ति. १४४ ] विशेषार्थ-निर्जराके भी दो भेद हैं--भावनिर्जरा और द्रव्यनिर्जरा। भावनिर्जरा पर्ययवृत्ति है अर्थात् संक्लेशसे निवृत्ति रूप परिणति भावनिर्जरा है, क्योंकि संक्लेशनिवृत्ति रूप परिणतिसे ही आत्माके प्रदेशोंमें स्थितकर्म एक देशसे झड़ जाते हैं, आत्मासे छूट जाते हैं। और एक देशसे कर्मोंका झड़ जाना द्रव्य निर्जरा है। शंका-पर्ययवृत्तिका अर्थ संक्लेशनिवृत्तिरूप परिणति कैसे हुआ? समाधान--परिशुद्ध बोधको-ज्ञानको पर्यय कहते हैं, उसमें वृत्ति पर्ययवृत्ति है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार पर्ययवृत्तिका अर्थ होता है संक्लेशपरिणाम निवृत्तिरूप परिणति । सारांश यह है कि कर्मकी शक्तिको काटने में समर्थ और बहिरंग तथा अन्तरंग तपोंसे वृद्धिको को प्राप्त शुद्धोपयोग भावनिजेरा है । और उस शुद्धोपयोग के प्रभावसे नीरस हुए कर्मपुद्गलोंका एक देशसे क्षय होना द्रव्यनिर्जरा है । कहा भी है 'यथा समय अथवा तपके द्वारा फल देकर कर्मपुद्गल जिस भावसे नष्ट होता है वह भावनिर्जरा है। कर्मपुद्गलका आत्मासे पृथक् होना द्रव्य निर्जरा है। इस प्रकार निर्जराके दो भेद हैं ॥४२॥ द्रव्य निर्जराके भेद कहते हैं___ निर्जरा दो प्रकारकी है-अकामा और सकामा। क्योंकि फलोंकी तरह कर्मोंका भी पाक कालसे भी होता है और उपक्रमसे भी होता है ॥४३॥ विशेषार्थ-यहाँ निर्जरासे द्रव्यनिर्जरा लेना चाहिए। अपने समयसे पककर कर्मकी निर्जरा अकामा है। उसे सविपाक निर्जरा और अनौपक्रमिकी निर्जरा भी कहते हैं। और उपक्रमसे विना पके कर्मकी निर्जराको सकामा कहते हैं। उसे ही अविपाक निर्जरा और औपक्रमिकी निर्जरा भी कहते हैं। जैसे आम आदि फलोंका पाक कहीं तो अपने समयसे होता है कहीं पुरुषोंके द्वारा किये गये उपायोंसे होता है। इसी तरह ज्ञानावरण आदि कर्म भी अपना फल देते हैं। जिस कालमें फल देने वाला कर्म बाँधा है उसी कालमें उसका फल देकर जाना सविपाक निर्जरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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