Book Title: Videshi Sangrahalayo me Mahattvapurna Jain Pratimaye
Author(s): Brajendranath Sharma
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेशी संग्रहालय में महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएँ डॉ० ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली जैन धर्म भारतमें प्रचलित विभिन्न धर्मों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। इस धर्मके अनुयायी भारतके प्रायः सभी भागोंमें पाये जाते हैं । ये अनुयायी मुख्यतः दो प्रमुख सम्प्रदायों-दिगम्बर एवं श्वेताम्बरमें विभक्त हैं । दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी अपनी देवमूर्तियोंको बिना किसी साज-सज्जाके पूजते हैं जबकि श्वेताम्बरी अपनी पूज्य प्रतिमाओंको सुन्दर मुकुट एवं विभिन्न आभूषणोंसे सजाकर उनकी पूजाआराधना करते हैं। भारतमें पाई गयी प्राचीनतम प्रतिमायें नग्न हैं क्योंकि उस समय केवल दिगम्बर । था। परन्तु शताब्दियों पश्चात् श्वेताम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्धित जैन प्रतिमाओंका भी निर्माण होने लगा और इसप्रकार अब दोनों प्रकारकी प्रतिमायें आज भी भारतके विभिन्न भागोंमें उनके अनुयाइयोंद्वारा पूजी जाती हैं । प्रारम्भमें अनेक जैन विद्वानोंका विचार था कि उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म अबसे हजारों साल पूर्व भी विद्यमान था और जब सन् १९१२ में हड़प्पा एवं मोहनजोदडोकी खुदाईमें नग्न मानव-धड़ एवं ऐसी अन्य पुरातत्वीय महत्त्वकी वस्तुएँ प्राप्त हुई, तो उन विद्वानोंने उनको भी जैनधर्मसे सम्बन्धित ठहराया । परन्तु अनेक आधुनिक विद्वानोंने शोधके आधारपर इस प्रचलित धारणाका खण्डन करते हुए उन्हें प्राचीनतम यक्ष प्रतिमाओंका प्रतिरूप बतलाया है।। यद्यपि जैन साहित्यसे यह प्रमाणित है कि स्वयं भगवान महावीरके समय-छठी शताब्दी ईसवी पूर्वमें ही उनकी चन्दनकी प्रतिमाका निर्माण हो चुका था, परन्तु पुरातात्त्विक खोजोंके आधारपर अब तक सबसे प्राचीन जैन प्रतिमा मौर्य कला, लगभग तीसरी शती ई० पूर्वकी ही मानी जाती है। पटनाके समीप लोहानीपुरके इस कालका एक नग्न धड़ प्राप्त हुआ है जो अब पटना संग्रहालयमें प्रदर्शित है। यह अपनी तरहका एक बेजोड़ उदाहरण है। बलुआ पत्थरके बने इस धड़पर मौर्यकालीन चमकदार पालिस आज भी विद्यमान है जिसका कोटिल्यने अपने अर्थशास्त्रमें वज्र-लेपके नामसे उल्लेख किया है। इस नग्न धड़ में 'जिनको स्पष्ट रूपसे कायोत्सर्ग मुद्रामें दिखाया गया है । इसीसे काफी साम्यता रखता, परन्तु पालिस रहित एक अन्य धड़ शुगकालका माना जाता है, पटना संग्रहालयमें ही प्रदर्शित है। शुगकालके पश्चात् कुषाणकालमें जैन आयागपटों एवं स्वतंत्र प्रतिमाओंका निर्माण अधिकाधिक रूपसे होने लगा। मथुराके विभिन्न भागोंसे प्राप्त अनेक कुषाण एवं गुप्तकालीन प्रस्तर मूर्तियाँ स्थानीय राजकीय संग्रहालय तथा राज्य संग्रहालय लखनऊमें विद्यमान हैं जिनसे जैन देवप्रतिमाओंके विकासको पूर्ण शृंखलाका आभास सरलतासे हो जाता है । विदेशोंमें रहनेवाले कलाप्रेमियोंका ध्यान जब जैन मूर्तिकलाकी ओर आकर्षित हुआ, तो धीरे-धीरे उन्होंने भी भारतसे