Book Title: Vachak Yashovijayji no Patra Khardo
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचक यशोविजयजीनो पत्र-खरडो ___ - पं. शीलचन्द्रविजयगणि भूमिका : __वाचक यशोविजयगणि-रचित 'समुद्र-वहाण-संवाद'नी खरडारूप प्रतिमां (जुओ 'अनुसन्धान' -२), ते संवादनी पूर्णाहुति पृ. ८/१मां थया बाद, नीचेना अंशमां तथा ८/२ पृ. मां श्री यशोविजयजीए एक पत्र लख्यो छे. पत्रना मरोड जोतां ते उतावळमां लखायेलो होय तेम जणाय. 'संवाद'ना तथा पत्रना अक्षर-मरोडो जुदा जुदा होवाथी बन्ने अलग अलग समये लखाया होवानो विशेष संभव छे. पत्रमां लेखके क्यांय पोतानुं नाम नथी लख्य पोताने "विनेयलेशदेशीयो विजयः" ए रीते ज निर्देशे छे. वळी, पत्र गच्छपति आचार्य उपर लखायो छे, तेम स्पष्ट होवा छतां कया आचार्य पर लखायो - तेनो क्यांय नामोल्लेख नथी. सं. १७१७मां यशोविजयजी पोताना गुरुजी आदि साथे घोघा चातुर्मास रहेला, अने संभवत: "समुद्रवहाण - संवाद" त्यां ज, ते चातुर्मास दरम्यान ज रचायो जणाय छे. ज्यारे आ पत्र तो, पोते राजनगर चातुर्मास हता, अने गच्छपति पुरबन्दिर (पोरबंदर)मां चोमासुं हता, त्यारे लखायो होवानो प्रगट निर्देश छे. पत्रमां कोई कोई अक्षर लखतां ज चहेराया छे, तो कोई अशुद्धि पण - -उतावळ जन्य-जोवा मळे छे. आ बधा परथी ए पत्र पत्र नहि, पण लखवा धारेला पत्रना खरडा (Draft) रूप होवार्नु मानवं वधु उचित लागे छे. पत्रमा विशेषता एटली ज छे के - पत्रलेखके गच्छपतिने अरजी करी छे के "चालु वर्ष दरमियान आप श्रीपूज्यनो एक पण पत्र मारा पर केम नथी ? हवे पत्र लखीने मने आश्वस्त करशो." अद्यावधि अप्रगट एवो आ पत्र-खरडो अहीं प्रस्तुत छे. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [66] पत्रनो पाठ स्वस्ति श्रीमद् यदीयक्रमकमलनमन्नाकिकोटीरकोटिभ्रश्यन्मन्दारमाला परिचयरचि ( ? ) ता भृङ्गराजी विरेजे । नम्रौकः स्थैर्यहेतोः किमु पदनिहिता शृङ्खला सिन्धुपुत्र्यास्तन्यादन्याय्यवृत्तिव्युपरमपरम श्रीसमृद्धि स वीरः ॥ एनं श्रीमन्तं सुत्रामग्रामजेजीयमानमहामोहसङ्ग्राम लब्धजयपताकाभिरामजगदऽतिशायिस्थामधामरामणीयकदत्तजनचमत्कारं तर्कसम्पर्कसमितिप्रासादडिण्डीर पिण्डपाण्डुरप्रवादपाथोधिस्वतन्त्रप्रचारमुद्रणसेतुबन्धायितसप्त (?) भङ्गीतस्यात्कारं सहृदयहृदयङ्गमरमणीयतालङ्कत सर्वभाषापरिणामिवचनरचनारचित सुधार[ स ] तिरस्कारं श्रीवीरजिनजगदाधारं प्रणम्य विधूदयप्रवर्द्धमानगतरङ्गमिषादुन्मिषद्विधूपलनिर्मितप्राकारविस्तारिकान्तिजान्हवीं रसोल्लासादालिङ्गितुं विस्तारितकरेणेवोदन्वता विराजिते श्रीपूज्यपादपाविते श्रीमति पुरबन्दिरे, पुरन्दरपुरलक्ष्मीलुण्यकविलासकलितात्रा (? द रा) जन्वत: श्रीराजनगराद् विनेयलेशदेशीयो विजयः सविनयं सानन्दं प्रेमप्राग्भारप्रकर्षमन्थरं द्विपतर्कप्रमितावर्त्तवन्दनेनाऽभिवन्द्य विधिवद् विज्ञपयति यथा कृत्यं चात्र प्रातर्महेभ्यसभ्यपरिपूरितायां सभायां ग्रन्थस्वाध्यायविधानादिप्रस्तुतकार्य परम्परायां प्रवर्त्तमानायां क्रमागतपर्युषणापर्वापि सक्षणनवक्षणकल्पसूत्रवाचन कल्पिताकल्पसंकल्पकल्पलतोपम श्रीजिनभवनपूजा साधर्मिकजनपोषण - दीनोद्धारश्रीजिनशासनप्र भावनादिभावनानुविहितानेहः समुचितभावदुस्तपतपस्तपनादिकर्मशत्रुनिर्मूलन - शमशर्मप्रदधर्मकर्मोपबृंहितं सुखमाशिखरमध्यारोपितं श्रीमत्पूज्यचरणपरिचरण करणप्रभावादऽपरम् । अपराहठपरम्पराकमलिनीपरागलुब्धकविकुलमधुकरनिकरझंकारस्फीत सौभाग्यस्वच्छतपगच्छसाम्राज्यधुरन्धराणां कृतार्थीकृताऽर्थसार्थवितरणगुणविजित सुरतरु शोभाभराणां निःसीमस्थैर्यगुणपाटवपाठनछात्रीकृतसुरभूधराणां अगण्यलावण्यपुण्यतारुण्यसरः स्नानरसिकसुरपुरपुरन्ध्रीनयनकलभसुलभनिरुपमभूतरङ्गरङ्गनिर्झराणां लक्षंभराणां श्रीपूज्यपुरन्दराणामस्मिन्नब्देऽद्य यावन्नैकोऽपि लेखो मत्करकमलमलंचकार । तदऽतः परं प्रसादमासादय (द्य ?) तत्प्रेषणेन प्रमोदनीयं विनयपरमाणोः परमाण्विन्द्रियनैकायिकमुख्यचातुरीधुरीणैः । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [67] किं च - कुवलयोल्लासशीतपादैवितीर्णबहुलप्रसादैगलितसकलविषादैनिराचिकीर्षाकोट्यऽधिरूढनिखिलगूढप्रसादैः श्रीपूज्यपादैस्त्रिसन्ध्यं नतिरवधार्या / प्रसाद्ये च नत्यनुनती यथार्ह तत्राऽन्तिषदां पं. ल. प्रभृतीनाम् / शिष्योचितं कृत्यं प्रसाद्यम् / जिननामग्रहणे स्मारणीयो विनेय इति भद्रम् // -x ---