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________________ द्वितीय अध्याय १०३ अथ ऐदंयुगीनानां तथाविधाप्तनिर्णयः कुतः स्यादित्यारेकायामिदमाह शिष्टानुशिष्टात् सोऽत्यक्षोऽप्यागमायुक्तिसंगमात् । पूर्वापराविरुद्धाच्च वेद्यतेऽद्यतनैरपि ॥१६॥ शिष्टानुशिष्टात्-शिष्टा आप्तोपदेशसंपादितशिक्षाविशेषाः स्वामिसमन्तभद्रादयस्तैरनुशिष्टाद् गुरुपर्वक्रमेणोपदिष्टात् । आगमात् 'आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥' [ रत्न० श्रा० ५ ] इत्यादिकात् । युक्तिसंगमात्-युक्त्या संयुज्यमानात् । युक्तिश्चात्र-आप्तागमः प्रमाणं स्याद् यथावद् वस्तुसूचकत्वादित्यादिका। पूर्वापराविरुद्धात्-'न हिंस्यात्सर्वभूतानि' इति 'यज्ञार्थं पशवः स्रष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा' इत्यादिवत् (न) पूर्वापरविरोधसहितात् । अद्यतनैः-सांप्रतिकैः श्रेयोथिभिः ॥१६॥ तरहसे सर्वदेश और सर्वकालका ज्ञाता होता है तभी तो वह इस प्रकारकी व्याप्ति बनाता है। इस व्याप्तिज्ञानसे सिद्ध है कि पुरुष सबको जान सकता है। केवल स्पष्ट रूपसे प्रत्यक्ष जानने में विवाद रहता है। सो उसमें दोष और आवरणका हट जाना ही कारण है। जैसे धूल, बर्फ आदिसे ढके हुए पदार्थके ज्ञानमें धूल, बर्फ आदिका हट जाना ही कारण है । दोष और आवरणके दूर हो जानेका साधन इस प्रकार किया जाता है-किसी व्यक्ति विशेषमें दोष और आवरण जड़मूलसे नष्ट हो जाते हैं क्योंकि उनकी हानि प्रकृष्यमाण है-बढ़ती जाती है। जिसकी हानि बढ़ती जाती है वह कहीं जड़मूलसे नष्ट हो जाता है जैसे अग्निमें तपानेसे सोने में-से कीट आदि अन्तरंग मल और कालिमा आदि बहिरंग मल नष्ट हो जाते हैं। दोष और आवरण भी क्षीण होते-होते एकदम क्षीण हो जाते हैं इस प्रकार पुरुषकी सर्वज्ञता सिद्ध होती है। स्वामी समन्तभद्रने कहा है किसी व्यक्तिमें दोष और आवरणकी हानि परी तरहसे होती है क्योंकि वह तरतम भावसे घटती हुई देखी जाती है। जैसे स्वर्णपाषाणमें बाह्य और अभ्यन्तर मलका क्षय हो जाता है। [ विशेषके लिए देखो-अष्टसहस्री टीका ] ॥१५।। ___ इसपर शंका होती है कि आजके युगके मनुष्य इस प्रकारके आप्तका निर्णय कैसे करें ? उसका समाधान करते हैं यद्यपि आप्तता अतीन्द्रिय है चक्षु आदिके द्वारा देखी नहीं जा सकती, फिर भी आप्तके उपदेशसे जिन्होंने विशिष्ट शिक्षा प्राप्त की है ऐसे स्वामी समन्तभद्र जैसे शिष्ट पुरुषोंके द्वारा गुरु परम्परासे कहे गये, और युक्तिपूर्ण तथा पूर्वापर अविरुद्ध आगमसे आजकलके मनुष्य भी परम आप्तको जान सकते हैं ॥१६॥ विशेषार्थ-अपने कल्याणके इच्छुक आजके भी मनुष्य आगमसे आप्तका निर्णय कर सकते हैं। आगमके तीन विशेषण दिये हैं। प्रथम तो वह आगम ऐसा होना चाहिए जो गुरुपरम्परासे प्राप्त उपदेशके आधारपर समन्तभद्र जैसे आचार्योंके द्वारा रचा हो इनके , बिना आप्तता नहीं हो सकती । १. दोषावरणयोहानिनिशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद् यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥- आप्तमी., श्लो. ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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