मूर्ति सम्पदाको अपने-अपने देशोंमें ले जाकर संग्रहालयों में प्रदर्शित किया । भारतकी भाँति प्रायः सभी विदेशी संग्रहालयोंमें जैन कला सम्बन्धी एक-से-एक सुन्दर उदाहरण देखनेको मिलते हैं । इस सभीकी एक लेखमें विवेचना करना अत्यन्त कठिन कार्य है। अतः यहाँ हम आठ प्रमुख पश्चात्य देशोंमें - ३५२ - Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थित पन्द्रह प्रमुख संग्रहालयोंमें जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जैन प्रतिमायें सुरक्षित हैं, उनका ही संक्षेपमें वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं । ये संग्रहालय मुख्यतः ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, बुलगेरिया, जर्मनी, स्विटजरलैंड, डेनमार्क एवं अमेरिकामें स्थित हैं। (१) ब्रिटेन : (अ) ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन लन्दन स्थित इस विख्यात संग्रहालयमें मथुरासे प्राप्त कई जिन शीर्षोके अतिरिक्त उड़ीसासे मिली एक पाषाण मूर्ति भी है जिसमें आदिनाथ एवं महावीरको साथ-साथ कायोत्सर्ग मुद्रामें दर्शाया गया है। पीठिकापर आदिनाथ और महावीरके लांक्षण वृषभ तथा सिंहोंका अंकन है । इसके साथ ही उपासिकाओंकी मूर्तियाँ भी बनी हुई हैं । कलाकी दृष्टिसे यह मूर्ति ग्यारहवीं शतीमें बनी प्रतीत होती है। उड़ीसामें ही प्राप्त नेमिनाथकी यक्षी अम्बिकाकी लगभग उपर्युक्त प्रतिमाकी समकालीन मूर्ति भी यहाँ विद्यमान है जिसमें वह आम्रवृक्ष के नीचे खड़ी है । इनका छोटा पुत्र प्रभंकर गोद में व बड़ा पुत्र शभंकर दाहिनी ओर खड़ा हुआ है। मूर्तिके ऊपरी भागमें नेमिनाथकी लघु मूर्ति ध्यान मुद्रामें है तथा पीठिकापर देवीका वाहन सिंह बैठा दिखाया गया है। इस संग्रहालयमें मध्यप्रदेशसे प्राप्त सुलोचना, धृति, पद्मावती, सरस्वती तथा यक्ष एवं यक्षीकी सुन्दर प्रस्तर मूर्तियाँ भी विद्यमान हैं । अन्तिम मूर्तिकी पीठिकापर अनन्तवीर्य उत्खनित है । (ब) विक्टोरिया एवं एलर्बट संग्रहालय, लन्दन ___ इस संग्रहालयमें कुषाण एवं गुप्त कालोंकी भगवान ऋषभकी दो मूर्तियाँ प्रदर्शित हैं। साथही , मध्यप्रदेशमें ग्यारसपुर नामक स्थानसे लाई गयी पार्श्वनाथकी एक अद्वितीय मति भी विद्यमान है जो सातवीं शतीकी प्रतीत होती है। इसमें तेइसवें तीर्थकर ध्यान मुद्रामें विराजमान हैं और मेघकूमार एक बड़े तूफान के रूपमें उनपर आक्रमण करता दिखाया गया है। साथ ही, नागराज धरणेन्द्र अपने विशाल फण फैलाकर उनकी पूर्ण सुरक्षा करता दर्शाया गया है और उसकी पत्नी एक नागिनीके रूपमें तीर्थंकरके ऊपर अपना छत उठाये हुए है । मूर्तिके ऊपरी भागमें जिनकी कैवल्य प्राप्तिपर दिव्य गायक नगाड़ा बजाता भी दिखाया गया है । प्रस्तुत मूर्ति जैन मूर्तिकलाकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वकी है। उपयुक्त मूतिके समीप ही, सोलहवं तीर्थकर भगवान शान्तिनाथकी एक विशाल धातु प्रतिमा प्रदर्शित है जिसमें वह सिंहासनमें ध्यानमुद्रामें बैठे हैं । इसके दोनों ओर एक-एक चँवरधारी सेवक खड़ा है । मूर्तिपर विक्रम संवत् १२२४ (११६८ ई०) के खुदे लेखसे ज्ञात होता है कि राजस्थानमें चौहान शासकोंके समय इसकी प्रतिष्ठापना