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प्रथम अध्याय
अनेकान्तात्मकादर्थादपोद्धृत्याञ्जसान्नयः । तत्प्राप्त्युपायमेकान्तं तदंशं व्यावहारिकम् ॥१०८॥ प्रकाशयन्न मिथ्या स्याच्छन्दात्तच्छास्त्रवत् स हि । मिथ्याऽनपेक्षोऽनेकान्तक्षेपान्नान्यस्तदत्ययात् ॥ १८९॥
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अद्भुत कहा है । 'मेरा देश' यह उपचरित असद्भूत व्यवहार है क्योंकि देशके साथ तो संश्लेष रूप सम्बन्ध भी नहीं है फिर भी उसे अपना कहता है । इस नय विवक्षाके भेद से यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्माका किसके साथ कैसा सम्बन्ध है ? ऐसा होनेसे परमें आत्मबुद्धिकी भावना हट जाती है ॥ १०७॥
दो श्लोकोंके द्वारा नयके मिथ्या होनेकी शंकाको दूर करते हैं
वस्तु अनेकान्तात्मक है - परस्पर में विरोधी प्रतीत होनेवाले अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि अनेक धर्मवाली है । वह श्रुतज्ञानका विषय है । उस परमार्थ सत् अनेकान्तात्मक अर्थसे उसके एक धर्मको, जो प्रवृत्ति और निवृत्ति में साधक हो तथा जिसके द्वारा अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाशन किया जा सकता हो ऐसे एक धर्मको भेदविवक्षाके द्वारा पृथक करके ग्रहण करनेवाला नय मिथ्या नहीं है । जैसे 'देवदत्त पकाता है' इस प्रकृति प्रत्यय विशिष्ट यथार्थ वाक्यसे उसके एक अंश प्रकृति प्रत्यय आदिको लेकर प्रकट करनेवाला व्याकरण शास्त्र मिथ्या नहीं है । हाँ, निरपेक्ष नय मिथ्या होता है। क्योंकि वह अनेकान्तका घातक है । किन्तु सापेक्ष नय मिथ्या नहीं है क्योंकि वह अनेकान्तका अनुसरण करता है ।।१०८-१०९ ॥
विशेषार्थ - जैनदर्शन स्याद्वादी या अनेकान्तवादी कहा जाता है । अन्य सब दर्शन एकान्तवादी हैं, क्योंकि वे वस्तुको या तो नित्य ही मानते हैं या अनित्य ही मानते हैं । एक ही मानते हैं या अनेक ही मानते हैं। उनकी समझ में यह बात नहीं आती कि एक ही वस्तु नित्य - अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् आदि परस्पर विरोधी धर्मवाली कैसे हो सकती है । किन्तु जैनदर्शन युक्ति और तर्क से एक ही वस्तुमें परस्पर विरोधी धर्मोंका अस्तित्व सिद्ध करता है । वह कहता है प्रत्येक वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा सत् है, पररूपकी अपेक्षा असत् है, घट घट रूप से सत् है, पटरूपसे असत् है । यदि घट पटरूपसे असत् न हो तो वह पटरूपसे सत् कहा जायेगा और ऐसी स्थिति में घट और पटका भेद ही समाप्त हो जायेगा । अतः वस्तुका वस्तुत्व दो बातों पर स्थिर है, प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपको अपनाये हुए है और पररूपको नहीं अपनाये हुए है । इसीको कहा जाता है कि वस्तु स्वरूपसे सत् और पररूप से असत् है । इसी तरह द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु है । वस्तु न केवल द्रव्यरूप है और न केवल पर्याय रूप है किन्तु द्रव्यपर्यायात्मक है । द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य होती हैं। अतः द्रव्यरूपसे वस्तु नित्य है, पर्यायरूपसे अनित्य है । द्रव्य एक होता है पर्याय अनेक होती हैं । अतः द्रव्यरूपसे वस्तु एक है, पर्यायरूपसे अनेक है । द्रव्य अभेदरूप होता है, पर्याय भेदरूप होती है। अतः gorare अभिन्न और पर्याय रूपसे भेदात्मक वस्तु है । इस तरह वस्तु अनेकान्तात्मक है । ऐसी अनेकान्तात्मक वस्तुके एकधर्मको ग्रहण करनेवाला नय है । नयके द्वारा ग्रहण किया गया धर्म काल्पनिक नहीं होता, वास्तविक होता है तथा धर्म और धर्मी में भेदको विवक्षा करके उस एक धर्मको ग्रहण किया जाता है। उससे अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाशन करने में सरलता भी होती है। असल में अनेक धर्मात्मक वस्तुको जानकर ज्ञाता विवक्षाके अनुसार
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