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अथ पुण्यपापपदार्थनिर्णयार्थमाह
द्वितीय अध्याय
पुण्यं यः कर्मात्मा शुभपरिणामैकहेतुको बन्धः ।
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शुभायुर्नामगोत्रभित्ततोऽपरं पापम् ॥४०॥
पुण्यं - द्रव्यपुण्यमित्यर्थः । यावता पुद्गलस्य कर्तुर्निश्चय कर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्व परिणामो जीवशुभ परिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम् । जीवस्य च कर्तुर्निश्चय कर्मतामापन्नः शुभपरिणामो द्रव्यपुण्यस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपुण्यम् । भित्-भेदः । ततोऽपरं - पुण्यादन्यत् अशुभ परिणामैककर्मत्व (बन्ध ) रूपं द्वयशीतिज्ञानावरणादि प्रकृतिभेदमित्यर्थः । तद्यथा - ज्ञानावरणप्रकृतयः पञ्च, दर्शनावरणीयस्य नव, मोहनीयस्य षड्विंशतिः सम्यक्त्वसम्यक् मिथ्यात्ववर्जा, पञ्चान्तरायस्य, नरकगतितिर्यग्गती द्वे, चतस्रो जातयः, पञ्चेद्रियजातिवर्जाः, पञ्च संस्थानानि समचतुरस्रवर्जानि, पञ्च संहनानि वज्रर्षभनाराचवर्जानि, अप्रशस्त वर्णगन्धरसस्पर्शाः, नरकगतितिर्यग्गत्यानुपूर्व्यद्वयम् उपघाताप्रशस्त विहायोगति-स्थावर सूक्ष्मापर्याप्त - साधारणशरीरास्थिरा शुभदुर्भगदुस्वरानादेयायशः कीर्तयश्चेति नामप्रकृतयश्चतुस्त्रिंशत् । असद्वेद्यं नरकायुनच गोत्रमिति । पापं -- द्रव्यपापमित्यर्थः । यतः पुद्गलस्य कर्तुर्निश्चय कर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवाशुभ परिणामनिमित्तो द्रव्यपापम् । जीवस्य च कर्तुनिश्चय कर्मतामापन्नो अशुभपरिणामो द्रव्यपापस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपापम् ॥४०॥
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आगे पुण्य और पाप पदार्थका स्वरूप कहते हैं
शुभ परिणामकी प्रधानता से होने वाला कर्मरूप बन्ध पुण्य है । सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र उसके भेद हैं। उससे अतिरिक्त कर्म पाप है ||४०||
विशेषार्थ - यहाँ पुण्य से द्रव्यपुण्य और पापसे द्रव्यपाप लेना चाहिए। पुद्गल कर्ता है और ज्ञानावरण आदि प्रकृतिरूपसे परिणमन उसका निश्चय कर्म है । जीवके शुभपरिणाम उसमें निमित्त है । कर्ता जीवके निश्चयकर्मरूप शुभपरिणाम द्रव्यपुण्य में निमित्तमात्र होनेसे कारणभूत है । अतः द्रव्यपुण्यका आस्रव होनेपर वे शुभपरिणाम भावपुण्य कहे जाते हैं । अर्थात् द्रव्य पुण्यासव और द्रव्य पापास्रव में जीवके शुभाशुभ परिणाम निमित्त होते हैं इसलिए उन परिणामोंको भाव पुण्य और भाव पाप कहते हैं । पुण्यासवका प्रधान कारण शुभ परिणाम है, योग बहिरंग कारण होनेसे गौण है । पुण्यास्रव के भेद हैं सातावेदनीय, शुभ आयुनरका को छोड़कर तीन आयु । शुभ नाम सैंतीस - मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्धरस-स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उछूवास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर, एक उच्चगोत्र, इसतरह ४२ पुण्य प्रकृतियाँ हैं ।
कर्ता पुद्गलका निश्चय कर्म है पुद्गलका विशिष्ट प्रकृतिरूपसे परिणाम । उसमें निमित्त हैं जीव के अशुभ परिणाम । कर्ता जीवके निश्चयकर्मरूप वे अशुभ परिणाम, द्रव्यपापके निमित्तमात्र होनेसे कारणभूत हैं, अतः द्रव्यपापका आस्रव होनेपर उन अशुभपरिणामों को भाव पाप कहते हैं । इस तरह अशुभपरिणामकी प्रधानतासे होने वाला कर्मबन्ध पाप है । उसके ८२ भेद हैं-ज्ञानावरण कर्मकी पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरणकी नौ, मोहनीयकी छब्बीस सम्यक्त्व और सम्यक् मिध्यात्वको छोड़कर क्योंकि इन दोनोंका बन्ध नहीं होता, अन्तराय कर्मकी पाँच, नरकगति, तियंचगति, पंचेन्द्रियको छोड़कर चार जातियाँ, समचतुरस्रको छोड़कर पाँच संस्थान, वज्रर्षभ नाराचको छोड़कर पाँच संहनन, अप्रशस्तवर्ण - गन्ध-रस
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