नायल-गच्छके अनुयायियोंद्वारा की गई थी। (२) फ्रांस : म्यूजिगिमे पेरिस ___ इस संग्रहालयमें कई जैन प्रतिमाएँ हैं जिसमें चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीरकी कांस्य मूर्ति विशेष रूपसे सुन्दर है। इसमें वह एक सिंहासनपर ध्यान मुद्रामें बैठे हैं। उनकी दाहिनी ओर तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ सर्प फनोंके नीचे कायोत्सर्ग मद्रामें खडे हैं और बाईं ओर बाहबलि, जिनके शरीरपर लतायें लिपिटी हुई हैं, खड़े हैं। इस आशयकी कांस्यकी मूर्तियाँ प्रायः कम ही पाई जाती हैं। कर्णाटकमें निर्मित यह मूर्ति चालुक्य कलाके समय (नवमी-दसवीं शती) की बनी प्रतीत होती है। यहाँ राजस्थानके पूर्वी भागसे प्राप्त एक पाषाण सिरदल भी है जो कलाका सून्दर उदाहरण है। इसके नीचे वाली ताखमें ध्यानी जिनकी मूत्ति निर्मित है और उनके दोनों ओर अन्य दो-दो तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रामें उत्कीर्ण किये मिलते हैं । यह तेरहवीं-चौदहवीं शतीकी मूर्ति है । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) डेनमार्क : राष्ट्रीय संग्रहालय, कोपेनहेगन ___इस संग्रहालयमें मुख्यतः आध्रप्रदेश व कर्णाटकसे प्राप्त जैन मूर्तियोंका अच्छा संग्रह है। ये सभी मूर्तियाँ ११वीं-१२वीं शतीकी हो सकती है। इस संग्रहमें कई चालुक्य युगीन महावीर स्वामीकी नग्न प्रतिमाएं हैं, जिनमें उन्हें कायोत्सर्ग-मुद्रामें दर्शाया गया है । इसके अतिरिक्त, ऋषभनाथकी एक चौबीसी भी है जिसमें मूल प्रतिमाके दोनों ओर तथा ऊपरी भागमें अन्य तेईस तीर्थकरोंकी लघ आकृतियाँ भी उत्कीर्ण की गई मिलती हैं । ये सभी मूर्तियाँ ध्यान मुद्रामें हैं । (४) इटली : राष्ट्रीय संग्रहालय, रोम इस संग्रहालयमें गुजरातमें सन् १४५० ई० में बनी भगवान नेमिनाथकी कायोत्सर्ग मुद्रामें खड़ी मूर्ति मुख्य आकर्षण है। इनके दोनों ओर अन्य दो-दो तीर्थकर खड़े व बैठे दिखाये गये हैं। मुख्य मूर्तिके पैरोंके समीप उनके यक्ष एवं यक्षी गोमेध एवं अम्बिका भी बैठे दिखाये गये हैं । कलाकी दृष्टिसे भी यह मूत्ति पर्याप्त रूपसे सुन्दर है। (५) बुलगेरिया : रज्रनेड संग्रहालय, रज्रग्रेड राजस्थानमें लगभग ११वीं शती ई० में निर्मित्त परन्तु उत्तर-पूर्वी बुलगेरियामें सन् १९२८ में पाई गई इस मूत्तिमें तीर्थंकरको एक कलात्मक सिंहासनपर बैठे दिखाया गया है । अन्य प्रतिमाओंकी भाँति इसके वक्षपर भी कमलकी पंखुड़ियोंके समान श्रीवत्स चिह्न अंकित है । (६) स्विटजरलेन्ड : रिटवर्ग संग्रहालय, ज्यूरिक ___ ज्यूरिकके इस सुप्रसिद्ध संग्रहालयमें राजस्थानमें चन्द्रावती नामक स्थानसे प्राप्त भगवान आदिनाथकी लगभग आदमकद प्रतिमा विद्यमान है जो श्वेत संगमरमरकी बनी है। इसमें उनके दो कलात्मक स्तम्भोंके बीच कायोत्सर्ग मुद्रामें दिखाया गया है । इसके ऊपरी भागमें त्रि-छत्र बना है। इन्होंने सुन्दर धोती धारण कर रखी है जिससे स्पष्ट है कि उसकी प्रतिष्ठापना श्वेताम्बर सम्प्रदायके जैनियोंद्वारा की गयी थी। पीठिकापर बने वषभके अतिरिक्त उनके चरणोंके पास दानकर्ता एवं उनकी पत्नी तथा अन्य उपासकोंकी लघु मूर्तियाँ बनी हैं। कलाकी दृष्टिसे यह मूत्ति