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________________ द्वितीय अध्याय अक्रियावादिनां नास्तिकानां मरीचि-कुमारोलूक-कपिल-गार्ग्य-व्याघ्रभूति-वाद्वलि-माठर-मोदिगतल्यादयश्चतुरशीतिप्रमा भेदाः। तेषामानयनमाह स्वभावादीनां पञ्चानामधः पुण्यपापानिष्टे: सप्तानां जीवादीनामधः स्व-परद्वयं निक्षिप्य नास्ति स्वतो ३ जीवः स्वभावतः ।। नास्ति परतो जीवः स्वभावतः।२। नास्ति स्वतोऽजीवः स्वभावतः ।३। नास्ति परतोऽजीवः स्वभावतः ।४। इत्याधुच्चारणे परस्पराभ्यासे वा लब्धा भेदाः सप्ततिः ७० । नियतिकालयोरधो जीवादिसप्तकं विन्यस्य नास्ति जीवो नियतितः ।। नास्ति जीवः कालतः ॥२॥ इत्याधुच्चारणे लब्धाश्चतुर्दश ॥१४॥ पूर्वः सहैते चतुरशीतिः ॥८४॥ विनयवादिनां वसिष्ठ-पाराशर-जतुकर्ण-वाल्मीकि-रोमहर्षिण-सत्रदत्त-व्यासैलापुत्रोपमन्यवेन्दुदत्तायस्थूणादयो द्वात्रिंशद्भेदाः । तेषामानयन माह-देव-नृपति-यति-जानिक-वृद्ध-बाल-जननी-जनकानामधो मनोवाक्कायदानचतुष्टयं निक्षिप्य, विनयो मनसा देवेष कार्यः; विनयो वाचा देवेषु कार्यः ॥२॥ विनयः कायेन देवेषु कार्यः ॥३॥ विनयो दानेन देवेषु कार्यः ॥४॥ इत्युच्चारणैर्लब्धा भेदा द्वात्रिंशत् ॥३२॥ अज्ञानवादिनां साकल्य-वाकल्य-कुथिमि-चारायण-कठ-माध्यंदिन-मौद-पिप्पलाद-वादरायणतिकायन-वसुजैमिनिप्रभृतयः सप्तषष्टिसंख्या भेदाः । तेषामानयनमाह-जवानां जीवादीनामधः सत् असत् सदसत् (अ) वाच्यं १२ सद्वा(दवा)च्यं असद्वा(दवा)च्यं सदसद्वा(दवा)च्यमिति सप्त निक्षिप्य सज्जीवभावं को वेत्ति ।। असज्जीवभावं को वेत्ति ।२। इत्याधुच्चारणे लब्धा भेदास्त्रिषष्टिः ॥६३॥ पुनर्भावोत्पत्तिमाश्रित्य सद्भावासद्भाव-सदसद्धावावाच्यानां चतुष्टयं प्रस्तीर्य सद्भावोत्पत्ति को १५ वेत्ति ।१। असद्भावोत्पत्ति को वेत्ति ।२। सदसद्भावोत्पत्ति को वेति ।३। वाच्यभावोत्पत्ति को वेत्ति ।। इत्युच्चारणया लब्धश्चतुभिरेतैः सह पूर्वे सप्तषष्टि ६७ । सर्वसमासे त्रिषष्टयधिकानि त्रीणि शतानि ३६३। तत्त्वसंशय:-जिनोक्तं तत्त्वं सत्यं न वा इति संकल्पः ॥१०॥ १८ साथ मिलानेसे ६३ और उत्पत्तिको प्रारम्भके चार भंगोंके साथ मिलानेसे चार इस तरह ६७ भंग होते हैं । यहाँ स्वभाव आदिका भी स्वरूप जान लेना चाहिए __ स्वभाववादियोंका कहना है कि स्वभावको छोड़कर दूसरा कौन काँटोंको तीक्ष्ण बनाता है, पक्षियोंको नाना रूप देता है, मछलियोंको जलमें चलाता है और कमलोंमें कठोर नाल लगाता है। अन्य जन भी कहते हैं-जिसने कौओंको काला किया, हंसोंको सफेद किया, मयूरोंको चित्रित किया, वही मुझे आजीविका देगा। ____ नियतिका स्वरूप इस प्रकार है-जब, जैसे, जहाँ, जिसके द्वारा, जो होता है तब, तहाँ, तैसे, तिसके द्वारा वह होता है। स्पष्ट है कि नियतिके द्वारा ही यहाँ सब नियन्त्रित है। दूसरा कोई कुछ भी नहीं कर सकता। कालवादी कहते हैं-काल प्राणियोंको पकाता है, काल प्रजाका संहार करता है। काल सोते हुए भी जागता है इसलिए काल ही कारण है । ईश्वरवादी कहते हैं-यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुःखका स्वामी नहीं है। अतः ईश्वरके द्वारा प्रेरित होकर स्वर्गमें या नरकमें जाता है। . सब प्राणियों में एक देव समाया हुआ है, वह नित्य है, व्यापक है, सब कार्योंका कर्ता है, आत्मा है, मूर्त है, सर्व प्राणिस्वरूप है, साक्षात् ज्ञाता है, निर्गुण है, शुद्धरूप है।' १. एको देवः सर्वभूतेषु लोनो नित्यो व्यापी सर्वकार्याणि कर्ता । आत्मा मूर्तः सर्वभूतस्वरूपं साक्षाज्ज्ञाता निर्गुणः शुद्धरूपः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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