________________
प्रथम अध्याय
अथ गर्भप्रसवक्लेशमाह
गर्भक्लेशानुद्रुतेविद्रुतो वा निन्द्यद्वारेणैव कृच्छाद्विवृत्य ।
नियंस्तत्तदुःखदत्त्याऽकृतार्थो नूनं दत्ते मातुरुग्रामनस्यम् ॥६५॥ विद्रुतः-वित्रस्तः। निन्द्यद्वारेण-आर्तववाहिना मार्गेण । विवृत्य-अधोमुखो भूत्वा । तत्तद्दुःखदत्त्या-गर्भावतरणक्षणात् प्रभृति बाधासंपादनेन । आमनस्यं-प्रसूतिजं दुःखम् ॥६५॥ बुलबुलाकी तरह रहता है । तीसरे मासमें घनरूप हो जाता है। चौथे मासमें मांसपेशियाँ बनती हैं। पाँचवें मास में पाँच पुलक-अंकुर फूटते हैं। छठे मासमें उन अंकुरोंसे अंग और उपांग बनते हैं । सातवें मासमें चर्म, नख रोम बनते हैं। आठवें मासमें हलन-चलन होने लगता है । नौवे अथवा दसवें महीनेमें गर्भसे बाहर आता है।
. अर्थात्-मृत्युके बाद जीव तत्काल ही नया जन्म धारण कर लेता है । जब वह अपने पूर्व स्थानसे मरकर नया जन्म ग्रहण करनेके लिए जाता है तो उसकी गति सीधी भी होती है और मोड़े वाली भी होती है। तत्त्वार्थसूत्र [ २।२६ ] में बतलाया है कि जीव और पुद्गलोंकी गति आकाशके प्रदेशोंकी पंक्तिके अनुसार होती है। आकाश यद्यपि एक और अखण्ड है तथापि उसमें अनन्त प्रदेश हैं और वे जैसे वस्त्रमें धागे रहते हैं उसी तरह क्रमबद्ध हैं । उसीके अनुसार जीव गमन करता है। यदि उसके मरणस्थानसे नये जन्मस्थान तक आकाश प्रदेशोंकी सीधी पंक्ति है तो वह एक समयमें ही उस स्थान पर पहुँचकर अपने नये शरीरके योग्य वर्गणाओंको ग्रहण करने लगता है। इसे ऋजुगति कहते हैं । अन्यथा उसे एक या दो या तीन मोड़े लेने पड़ते हैं और उसमें दो या तीन या चार समय लगते है उसे विग्रहगति कहते हैं। विग्रह गतिमें स्थूल शरीर न होनेसे द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं होतीं अतः वहाँ वह इन्द्रियोंसे जानने देखने रूप व्यापार भी नहीं करता। गर्भमें जानेके बादकी शरीररचनाका जो कथन ग्रन्थकारने किया है सम्भव है वह भगवती आराधनाका ऋणी हो । भ. आ. में गाथा १००३ से शरीरकी रचनाका क्रम वर्णित है जो ऊपर दो श्लोकोंमें कहा है। तथा लिखा है कि मनुष्य के शरीर में तीन सौ अस्थियाँ है जो दुर्गन्धित मज्जासे भरी हुई हैं। तीन सौ ही सन्धियाँ है। नव सौ स्नायु हैं। सात सौ सिरा हैं, पाँच सौ मांसपेशियाँ हैं, चार शिराजाल हैं, सोलह कडेर (?) हैं, छह सिराओंके मूल हैं और दो मांसरज्जू हैं। सात त्वचा हैं, सात कालेयक हैं, अस्सी लाख कोटि रोम हैं। पक्वाशय और आमाशयमें सोलह
सात मलके आशय हैं। तीन स्थणा हैं. एक सौ सात मर्मस्थान हैं। नौ द्वार है जिनसे सदा मल बहता है। मस्तिष्क, मेद, ओज और शुक्र एक एक अंजुलि प्रमाण है। वसा तीन अंजुलि, पित्त छह अंजुलि, कफ भी छह अंजुलि प्रमाण है। मूत्र एक आढक, विष्टा छह प्रस्थ, नख बीस, दाँत बत्तीस हैं [ गा. १०२७-३५]।
आगे गर्भसे बाहर आनेमें जो क्लेश होता है उसे कहते हैं
गर्भके कष्टोंके पीछा करनेसे ही मानो भयभीत होकर गर्भस्थजीव मलमूत्रके निन्दनीय द्वारसे ही कष्टपूर्वक नीचेको मुख करके निकलता है। और गर्भ में आनेसे लेकर उसने माताको जो कष्ट दिये उससे उसका मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ मानो इसीसे वह माताको भयानक प्रसववेदना देता है ॥६५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org