परमार काल, लगभग बारहवीं शतीकी बनी प्रतीत होती है। (७) जर्मनी : (अ) म्यूजियम फर वोल्कुर कुण्डे, बलिन इस संग्रहालयमें मथुरा क्षेत्रमें प्राप्त कुषाणकाल (२-३ शती) के कई जिन शीर्ष विद्यमान हैं । इस प्रकारके कई अन्य शीर्ष स्थानीय राजकीय संग्रहालयमें भी देखनेको मिलते हैं। उपर्युक्त मूर्तियोंके अतिरिक्त दक्षिण भारतमें मध्यकालमें निर्मित कई जैन प्रतिमायें भी यहाँपर प्रदर्शित हैं । इन सभी मूत्तियोंमें जिनको कायोत्सर्ग मद्रामें नग्न खडे दिखाया गया है। इनके पैरोंके समीप प्रत्येक तीर्थंकरके सेवकों तथा उपासकोंकी लघु मूत्तियाँ उत्कीर्ण की गई मिलती हैं । (ब) म्यूजियम फर वोल्कुर कुण्डे, म्यूनिख : इस संग्रहालयमें यक्षी अम्बिकाकी एक अत्यन्त भव्य प्रतिमा प्रदर्शित है जिसे पट्टिकापर दुर्गा बताया गया है। मध्यप्रदेशसे प्राप्त लगभग अठारहवीं शतीकी इस मूर्तिमें देवी अपने आसनपर ललितासनमें विराजमान है। इनके दाहिने हाथमें गच्छा था जो अब टूट गया है और दूसरे हाथसे वह अपने पुत्र प्रियंकरको गोदीमें पकड़े हुए है। इनका दूसरा पुत्र पैरोंके समीप खड़ा है। देवीके शीशके पीछे बने प्रभा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलकी दाहिनी ओर गजारूढ़ इन्द्राणी और बाँई ओर गरूड़ारूढ़ चक्रेश्वरीकी मूत्तियाँ हैं जिनके मध्य ऊपरी भागमें भगवान नेमिनाथकी ध्यान मुद्रामें लघु मूत्ति उत्कीर्ण है । मूत्तिके नीचेके भागमें कई उपासक बैठे हैं जिनके हाथ अंजली-मुद्रामें दिखाये गये हैं। (८) अमेरिका : (अ) क्लीवलैण्ड कला संग्रहालय, क्लीवलैण्ड, ओहायो ___ इस संग्रहालयमें प्रदर्शित जैन मूर्तियोंमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मूर्ति पार्श्वनाथकी है जिसका निर्माण मालवा क्षेत्रमें लगभग दसवीं शतीमें हुआ था । लगभग आदमकद इस मूर्ति में पार्श्वनाथ सर्पके साथ फणोंके नीचे कायोत्सर्ग मुद्रामें खड़े हैं और कमठ अपने साथियों सहित उनपर आक्रमण करता दिखाया गया है। जैन साहित्यसे ज्ञात होता है कि जब पार्श्वनाथ अपनी घोर तपस्यामें लीन थे, तब दुराचारी कमठने अनेक विघ्न-बाधायेंडाली जिससे वे तपस्या न कर सकें और उनके लिये उसने उन पर घोर वर्षा की, पाषाण शिलाओंसे प्रहार किया तथा अनेक जंगली जंतुओंसे भय दिलानेका भरसक प्रयत्न किया। परन्तु इतना सब सहते हुये पार्श्वनाथ अपने पुनीत कार्यसे जरा भी विचलित नहीं हुए और अपनी तपस्या पूर्ण कर ज्ञान प्राप्त करने में सफल रहे। परिणाम स्वरूप कर्मठको लज्जित होकर उनसे क्षमा 'माँगनी पड़ी। प्रस्तुत मूर्ति सम्पूर्ण दृश्यको बड़ी सजीवतासे दर्शाया गया है । यद्यपि इस आशयको अन्य प्रस्तर प्रतिमाएँ भारतके अन्य कई भागोंसे भी प्राप्त हुई हैं, परन्तु फिर भी यह मूर्ति अपनी प्रकारका एक अद्वितीय उदाहरण है। (ब) बोस्टन कला संग्रहालय, बोस्टन, मैसाचुसैहस इस संग्रहालयमें मध्य प्रदेशसे प्राप्त जैन मूर्तियोंका काफी अच्छा संग्रह है। इनमें अधिकतर तो प्रथम तीर्थकर आदिनाथ की मूर्तियाँ हैं जिनमेंसे कुछमें वह ध्यान मुद्रामें तथा कुछमें कायोत्सर्ग-मुद्रामें दर्शाये गये हैं। उन प्रतिमाओंके अतिरिक्त यहाँ एक अत्यन्त कलात्मक तीर्थंकर वक्ष भी है, जिसे