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प्रथम अध्याय
असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्तके जीव उनके बन्धक हैं। आगे उनका बन्ध नहीं होता । तीसरे गुणस्थान में आयु कर्मका बन्ध नहीं होता । प्रत्याख्यानावरण कषायका आस्रव प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमके कारण होता है । अतः एकेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान पर्यन्तके जीव उनके बन्धक होते हैं। आगे उनका संवर होता है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति ये छह प्रकृतियाँ प्रमादके कारण बँधती हैं, अतः प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे आगे उनका संवर होता है । देवायुके बन्धका प्रारम्भ प्रमाद के ही कारण होता है किन्तु प्रमत्त गुणस्थानके निकटवर्ती अप्रमत्त गुणस्थान में भी उसका बन्ध होता है । आगे उसका संवर होता है । संज्वलन कषायके निमित्तसे जिन प्रकृतियोंका आस्रव होता है उनका उसके अभाव में संवर हो जाता है । वह संज्वलन कषाय तीव्र, मध्यम और जघन्य रूपसे तीन गुणस्थानों में होती है । अपूर्वकरण के आदिमें निद्रा और प्रचला, मध्य में देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक शरीरांगोपांग, आहारक शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उछ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, अन्त में हास्य, रति, भय, जुगुप्सा । तीव्र संज्वलन कषायसे इनका आस्रव होता है अतः अपने-अपने भागसे आगे उनका संवर होता है । अनिवृत्ति वारसाम्पराय गुणस्थान के प्रथम समयसे लेकर संख्यात भागोंतक पुरुषवेद और संज्वलन क्रोधका, मध्यके संख्यात भागों तक संज्वलन मान संज्वलन मायाका और अन्त समयतक संज्वलन लोभका आस्रव होता है। आगे उनका संवर है । पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र, पाँच अन्तराय ये सोलह प्रकृतियाँ मन्द कषायमें भी सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानक बँधती हैं। आगे उनका संवर है । योगके निमितसे केवल एक सातावेदनीय ही बँधता है अतः उपशान्तकपाय, क्षीणकषाय और सयोग केवलीमें उसका बन्ध होता है । अयोग केवली के संवर होता है ।
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यहाँ यह शंका होती है कि संवर तो शुद्धोपयोग रूप होता है । और मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में आपने अशुभ, शुभ और शुद्ध तीन उपयोग कहे हैं तब यहाँ शुद्धोपयोग कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर यह है कि शुद्धनिश्चयरूप शुद्धोपयोग में शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव अपना आत्मा ध्येय ( ध्यान करने योग्य ) होता है । इसलिए शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्धका अवलम्बन होनेसे और शुद्ध आत्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग घटित होता है । उसीको भावसंवर कहते हैं । भावसंवर रूप यह शुद्धोपयोग संसारके कारण मिथ्यात्व राग आदि अशुद्ध पर्यायकी तरह अशुद्ध नहीं होता, और न शुद्धोपयोगके फलरूप केवलज्ञान लक्षण शुद्ध पर्यायकी तरह शुद्ध ही होता है । किन्तु उन शुद्ध और अशुद्ध पर्यायोंसे विलक्षण एक तीसरी अवस्था कही जाती है जो शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक होने से मोक्षका कारण होती है तथा एक देश व्यक्तिरूप और एक देश निरावरण होती है [ द्रव्य सं. टी., गा. ३४ ] । अतः जहाँ जितने अंशमें विशुद्धि है उतने अंशमें संवर माना है ।
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नित्य, अत्यन्त निर्मल, स्व और पर पदार्थोंके प्रकाशनमें समर्थ, चिदानन्दात्मक परमात्मा की भावनासे प्रकट हुआ, शुद्ध स्वात्मानुभूतिरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक धर्मं अमृतके समुद्र के समान है । उसका अवगाहन करनेवालोंके द्वारा उदीर्ण रसका लेश भी उसमें स्थित
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