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धर्मामृत ( अनगार) तथा-जीवच्छरीरं प्रयत्नवताधीष्ठितमिच्छानुविधायिक्रियाश्रयत्वाद् द्रव्यवत् । श्रोत्रादीन्युपलब्धिसाधनानि कर्तप्रयोजनानि करणत्वाद् वास्यादिवदिति च। यश्च प्रयत्नवान कर्ता च स जीव इति परशरीरे ३ जीवसिद्धिः। स्वशरीरे तु स्वसंवेदनप्रत्यक्षादेवात्मा सिद्धः । तथा जलादयो गन्धादिमन्तः स्पर्शवत्त्वात् ।
यत्स्पर्शवत्तद् गन्धादिमत्प्रसिद्ध यथा पृथिवी। यत्पुनर्गन्धादिमन्न भवति न तत् स्पर्शवत् यथाऽऽत्मादि, इत्यनुमानाद् जलादिषु गन्धादिसद्भावसिद्धेः पुद्गललक्षणरूपादिमत्त्वयोगात्पुद्गलत्वसिद्धिः । उक्तं च
'उवभोज्जमिदिएहि इंदियकाया मणो य कम्माणि । जं हवदि मुत्तमण्णं तं सब्बं पोग्गलं जाण' ॥ [ पञ्चास्ति. ८२ ]
तथा
१२...
'द्विस्पर्शानंशनित्यैकवर्णगन्धरसोऽध्वनिः। द्रव्यादिसंख्याभेत्ताऽणुः स्कन्धभूः स्कन्धशब्दकृत् ।। द्वयधिकादिगुणत्यक्तजघन्यस्नेहरोक्षतः।। तत्तत्कर्मवशत्वाङ्गभोग्यत्वेनाणवोऽङ्गिनाम् ।। पिण्डिताद्या घनं सान्तं संख्याः क्षमाम्भोऽग्निवायुकः ।
स्कन्धाश्च ते व्यक्तचतुस्त्रिद्वयेकस्वगुणाः क्रमात् ॥' [ तथा जीवित शरीर किसी प्रयत्नवान्के द्वारा अधीष्ठित है, इच्छाके अनुसार क्रियाका आश्रय होनेसे । जाननेके साधन श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ कर्ताके द्वारा प्रयुक्त होती हैं कारण होनेसे विसौले आदिकी तरह । और जो प्रयत्नवान् कर्ता है वह जीव है। इससे पराये शरीरमें जीवकी सिद्धि होती है। अपने शरीर में तो स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ही आत्माकी सिद्धि होती है।
तथा जल आदि गन्धवाले हैं स्पर्शादिवाले होनेसे। जिसमें स्पर्श होता है उसमें गन्धका अस्तित्व भी प्रसिद्ध है, जैसे पृथिवीमें । जिसमें गन्ध आदि नहीं होते उसमें स्पर्श भी नहीं होता, जैसे आत्मा वगैरह । इस अनुमानसे जल आदिमें गन्ध आदिके सद्भावकी सिद्धि होनेसे पुद्गलपना सिद्ध होता है क्योंकि जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श होते हैं उसे पुद्गल कहते हैं। कहा भी है
'जो पाँचों इन्द्रियोंके द्वारा भोगने में आते हैं तथा इन्द्रियाँ, शरीर, मन, कर्म व जो अन्य मूर्तिक पदार्थ हैं वह सब पुद्गल द्रव्य जानो।'
और भी कहा है
'पुद्गलके एक परमाणुमें दो स्पर्शगुण, एक वर्ण, एक गन्ध और एक रस रहते हैं । परमाणु नित्य और निरंश होता है, शब्दरूप नहीं होता। द्रव्योंके प्रदेशोंका माप परमाणुके द्वारा ही किया जाता है । परमाणुओंके मेलसे ही स्कन्ध बनते हैं। शब्द स्कन्ध रूप होता है अतः परमाणु ही उसका कर्ता है।
जघन्य गुणवाले परमाणुओंको छोड़कर दो अधिक गुणवाले परमाणुओंका ही परस्परमें बन्ध होता है । बन्धमें कारण हैं स्निग्ध और रूक्षगुण । जैसे दो स्निग्धगुणवाले परमाणुका बन्ध चार स्निग्ध गुणवाले या चार रूक्ष गुणवाले परमाणुके ही साथ होता है तीन या पाँच गुणवालेके साथ नहीं होता । अपने-अपने कर्मके वशसे परमाणु प्राणियोंके भोग्य होते हैं।
- वे परमाणु परस्परमें पिण्डरूप होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु रूप स्कन्धोंमें परिवर्तित होते हैं। उनमें क्रमसे चार, तीन, दो और एक गुण व्यक्त होता है। अर्थात् पृथ्वीमें गन्ध,
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