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द्वितीय अध्याय
१२९ यद्येवं तहि कः किं प्राधान्येन चेतयत इत्याह
सर्व कर्मफलं मुख्यभावेन स्थावरास्त्रसाः।
सकार्य चेतयन्तेऽस्तप्राणित्वा ज्ञानमेव च ॥३५॥ कर्मफलं-सुखदुःखम् । स्थावराः-एकेन्द्रिया जीवाः पृथिवीकायिकादयः । त्रसा:-द्वीन्द्रियादयः । सकार्य-क्रियत इति कार्य कर्म बुद्धिपूर्वो व्यापार इत्यर्थः । तेन सहितम् । कार्यचेतना हि प्रवृत्तिनिवृत्तिकारणभूतक्रियाप्राधान्योत्पाद्यमानः सुखदुःखपरिणामः। चेतयन्ते-अनुभवन्ति। अस्तप्राणित्वाः-व्यवहारेण ६ जीवन्मुक्ता । परमार्थेन परममुक्ता एव हि निजीर्णकर्मफलत्वादत्यन्तकृतकृत्यत्वाच्च स्वतोऽव्यतिरिक्तस्वाभाकिकसुखं ज्ञानमेव चेतयन्ते । जीवन्मुक्तास्तु मुख्यभावेन ज्ञानं गौणतया त्वन्यदपि । ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं ह्यज्ञानचेतना। सा द्विविधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च। तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमोति चेतनं कर्मचेतना ।
ज्ञानमें जो रूप प्रतिभासित होता है वही चेतना है। यह रूप न तो इन्द्रियमूलक है और न इन्द्रियजन्य ज्ञानमूलक है। इन्द्रियाँ तो अचेतन हैं और ज्ञान क्षणिक है। घटज्ञान घटको जाननेके बाद नष्ट हो जाता है और पट ज्ञान पटको जाननेके बाद नष्ट हो जाता है । घटको जाननेवाला ज्ञान भिन्न है और पटको जाननेवाला ज्ञान भिन्न है। फिर भी कोई एक ऐसा व्यक्तित्व है जो दोनों ज्ञानोंमें अनुस्यूत है, तभी तो वह अनुभव करता है कि जो मैं पहले अमुकको जानता था वही अब मैं अमुकको जानता हूँ यही चेतना या आत्मा है। उस चेतनाके तीन प्रकार हैं-कर्मचेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञानचेतना ॥३४॥
किन जीवोंके कौन चेतना होती है यह बतलाते हैं
सब पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रिय स्थावर जीव मुख्य रूपसे सुख-दुःखरूप कमफलका अनुभवन करते हैं। दो-इन्द्रिय आदि त्रस जीव मुख्य रूपसे कार्य चेतना का अनुभवन करते हैं और जो प्राणिपनेको अतिक्रान्त कर गये हैं वे ज्ञानका ही अनुभवन करते हैं ।।३५।।
विशेषार्थ-आत्माका स्वरूप चैतन्य ही है। आत्मा चैतन्यरूप ही परिणमित होता है। इसका आशय यह है कि आत्माका कोई भी परिणाम चेतनाको नहीं छोड़ता । चेतनाके तीन भेद हैं-ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। अर्थ विकल्पको ज्ञान कहते हैं। स्व और परके भेदको लिये हुए यह समस्त विश्व अर्थ है । और उसके आकारको जानना विकल्प है । जैसे दर्पणमें स्व और पर आकार एक साथ प्रकाशित होते हैं उसी प्रकार जिसमें एक साथ स्व-पर आकार प्रतिभासित होते हैं ऐसा अर्थ विकल्प ज्ञान है। जो आत्माके द्वारा किया जाता है वह कर्म है । अतः आत्माके द्वारा प्रति समय किया जानेवाला जो भाव है वही आत्माका कर्म है। वह कर्म यद्यपि एक प्रकारका है तथापि द्रव्यकर्मकी उपाधिकी निकटताके होने और न होनेसे अनेक रूप है। उस कर्मके द्वारा होनेवाला सुखदुःख कर्मफल है। द्रव्यकर्मरूप उपाधिके नहीं होनेसे जो कर्म होता है उसका फल अनाकुलता रूप स्वाभाविक सुख है। और द्रव्यकर्मरूप उपाधिका सान्निध्य होनेसे जो कर्म होता है उसका फल विकाररूप दुःख है क्योंकि संसारके सुखमें सुखका लक्षण नहीं पाया जाता । इस तरह चेतनाके तीन रूप हैं। जिन आत्माओंका चेतक स्वभाव अति प्रगाढ़ मोहसे मलिन होता है तथा तीव्रतर ज्ञानावरण कर्मके उदयसे उसकी शक्ति कुण्ठित होती है और अति प्रकृष्ट वीर्यान्तरायसे कार्य करनेकी शक्ति भी नष्ट हो जाती है ऐसे स्थावर एकेन्द्रिय जीव प्रधान रूपसे सुख-दुःखरूप कर्मफलका ही अनुभवन करते हैं। जिन जीवोंका चेतक
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