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वर्तमान शिक्षा दशा और दिशा
नंदलाल बंसल, बी.ए., बी.एड.
आदि का चारित्रिक विकास होता चलता है। मांतेस्यरि पद्धति में बिना पुस्तक, स्लेट, गिनती, रेखगणित की विभिन्न आकृतियों अक्षरों से परिचित हो जाता है। और ५ वर्ष की उम्र आते-आते बालक पूर्ण रूप से मानसिक दृष्टि से शाला प्रवेश के लिए तैयार हो जाता है। के० जी० - किन्डर गार्डन का अर्थ ही है खेल द्वारा शिक्षा। अतः ५ वर्ष से पूर्व की उम्र औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ करने की नहीं है।
समृद्धि के लिए दौड़ ने किताबी शिक्षा के दबाव को इतना बढ़ा दिया है कि माता-पिता दो अढ़ाई साल के बच्चे से आशा करने लगे हैं कि वह पढ़ने, लिखने लगे। यु०के०जी० एल०के०जी० और नर्सरी से भी आगे बढ़कर प्ले ग्रुप स्कूल खुल गये हैं। इन सबमें खेल-कूद गौण, बचपन गायब। इस स्थिति के लिए माता-पिता की हविश ही एक मात्र जिम्मेदार है। बस बच्चा पढ़े। पढ़े, पढ़े। चाहे अर्थ समझ में नहीं आवे तो रटे और अच्छे नम्बरों से पास हो। हम सभी जानते हैं कि बच्चे की काफी शक्ति इसी रटने में, घोकने में खर्च हो जायेगी और स्वाभाविक सृजन शक्ति, विचार शक्ति एवं स्मृति का विकास कुण्ठित हो जायेगा। इसके साथ ही बालक एक तरफ दब्बू बनेगा तो दूसरी
तरफ उद्दण्ड व हठी भी। इस अस्वाभाविक शिक्षा व्यवस्था से मेरा पूरा प्रयास बाल-शिक्षा पर केन्द्रित रहेगा जो भावी बालकों के शारीरिक विकास का भी बड़ा नुकसान हो रहा हैजीवन की नींव है।
दुर्बल शरीर, आँखों पर चश्मा, उत्फुल्लता खत्म। बचपन में तेजी से बढ़ती महत्वाकांक्षा एवं भौतिक सुखों की इच्छा
बचपना गायब। ने शिक्षण के विषय में आज वर्षों से प्रस्थापित विवेक पूर्ण दिशा दैनिक भास्कर २४ जून २००७ के अनुसार आई सी निर्देशों एवं मान्यताओं को जड़ (चूल) से हिला दिया है, बालक
एफ ई (इण्डियन सर्टिफिकेट आफ सेकेण्डरी एजूकेशन) चाहता के स्वाभाविक मानवीय विकास के लक्ष्य को ध्वस्त कर दिया है।
है कि शाला प्रवेश के समय बच्चे की उम्र ४ वर्ष हो। महाराष्ट्र उदाहरणार्थ बच्चे की शाला प्रवेश की उम्र को लें। हमारे
शिक्षा मण्डल का नियम ५ वर्ष की उम्र का है। यही मध्य प्रदेश यहां प्राचीनकाल में ५ वर्ष की उम्र होने पर विद्याभ्यास के लिए
राज्य में भी है। गुरुकुलों में भेजते थे। विश्वस्तर पर यह मान्य है कि Reading
बालकों की बच्चों को जल्दी शिक्षा, अच्छी शिक्षा, अंग्रेजी readiness comes at 5 plus। लगभग १७ वर्ष पूर्व
माध्यम के स्कूलों में शिक्षा की लालसा का दोहन करते हुए शिक्षण जयपुर में एक मनोवैज्ञानिक चिकित्सक से मेरी चर्चा हुई थी।
एवं भरपूर कमाई देनेवाला व्यवसाय बन गया है। करोड़पति और उसने भी आयु के उपरोक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था।
अरबपति लोग भी नर्सरी सेल लगाकर व्यावसायिक शिक्षा की उसने बताया था कि बालक को कलम पकड़ सकने, आकार
ऊँची व भव्य चमकदार दुकाने खोलकर बैठ गये हैं। बनाने, पढ़ने आदि बौद्धिक विकास की तैयारी ५ वर्ष की उम्र के
दोष : बाद ही होती है। उन्होंने बताया था कि इससे पूर्व के० जी० एक - बच्चों के लिए पढ़ाई को और अधिक अप्रिय व अथवा अन्य पद्धतियों के द्वारा विभिन्न शिक्षण साधनों व बोझिल बना दिया है। छोटी कक्षाओं में पीरियड व्यवस्था ने जो उपकरणों के साथ खेलते-खेलते बच्चे की इन्द्रियों का विभिन्न ।