संग्रहालय की पट्टि कामें महावीर बताया गया हैं। परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत मूर्तिमें केश ऊपरको बँधे हैं और जटाएँ दोनों ओर कंधोंपर लटक रहीं हैं । इससे प्रतिमाकी आदिनाथके होनेकी ही सम्भावना प्रतीत होती है। इनके शीशके दोनों और बादलोंमें उड़ते हुए आकाशचारी गन्धर्व और "त्रिछत्र" के ऊपर आदिनाथकी ज्ञान-प्राप्तिकी घोषणा करता हुआ एक दिव्य-बादक बना हुआ है। यह सुन्दर मूर्ति दसवीं शतीकी बनी प्रतीत होती है। (स) फिलाडेल्फिया कला संग्रहालय, फिलाडेल्फिया इस संग्रहालयमें सबसे उल्लेखनीय जैन मूर्तियाँ जबलपुर क्षेत्रसे प्राप्त कल्चुरिकालीन दसवीं शतीकी हैं। इसमेंसे एक भगवान महावीरकी है जिसमें उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रामें दिखाया गया है । द्वितीय प्रतिमामें पार्श्वनाथ तथा नेमिनाथको इसी प्रकार खड़े दिखाया गया है। पार्श्वनाथकी पहचान उनके शीशके ऊपर बने सर्फ फणोंसे तथा नेमिनाथकी पहचान पीठिका पर उत्कीर्ण शंखसे की जा सकती है। (द) सियाटल कला संग्रहालय, सियाटल इस संग्रहालयमें भी मध्य प्रदेशसे प्राप्त कई मध्यकालीन जैन प्रतिमाएँ विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ गुजरातसे बिली भगवान कुन्थुनाथकी एक पंचतीर्थी है जिसकी पीठिका पर सन् १४४७ ई० का लघु लेख उत्कीर्ण है। साथ ही, यहाँ आबू क्षेत्रसे प्राप्त नर्तकी नालार्जनाकी भी सुन्दर मूर्ति प्रदर्शित है जिसका प्राचीनतम अंकन हमें मथुराकी कुषाण कलामें देखनेको मिलता है । - ३५५ - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (य) एसियन कला संग्रहालय, सेन फ्रासिन्सको, कैलिफोर्निया इस संग्रहालयमें भी देव गढ़ क्षेत्रसे प्राप्त कई जैन मूर्तियाँ प्रदर्शित है जिनमें जिनके माता-पिताकी प्रतिमा काफी महत्त्वकी है। यहीं पर अंबिकाकी भी एक सुन्दर मूर्ति विद्यमान है, जिसमें वह आमके वृक्ष के नीचे त्रिभंग-मुद्रामें खड़ी है और पैरोंके निकट उनका वाहन-सिंह अंकित है / (र) बर्जीनिया कला संग्रहालय, रिचमोन्ड, वर्जीनिया इस संग्रहालयमें सबसे महत्त्वपूर्ण भगवान पार्श्वनाथकी त्रितीथिक है जो राजस्थानमें नवमी शतीमें बनी प्रतीत होती है। इसमें मध्यमें पार्श्वनाथ ध्यान मुद्रामें विराजमान है सर्पके फणोंकी छायामें और उनके दोनों ओर एक-एक तीर्थंकर खड़ा दिखाया गया है। सिंहासनकी दाहिनी ओर सर्वानुमति तथा बाँई ओर अम्बिका दर्शाये गये हैं / सामने दो मृगोंके मध्य धर्मचक्र तथा अष्ट-ग्रहोंके सुन्दर अंकन है। ___ उपर्युक्त संक्षिप्त विवरणसे विदित होता है कि जैनधर्मने भारतीय मूर्तिकलाके क्षेत्रमें अपना एक विशिष्ट योगदान दिया है। सम्पूर्ण भारतके विभिन्न भागोंमें निर्मित देवालयोंके अतिरिक्त देश-विदेशके अनेक संग्रहालयोंमें भी जैनधर्मसे संबंधित असंख्यकला-मूर्तिर्या सुरक्षित है जिनका वैज्ञानिक एवं पुरातात्विक दृष्टिसे अध्ययन होना परमावश्यक है। अधिक नहीं, यदि सभी प्रतिमाओंके चित्रोंको कालानक्रमके आधार पर प्रकाशित किया जा सके, तो वह भी बड़ा पुनीत कार्य होगा और इससे न केवल जैनधर्मावलम्बियों, वरन् शोधकर्ताओंको भी बड़ा लाभ होगा। ORARIAN Nou Harid - 356 -