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प्रथम अध्याय
अथ वृद्धयाजी-(व) निन्दति
वृद्धिलुब्ध्याधमणेषु प्रयुज्यार्थान् सहासुभिः ।
तवापच्छङ्कितो नित्यं चित्रं वार्धषिकश्चरेत् ॥७॥ वृद्धिलुब्ध्या-कलान्तरलोभेन । अधर्मणेषु-धारणिकेषु ।।७४।। अथ सेवां गर्हतेस्वे सद्वृत्तकुलश्रुते च निरनुक्रोशीकृतस्तृष्णया
स्वं विक्रीय धनेश्वरे रहितवीचारस्तदाज्ञावशात् । वर्षादिष्वपि दारुणेषु निविडध्वान्तासु रात्रिष्वपि
व्यालोनास्वटवीष्वपि प्रचरति प्रत्यन्तकं यात्यपि ॥७५॥ स्वे-आत्मनि । व्यालोग्रासु-श्वापदभुजगरौद्रासु । प्रत्यन्तकं--यमाभिमुरतम् ॥७५॥ अथ कारुकर्मादीन प्रतिक्षिपति
चित्रैः कर्मकलाधमः परासूयापरो मनः।
हतं तदथिनां धाम्यत्यातपोष्येक्षितायनः ॥७६॥ चित्र:-नाना प्रकारैराश्चर्यकरैर्वा । धर्मो-मूल्येन पुस्तकवाचनादिः । आर्तपोष्येक्षितायन:क्षुधादिपीडिते (त) कलापत्यादिगवेषितमार्गः ॥७६॥
आगे ब्याजसे आजीविका करनेवालोंकी निन्दा करते हैं
आश्चर्य है कि ब्याजसे आजीविका करनेवाला सूदखोर ब्याजके लोभसे ऋण लेनेवालोंको अपने प्राणोंके साथ धन देकर सदा उसकी आपत्तियोंसे भयभीत रहकर प्रवृत्ति करता है। अर्थात् ऋणदाताको सदा यह भय सताता रहता है कि ऋण लेनेवालेपर कोई ऐसी आपत्ति न आ जाये जिससे उसका ऋण मारा जाये । और यहाँ आश्चर्य इस बातका है कि व्याजके लोभीको धन प्राणों के समान प्रिय होता है। वह धन दूसरेको दिया तो मानो अपने प्राण ही दे दिये । किन्तु दूसरोंको अपने प्राण देनेवाला तो प्रवृत्ति नहीं कर सकता क्योंकि वह निष्प्राण हो जाता है किन्तु ऋणदाता प्राण देकर भी प्रवृत्तिशील रहता है ।।७४॥
आगे सेवाकर्मकी निन्दा करते हैं
अपने पर और अपने सदाचार कुल तथा शास्त्रज्ञानपर निर्दय होकर लोभवश सेठ राजा आदिको अपनेको बेचकर योग्य-अयोग्यका विचार छोड़कर मनुष्य अपने स्वामीकी आज्ञासे भयानक वर्षा आदिमें भी जाता है, घने अन्धकारसे आच्छन्न रात्रिमें भी विचरण करता है, भयानक जंगली जन्तुओंसे भरे हुए बियाबान जंगलमें भी घूमता है, अधिक क्या, मृत्युके मुखमें भी चला जाता है ।।७५।।
आगे शिल्पकर्म आदि करनेवालोंकी निन्दा करते हैं
शिल्प आदिसे आजीविका करनेवाला पुरुष शिल्पप्रेमी जनोंके मनको हरनेके लिए उनके सामने अन्य शिल्पियोंकी निन्दा करता है। उनके शिल्पमें दोष निकलता है और अनेक प्रकारके कर्म, कला और धर्मके निर्माणका श्रम उठाता है क्योंकि भूखसे पीड़ित उसके स्त्रीपुत्रादि उसका रास्ता देखते हैं।
विशेषार्थ-लकड़ीके कामको कर्म कहते हैं, गीत नृत्य आदिको कला कहते हैं और मूल्य लेकर पुस्तकवाचन आदि करनेको धर्म कहते हैं ।।७६।।
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