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द्वितीय अध्याय
९७ अथवा मोह इत्यनेन मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्व-सम्यक्त्वाख्यास्त्रयो दर्शनमोहभेदाः अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभाख्याश्चारित्रमोहभेदा गृह्यन्ते सप्तानामपि सम्यक्त्वघातकत्वादिति सप्ताचिःशब्दः स्मरयति । चेक्लिश्यमानं-भृशं पुनः पुनर्वा उपतप्यमानम् ॥११॥ अथ मिथ्यात्वसम्यक्त्वयोः सुखप्रतीत्यर्थ लक्षणमुपसंगृह्णाति
प्रासाद्यादीनवे देवे वस्त्रादिग्रन्थिले गुरौ।
धर्मे हिंसामये तद्धीमिथ्यात्वमितरतरत् ॥१२॥ ग्रासाद्यादीनवे-ग्रासादिभिः कवलाहारप्रभृतिभिः कार्यरभिव्यज्यमाना आदीनवा क्षुदादयो दोषा यस्य । तत्र तावत् कवलाहारिणि सितपटाचार्यकल्पिते न रागद्वेषाभिव्यक्तिर्यथा-यो यः कवलं भुङ्क्ते स स न वीतरागो यथा रथ्पापुरुषः, भुङ्क्ते च कवलं स भव नातः केवलीति । कवलाहारो हि स्मरणाभिलाषाभ्यां भुज्यते भुक्तवता च कण्ठोष्ठप्रमाणतप्तेनारुचितस्त्यज्यते। तथा च अभिलाषारुचिभ्यामाह रे प्रवृत्तिनिवृत्तिमत्त्वात्कथं वीतरागत्वं तदभावान्नाप्तता। आदिशब्दाद्यथा
अथवा 'मोह' शब्दसे मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये दर्शन मोहनीयके तीन भेद और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारित्र मोहनीयके चार भेद ग्रहण किये जाते हैं क्योंकि ये सातों सम्यग्दर्शनके घातक होनेसे जीवको कष्ट देते हैं। 'सप्तार्चि' शब्द इनका स्मरण कराता है।
मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका सुखपूर्वक बोध करानेके लिए लक्षण कहते हैं___ कवलाहार, स्त्री, शस्त्र और रुद्राक्षकी माला धारण करने आदिसे जिनमें भूख, प्यास, मोह, राग, द्वेष आदि दोषोंका अनुमान किया जाता है ऐसे देवको देव मानना, वस्त्र-दण्ड आदि परिग्रहके धारी गुरुको गुरु मानना और हिंसामय धर्मको धर्म मानना मिथ्यात्व है। . तथा निर्दोष देवको देव मानना, निम्रन्थ गुरुको गुरु मानना और अहिंसामयी धर्मको धर्म मानना सम्यक्त्व है ॥१२॥
विशेषार्थ-विभिन्न शास्त्रों में सम्यग्दर्शनके भिन्न-भिन्न लक्षण पाये जाते हैं। उन्हें लेकर कभी-कभी ज्ञानियोंमें भी विवाद खड़ा हो जाता है। पण्डितप्रवर टोडरमलजीने अपने मोक्षमार्ग प्रकाशकके नौवें अधिकारमें उनका समन्वय बड़े सुन्दर ढंगसे किया है। यहाँ उसका सारांश दिया जाता है-यहाँ सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे धर्मकी श्रद्धाको सम्यक्त्व कहा है। ऐसा ही कथन रत्नकरण्डश्रावकाचारमें है। वहाँ सच्चे धर्मके स्थानमें सच्चा शास्त्र कहा है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रमें तत्त्वार्थके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें भी ऐसा ही कहा है-- . 'विपरीत अभिप्रायसे रहित जीव-अजीव आदि तत्त्वार्थोंका सदा श्रद्धान करना योग्य है। यह श्रद्धान आत्माका स्वरूप है।'
इन्हीं आचार्य अमृतचन्द्रने अपने इसी ग्रन्थमें आत्माके विनिश्चयको सम्यग्दर्शन कहा है-'दर्शनमात्मविनिश्चितिः।' तथा समयसारकलशमें 'एकत्वे नियतस्य' इत्यादि इलोकमें कहा है कि परद्रव्यसे भिन्न आत्माका अवलोकन ही नियमसे सम्यग्दर्शन है। इन लक्षणोंमें सिद्धान्त भेद नहीं है; दृष्टि भेद है, शैली भेद है। अरहन्तदेव आदिके श्रद्धानसे १. जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । __ श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।।-पुरुषार्थ. २२ ।
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