SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना १. सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियोंका परिचय पं. आशाधर रचित धर्मामतके दो भाग है-अनगार धर्मामृत और सागार धर्मामृत । दोनों भागोंकी हस्तलिखित प्रतियां भी पृथक्-पृथक् ही पायी जाती हैं। तदनुसार इनका प्रकाशन भी पृथक्-पृथक ही हुआ है । सबसे प्रथम भव्यकुमुदचन्द्रिका नामक स्वोपज्ञ टीकाके साथ सागार धर्मामृतका प्रकाशन श्री माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे उसके दूसरे पुष्पके रूपमें सं. १९७२में हुआ। पश्चात् उसी ग्रन्थमालासे स्वोपज्ञ टीकाके साथ अनगार धर्मामृतका प्रकाशन उसके चौदहवें पुष्पके रूपमें सं. १९७६में हुआ। आगे इन दोनोंके जो प्रकाशन हिन्दी अनुवाद या मराठी अनुवादके साथ हुए उनका आधार उक्त संस्करण ही रहे। दोनों ही मूल संस्करण प्रायः शुद्ध हैं। क्वचित् ही उनमें अशुद्धियां पायी गयीं। साथमें खण्डान्वयके रूपमें टीका होने से भी मल श्लोकोंका संशोधन करने में सरलता होती है। फिर भी हमने महावीर भवन जयपुरके शास्त्र भण्डारसे अनगार धर्मामतको एक हस्तलिखित प्राचीन प्रति प्राप्त की। उसमें मल श्लोकोंके साथ उसकी भव्यकुमुद चन्द्रिका टीका भी है । उसके आधारसे भी श्लोकोंके मूल पाठका संशोधन किया गया। वह प्रति आमेर शास्त्र भण्डार जयपुरकी है। इसकी वेष्टन संख्या १३६ है। पृष्ठ संख्या ३४४ है। किन्तु अन्तिम पत्रपर ३४५ अंक लिखा है। प्रत्येक पृष्ठमें ११ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंनिमें ५०से ६० तक अक्षर पाये जाते हैं । लेखन आधुनिक है । मुद्रित प्रतिके बिलकुल एकरूप है। मिलान करनेपर क्वचित् ही अशुद्धि मुद्रित प्रतिमें मिली। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इसी या इसीके समान किसी अन्य शुद्ध प्रतिके आधारपर अनगार धर्मामृत के प्रथम संस्करणका शोधन हुआ है । अपने निवेदनमें संशोधक पं. मनोहर लालजीने इतना ही लिखा है कि इसका संशोधन प्राचीन दो प्रतियोंसे किया गया है जो प्रायः शुद्ध थीं। प्रतिको अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि ग्वालियर में सं. १५४६में कर्णाटक लिपिसे यह प्रति परिवर्तित की गयी है । तथा जिस कर्णाटक प्रतिसे यह परिवर्तित की गयी उसका लेखनकाल शक संवत १२८ अर्थात् वि. सं. १४१८ है । प्रशस्ति इस प्रकार है स्वस्ति श्रीमतु शक वर्षे १२८३ प्लब संवत्सरद मार्गसि शुद्ध १४ भानुवार दलु श्रीमतु राय राजगुरुमण्डलाचार्यवं कुडीकडियाणरूपं णरघर विक्रमादित्यसम ध्यानकल्पवृक्षरुं सेनगणाग्रगण्य श्री लक्ष्मीसेन भट्टारक प्रियगुछुकव्वेपनीति सेट्टीयमगपायणनु श्रीकाणगणाग्रगण्य क. कचन्द पण्डित देवरप्रियाप्रशिष्यरु सकलगुणसंपनरप्य श्री भानुमुनिगलियो केवलज्ञान स्वरूप धर्मनिमित्तघाति आशाधरकृत धर्मामृत महाशास्त्रमंबरसिकोध्नु मंगलमाह। श्री गोपाचलमहादुर्गे राजाधिराजमानसिंघराज्यप्रवर्तमाने संवत् १५४६ वर्षे आषाढ़ सुदी १० सोमदिने इदं पुस्तकं कर्णाटलिपेन उद्धरितं कायस्थठाणे सर्मसुत डाउधू । शुभमस्तु । अनगार धर्मामृत पंजिकाकी केवल एक ही प्रति पं. रामचन्द्रजी जैन श्री भट्टारक यशःकीर्ति दि. जैन धर्मार्थ ट्रस्ट ऋषभदेव ( उदयपुर ) से प्राप्त हुई थी। इसकी पत्र संख्या १२७ है। किन्तु १२वा पत्र नहीं है । प्रत्येक पत्रमें १४ पंक्ति और प्रत्येक पंक्तिमें ४२से ४९ तक अक्षर हैं। लेख स्पष्ट है किन्तु अशद्ध है। मात्राएँ बराबरमें भी हैं और ऊपर-नीचे भी। संयुक्त अक्षरोंको लिखनेका एक क्रम नहीं है। प्रायः संयुक्त अक्षर [२]] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy