Book Title: Vijayprabhsuri Bar Mas Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan Catalog link: https://jainqq.org/explore/229677/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रेमविजयजीकृत श्री विजयप्रभसूरि बारमास ॥ -विजयशीलचन्द्रसूरि तपगच्छपति विजयदेवसूरिना शिष्य पं. दर्शनविजयजीना शिष्य मुनि प्रेमविजयजीए रचेली आ लघुकृति एक गेय रचना छे, अने तेमां २ थी १३ कडीओमां एकेक मासने आवरी लईने गुरुनां गुणगान थयां छे, ते कारणे तेने "बारमास" नाम अपायुं होय तेम जणाय छे. सामान्यतया "बारमासा" ए विप्रलंभ-शृंगाररस-प्रधान काव्य-प्रकार गणातो होवो जोईए. विरह, मिलनोत्कंठा, प्रतीक्षा - इत्यादि भावो जेमां बूटता होय, चूंटवामां आवता होय, तेवी रचना ते बार मासा. हवे, एक गच्छनायक साधुपुरुषने उद्देशीने ज्यारे आवी काव्यरचना थाय, त्यारे तेमां उपर्युक्त भावो केवी रीते समाई शके ? एमां तो गुरुना गुणस्तवन अने गुण-वर्णन सिवाय काव्यदृष्टिए कोई विशेष आयोजन अशक्य ज होय. छतां कविए आ साहस कर्यु छे, तेने नकारी पण केम शकाय ? वात एवी छे के आचार्योना गुणस्तवन-अर्थे जैन कविओमां "गहुंली" रचवानी एक परंपरा छे. आवी गहुंलीमां बार मास पण वणी शकाय, अने बीजुं पण आq घj वणी शकाय. केम के अमां कविनो उद्देश कोई काव्यतत्त्व सिद्ध करवानो ओछो होय छे; अने गुरुना गुण-गान करवानो प्रधानपणे होय छे. वर्तमानमां पण आवी बार महीनाने वणी लेती गहुंलीओ रचाती तथा गवाती होय छे. दा.त. "गुरुजी कार्तिक महिने कमल जेवा छे....." - आवी, १२ मासनी १२ पंक्तिओ के कडीओ, जुदी जुदी रीते, अत्यारे पण गवाय छे. प्रस्तुत रचना पण आ.ज गहुंली-कुळनी होवानुं स्वीकारीए, तो तेमां कांई अयोग्य नहि गणाय. आ रचनानी बे पानांनी एक प्रति ला.द. विद्यामंदिर (क्र. २३२)मां उपलब्ध छे. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसाय । अनुसंधान-१५ .88 दाल फागनो ॥ सारदमाता वीनतुं रे बार महिनां भावस्युं रे गावा ए उलट थाय ॥१॥ सूरीश्वर साहिब आईए हो, अहो मेरे ललनां, श्री विजयप्रभसूरिराय । सूरी० ॥ तुं गुरु स्यणायरसमो रे रत्नतणो नही पार । काती मास मनोहरु रे, गुरुजीय करत विहार ॥२॥ सू०॥ माधि सखर मया करी रे, कामिनी करई अरदास । एक बोल अवधारीइ रे पूरो पूरो मुझ मनि आस ॥३॥ सू०॥ पोसई पोसा घणां करइ रे गुरुचरणे निसदीस । चित चिंता दूरई करई रे साहिब माहरो ईस ॥४॥ सू०॥ वडो भाग हम माघ मइ रे जो आवई गुरुराय । चलो सखी वंदन जाइए रे हीयडइं धरिय उच्छाह ॥५॥ सू०॥ खेलति फाग सखी मिली रे बोलई अमृत वाणि । सासव मण कई कुयरू रे(?) वीनतडि मनि आणि ॥६।। सू०॥ गजगति चालई गुरु मेरो आवइ विजयप्रभसूरिराय । चैत्रइ आश्या मइ करी रे देखत मुख सुख थाय ॥७॥ सू०॥ वैशाखइ फुलि रे (?) फुलि रही वनराय । तिम हम मन तुंम उपरि रे पानिकुं जूं मीन ध्याय ॥८॥ सू०॥ सर तपई शिर आकरो रे जेठ महिनो एह । मिहिर करि संघ उपरि रे आवत धरि मनि नेह ॥९॥ सू०॥ आसाइं आशा फलि रे चतुर आए चोमास । शाम-घय उमटी घणुं रे नरनारि फलि मनि आस ॥१०॥ सू०॥ श्रावण श्रवण सोहामणो रे दामिनी करति पोकार । गोख समारो सुंदरि रे बेठन गुरु सुखकार ॥११॥ सू०॥ पाणि पूर वहई घणां रे भरि भाद्रवडई मास । दिन दिन दोलति दीपती रे भविजन पोचई आस ॥१२॥ सू०।। श्रीविजयप्रभसूरीसरू रे प्रगट्यो पुण्यअंकुर । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५ . 89 आसो आशा सब फलि रे तेज तपई जिम सूर // 13 // सू० // मदनराय तइं वसि किउ रे रूपइं हराव्यो काम / क्रोध-लोभनइं वसि करी रे माया नासी गई ताम // 14 // सू०।। छत्रीस गुणे करी सोभतो रे चिरंजीवी गुरुण्य / लोचन अमिय-कचोलडा रे सोवनवन-श(स)म काय // 15 // सू०॥ मुझ मनि तुं गुरु जीवश्यो रे जिम सीता मनि राम / जिम मधुकर.मनि मालती रे तिम समरूं तुम नाम // 16 // सू०।। तपी तपी तप आकरो रे दुरबल काया कोध / जस घरि प्रभु पगलां ठव्यां रे तस मनवंछित सिद्ध // 17 // सू०॥ तुझ नामथी सुख-संपदा रे दरिसण जयजयकार / श्रीविजयदेव-पटोधरु रे सकल-जंतु-आधार पंडित-साधु-शिरोमणि रे दर्शनविजय कविराय / तासतणई सुपसाउलइ रे प्रेमविजय गुण गाय // 19 / / सू०॥ इति श्रीविजयप्रभसूरि बारमास संपूर्णः / /