कम से कम प्राथमिक स्तर तक पूर्ण अवैज्ञानिक है, बालक की प्रकार से विकास होता है। मांतेस्सरि पद्धति बिल्कल यही करती रुचि, आनन्द, स्वाभाविक विकास सब रुक जाते हैं। किसी है। उसके विभिन्न साधन पूर्ण वैज्ञानिक तरीके से बनाए गये हैं।
विषय का "पाठ" चल रहा है। शिक्षक व बालक पूरी तन्मयता तरह-तरह के साधनों से खेलते-खेलते अनजाने ही बच्चे के के साथ उसके रसास्वादन में डूबे हुए हैं और अचानक पीरियड स्नायुओं में एकाग्रता, अनुशासन, सफाई, व्यवस्था, स्वालम्बन
न की घंटी बज जाती है। बालकों को लगता है जैसे किसी ने थप्पड़
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मार दिया है न चाहते हुए भी शिक्षक व बालकों को अगले पीरियड में लगना पड़ता है। कालांश पद्धति का एक बड़ा दुर्गुण यह भी है कि बालक भावनात्मक दृष्टि से किसी भी शिक्षक से नहीं जुड़ पाता है। उसके लिए तो वे सब विषय शिक्षिक (Subject Teacher) हैं जबकि इन्हीं में से उस को दीदी, ताई या मौसी चाहिये किसका जब चाहे पल्लू पकड़कर मन की बात कर सके ।
दूसरे- बच्चों के नैसर्गिक स्वस्थ विकास में बाधक बनता है पहले से तय शुदा दैनिक पाठ्यक्रम शिक्षक को अपने कालांश में आना है और पहले से तैयार पाठ पढ़ाना है। उसके पास इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं है कि उसके बच्चे आज क्या जानना चाहते हैं, क्या करना या पढ़ने की इच्छा है, आज वातावरण को देखते हुए उनकी उत्सुकता किसमें है? शिक्षक को मासिक, त्रैमासिक वार्षिक विभाजन के अनुसार पाठ्यक्रम पूरा कराने से मतलब है। अमेरिकन शिक्षाशास्त्री जान हाल्ट ने अपनी पुस्तक “बच्चे असफल कैसे होते हैं?" में विस्तार से प्रका डाला है।
तीसरा- बालक की शिक्षा में माध्यम का अति महत्वपूर्ण स्थान है। प्राथमिक स्तर तक हर हालत में शिक्षा का माध्यम बालक की मातृभाषा होना चाहिये सभी शिक्षा शास्त्रियों ने इसकी अनिवार्यता बताई है। अरे, किस भाषा में बालक ने शिशु अवस्था में ही रोना, गाना, गुनगुनाना सीखा है। जिस भाषा में वह घर में वे सारी बातें करता है, आनन्दित होता है। स्कूल में जाते ही सब छूट जाते हैं और सौतेली मां अंग्रेजी माध्यम उसकी झोली में डाल दिया जाता है। अभिव्यक्ति की शिक्षा का लक्ष्य होता है जिस बालक की अभिव्यक्ति शक्ति जितनी पुष्ट होगी उसका सर्वांगीण विकास उतना ही उत्तम होगा ।
साठ के दशक की बात है। मैं बालनिकेतन जोधपुर में कक्षा ४ का अध्यापक था। एक दिन की बात है कि हिन्दी में अपनी पूर्व निश्चित पाठ्य सामग्री लाया था। अचानक बादल छाने लगे। हल्की बूंदें भी पड़ने लगी। वारिश का मौसम था ही। बच्चे वर्षा व बादलों सम्बन्धी चर्चा करने लगे मैंने रोका नहीं, प्रोत्साहित किया। कुछ मिनटों बाद अचानक मैंने उनसे कहा'आप वर्षा ऋतु पर निबंध लिखना चाहेंगे।' सबने बड़े उल्लास के साथ हां भर दी। मैंने कहा- "आज की विशेषता यह होगी कि आज समय कितना भी लगे, हर बालक, बालिका विस्तार से अपने विचार प्रकट करे।" एक कक्षा एक शिक्षकवाली व्यवस्था होने से कालांश व शिक्षक बदलने की कोई आवश्यकता नहीं थी । आज ५० वर्ष बाद भी मुझे उस सरिता का चेहरा याद है जिसने अपनी कापी के १४ पृष्ठ भरे थे। इस लेख में पुनरावृत्ति के अंश काट भी दिये फिर भी १० या ११
पृष्ठ का तो था ही देखा आपने माध्यम व अभिव्यक्ति का
चमत्कार |
स्वामी विवेकानन्दजी ने लिखा है (पुस्तक - शिक्षा) " मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है ।" जन्मजात व वातावरण से प्राप्त शक्तियों का कैसे होगा सुन्दर विकास कैसे हो जायेगी अभिव्यक्ति ?
