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धर्मामृत ( अनगार) रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्तम्मि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्सासवदि ॥ [ पञ्चास्ति. १३५ ] संण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा अ अट्टरुद्दाणि ।
णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति.॥ [ पञ्चास्ति. १४० ] स एष भावास्रवः पुण्यपापकर्मरूपद्रव्यास्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूवं स्यात् । ६ तन्निमित्तश्च शुभाशुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यास्रवः स्यात् । तथा चोक्तम्- .
आसवदि जेण कम्मं परिणामणप्पणो स विण्णेओ।
भावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ॥ [ द्रव्यसं. २९] ९ कर्मप्रकृतिपरिणति-ज्ञानावरणादिकर्म स्वभावेन परिणमनम् । उक्तम्
स्वभावको तो नहीं छोड़ता, किन्तु अनादिकालसे कर्मबन्धनसे बद्ध होनेके कारण अनादि मोह राग द्वेषसे स्निग्ध हुए अविशुद्ध भाव करता रहता है। जिस भी समय और जिस भी स्थानपर वह अपने मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव करता है, उसी समय उसी स्थानपर उसके भावोंका निमित्त पाकर जीवके प्रदेशोंमें परस्पर अवगाह रूपसे प्रविष्ट हुए पुद्गल स्वभावसे ही कर्मरूप हो जाते हैं । इसीका नाम आस्रव है। यह आस्रव योगके द्वारा होता. है। मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिका नाम योग है। योगरूपी द्वारसे आत्मामें प्रवेश करनेवाले कर्मवर्गणारूप पुद्ल ज्ञानावरण आदि कर्मरूपसे परिणमन करते हैं। आस्रवके दो भेद हैं-द्रव्यास्रव और भावास्रव । इनका स्वरूप इस प्रकार है
'आत्माके जिस परिणामसे कर्म आते हैं उसे भावास्रव जानो और कर्मोंका आना
द्रव्यास्रव है।'
जीवके जिस परिणामसे कर्म आते हैं वह परिणाम या भाव या तो शुभ होता है या अशुभ होता है। शुभ भावसे पुण्यकर्मका आस्रव होता है और अशुभ भावसे पापकर्मका आस्रव होता है।
कहा भी है
'जिसका राग प्रशस्त है 'अर्थात् जो पंचपरमेष्ठीके गुणोंमें, उत्तम धर्ममें अनुराग करता है, जिसके परिणाम दयायुक्त हैं और मनमें क्रोध आदि रूप कलुषता नहीं है उस जीवके पुण्यकर्मका आस्रव होता है।'
तीव्र मोहके उदयसे होनेवाली आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा, तीव्र कषायके उदयसे रँगी हुई मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिरूप कृष्ण, नील, कापोत ये तीन लेश्याएँ, राग-द्वेषके उदयके प्रकर्षसे तथा इन्द्रियों की अधीनतारूप राग-द्वेषके उद्रे कसे प्रिय संयोग, अप्रियका वियोग, कष्टसे मुक्ति और आगामी भोगोंकी इच्छारूप आर्तध्यान, कषायसे चित्तके क्रूर होनेसे हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षणमें आनन्द मानने रूप रौद्र ध्यान, शुभकर्मको छोड़कर दुष्कर्मोंमें लगा हुआ ज्ञान और दर्शनमोहनीय तथा चारित्र मोहनीयके उदयसे होनेवाला अविवेकरूप मोह ये सब पापास्रवके कारण हैं। १. आसवदि जेण कम्मं परिणामेप्पणो स विण्णेओ ।
भावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि॥-द्रव्यसं, गा. २९ ।
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