आइए, विचार करें हम पालक, शिक्षक व यह शिक्षण व्यवस्था । हम क्या चाहते हैं? क्या कर रहे है ? और क्या पाएंगे ? पा सकेंगे, बुद्धि व भावना से पूर्ण सुविकसित इन्सान | एक सुसंस्कृत, अनुशासित व प्रसन्नचित्त समाज ।
अभी तक हमारी सारी कथा व्यथा हुई, बच्चे के स्वास्थ्य, शिक्षण व्यवस्था और उसकी दशा पर । अब हम चले घर परिवार में जहां बच्चा पैदा होता है, आंखें खोलता है, किलकारी करता है, तुतलाता है, बोलना चहता है-म म म मां मां व बा दद दा । आस पास की वस्तुओं से परिचित होना चाहता है, उनके नाम जानना बोलना चाहता है हम सबको बोलते देखकर । और हम बड़ा प्यार दिखाते हुए बताते हैं मा मम्मी पापा, एप्पल, आंटी, अंकल । थोड़ा और आगे बढ़ें तो टीचर, मेडम, फादर । यह सब बताते रटाते हुए हम अपने बच्चे के प्रति बड़े गौरवपूर्ण उत्तरदायित्व निर्वहन की अनुभूति करते हैं मा, दादा, बहिन, ताई, गुरुजी ये सब तो पिछड़े लोगों के सम्बोधन हो गये।
बच्चा कुछ माह का ही हुआ और कच्छी पहनाना अनिवार्य कर दिया। साल डेढ़ साल का बच्चा कहीं बिना कच्छी सामने आ गया। माता-पिता शेम कहते उसे जबरन कच्छी पहनाने दौड़ पड़ते हैं। बच्चा मस्ती में रहना चाहता, खुला घूमना, कूदना, फांदना चाहता है। हम उससे वह सब छीन लेते हैं। तारीफ की बात यह है कि हम अविवेकी होकर बच्चे पर यह सब लाद रहे हैं। जर्मनी के प्रोफेसर जुस्ट ने अपनी पुस्तक रिटर्न टू नेचर में लिखा है कि बच्चे को ५ साल की उम्र तक नंगा घूमना चाहिये उसे पुष्ट होने दें, निकर न पहनायें ।
मेरा पोता जब डेढ़ दो साल का रहा होगा, नंगा खेलता, घूमता रहता था । उसकी मां ने मुझे लाचारी भाषा में कहा " यह बच्चा चड्डी नहीं पहन रहा है। मैने कहा मत पहनने दो, घूमने दो ऐसे ही। फिर मां ने कहा “अच्छा नहीं लगता और उसकी ऐसी आदत पड़ जायेगी।" मैने कहा "डरो नहीं, जब समय आयेगा, वह अपने आप पहनने लगेगा।" और समयानुसार वह अपने आप पहनने लग गया।
बरसते पानी में मेरा पोता ६-७ का था तब नहाना चाहता है । मैं, हां भर देता हूँ। हर साल बरसात में वह ४-५ बार तो नहाता ही है। उसकी मां कहती है। सर्दी लग जायेगी। पर कभी नहीं लगी ।
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________________ बच्चे को ढीले हल्के खुले-खुले वस्त्र पहनाना चाहिए। वे चाहते भी यही हैं। हम हैं जो उस पर जबरन टाई, बेल्ट, जूते, मौजे, पेंट लाद देते हैं। क्या सराहना की जाय बच्चों के हितैषी होने का दम्भ पाले हुए इन अभिभावकों की और उनके ज्ञान की। अत: अन्त में मेरा आग्रह यही है कि हम बच्चे को आवश्यकतानुसार बालक की वृत्तियों उसकी महान क्षमताओं के विकास सम्बन्धी बालमनोविज्ञान व बाल शिक्षा साहित्य का अध्ययन भी करें और अपने प्रिय लाड़ले को विकास पथ पर आगे बढ़ने में सच्चे सहयोगी बनें। हंसी और आश्चर्य की बात है कि स्कूटर चलाने वाला स्कूटर के बारे में, कार चलाने वाला कार के बारे में जरुरी जानकारी रखता है पर अपने बालक की क्षमताओं और विकास प्रक्रियाओं के बारे में अक्सर कुछ नहीं जानता, न जानना चाहता कभी-कभी कहता हूँ कि कोई ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि किशोर किशोरी का विवाह होने से पूर्व सुखी दाम्पत्य जीवन एवं बालक के विकास सामग्री का अध्ययन अनिवार्य किया जाये। उसके बाद ही उन्हें विवाह करने की, जीवन साथी बनाने की पात्रता दी जाए। नीमच (म.प्र.) 0 अष्टदशी / 1230