Book Title: Shravan belgola ke Abhilekho me Dan Parampara
Author(s): Jagbir Kaushik
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में दान परम्परा शुद्ध धर्म का अवकाश न होने से धर्म में दान की प्रधानता है। दान देना मंगल माना जाता था । याचक को दान देकर दाता विभिन्न प्रकार के सुखों की अनुभूति करता था । अभिलेखों के वर्ण्य विषय को देखते हुए यह माना जा सकता है कि दान देने के कई प्रयोजन होते थे । कभी मुनि राजा या साधारण व्यक्ति को समाज के कल्याण हेतु दान देने के लिए कहता था तथा कभी लोग अपने पूर्वजों की स्मृति में बस्ति या निषद्या का निर्माण करवाते थे । किन्तु प्रसन्न मन से दान देना विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है । साधारण रूप में स्वयं अपने और दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। राजवार्तिक में भी इसी बात को कहा गया है। किन्तु धवला के अनुसार रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों को प्रदत्त करने की इच्छा का नाम दान है। माचायों ने अपनी कृतियों में दान के विभिन्न भेदों की चर्चा की है। सर्वासिद्धि में आहारदान, अभयदान तथा ज्ञानदान नामक तीन दानों की चर्चा की है जबकि सागारधर्मामृत के अनुसार साविक, राजस तामस आदि तीन प्रकार के दान होते हैं । किन्तु मुख्य रूप से दान को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है— अलौकिक व लौकिक । अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है, जो चार प्रकार का है—आहार, औषध, ज्ञान व अभय तथा लौकिक दान साधारण व्यक्तियों को दिया जाता है । जैसे-समदत्ति, करुणादत्ति, औषधालय, स्कूल, प्याऊ आदि खुलवाना । श्रवणबेलगोला के लगभग दो सौ अभिलेखों में दान परम्परा के उल्लेख मिलते हैं । इनमें मुख्य रूप से ग्रामदान, भूमिदान, द्रव्पदान, वस्त व मन्दिरों का निर्माण व जीर्णोद्धार, मूर्ति दान, निपया निर्माण, आहार दान, तालाब, उद्यान, पट्टशाला (वाचनालय), चैत्यालय, स्तम्भ तथा परकोटा आदि का निर्माण जैसे दान वर्णित हैं। इन दानों को अलौकिक व लौकिक नामक दो भागों में विभक्त किया जाता है - - अलौकिक दान – जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है । क्योंकि लौकिक दान में जिन वस्तुओं की गणना की गई है, जौनाचार में उन वस्तुओं को मुनियों के ग्रहण करने योग्य नहीं बतलाया गया है | श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अलौकिक दान में से केवल आहार दान का उल्लेख मिलता है । आहार दान - आहार दान का अत्यन्त महत्त्व है। इसके महत्त्व का उल्लेख करते हुए पंचविंशतिका' में बतलाया गया है। कि जैसे जल निश्चय करके रुधिर को धो देता है, वैसे ही गृहरहित अतिथियों का प्रतिपूजन करना अर्थात् नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान करना भी निश्वय करके गृहकार्यों से संचित हुए पाप को नष्ट करता है । श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में भूमि रहन से मुक्त करने पर तथा कष्टों के परिहार होने पर आहारदान की घोषणा करने का वर्णन मिलता है। एक अभिलेख के अनुसार कम्भिय्य ने घोषणा की १. २. ३. परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसर्जनं दानम् (राजवार्तिक - ६ / १२ / ४ / ५२२) धवला - १३ / ५, ५-१३७/३८६ / १२ / सर्वार्थसिद्धि - ६ / २४ / ३३८ / ११ । ४. सागारधर्मामृत - ५ / ४७ २० ५. जैन शिलालेख संग्रह, भाग एक, लेख संख्या - ६६ १०१, ४६७ ६. पंचविंशतिका - ७ /१३ । श्री जगबीर कौशिक ॐ० शि० ले० सं०, भाग एक, ले० सं० ६६ । आचारत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि चडि सेट्टि ने मेरी भूमि रहन से मुक्त कर दी, इसलिए मैं सदैव एक संघ को आहार दूगा । अष्टादिक्पालक मण्डप के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख' में कहा है कि चौडी सेट्टि ने हमारे कष्ट का परिहार किया है, इस उपलक्ष्य में मैं सदैव एक संघ को आहार दूंगा। जबकि इसी स्तम्भ पर उत्कीर्ण दूसरे अभिलेख में आपद् परिहार करने पर वर्ष में छह मास तक एक संघ को आहार देने की घोषणा की है। इस प्रकार आलोच्य अभिलेखों के समय में आहार दान की परम्परा विद्यमान थी। लौकिक दान-जो दान साधारण व्यक्ति के उपकार के लिए दिया जाता है, उसे लौकिक दान कहते हैं। इसके अन्तर्गत औषधालय, स्कूल, प्याऊ, बस्ति, मन्दिर, मूर्ति आदि का निर्माण व जीर्णोद्धार तथा ग्राम, भूमि, द्रव्य आदि के दान सम्मिलित किए जाते हैं। आलोच्य अभिलेखों में इस दान के उल्लेख पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है (i) ग्राम दान-श्रवणबेल्गोला के अभिलेखों में ग्राम दान सम्बन्धी उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। ग्रामों का दान मन्दिरों में पूजा, आहारदान या जीर्णोद्धार के लिए किया जाता था। इन ग्रामों की आय से ये सभी कार्य किए जाते थे। शान्तल देवी द्वारा बनवाये गए मन्दिर के लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को एक ग्राम का दान दिया गया। मैसूर नरेश कृष्णराज ओडेयर ने भी जैन धर्म के प्रभावनार्थ बेल्गुल सहित अनेक ग्रामों को दान में दिया। कभी-कभी राजा अपनी दिग्विजयों से लौटते हुए मूर्ति के दर्शन करने के उपरान्त ग्राम दान की घोषणा करते थे। गोम्मटेश्वर मूर्ति के पास ही पाषाण खण्ड पर उत्कीर्ण एक अभिलेख के अनुसार राजा नरसिंह जब बल्लाल नृप, ओडेय राजाओं तथा उच्चङ्गि का किला जीतकर वापिस लौट रहे थे तो मार्ग में उन्होंने गोम्मटेश्वर के दर्शन किए तथा पूजनार्थ तीन ग्रामों का दान दिया। चन्द्रमौलि मन्त्री की पत्नी आचलदेवी द्वारा निर्मित अक्कन बस्ति में स्थित जिन मन्दिर को चन्दमौलि की प्रार्थना से होयसल नरेश वीर बल्लाल ने बम्मेयनहल्लि नामक ग्राम का दान दिया। मन्त्री हुल्लराज ने भी नयकीति सिद्धान्तदेव और भानुकीति को सवणे ग्राम का दान दिया । बम्मेयनहल्लि नामक ग्राम के सम्मुख एक पाषाण पर उत्कीर्ण एक लेख के अनुसार आचल देवी ने बम्मेयनहल्लि नामक ग्राम का दान दिया। इसी प्रकार कई अभिलेखों में आजीविका, आहार, पूजनादि के लिए ग्राम दान के भी उल्लेख मिलते हैं। शासन बस्ति के सामने एक शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार विष्णवर्द्धन नरेश से पारितोषिक स्वरूप प्राप्त हुए, 'परम' नामक ग्राम को गङ्गराज ने अपनी माता पोचलदेवी तथा भार्या लक्ष्मी देवी द्वारा निर्मापित जिन मन्दिरों को आजीविका के लिए अर्पण किया। महाप्रधान हुल्लमय ने भी अपने स्वामी होयसल नरेश नारसिंहदेव से पारितोषिक में प्राप्त सवणेरु ग्राम को गोम्मट स्वामी की अष्टविध पूजा तथा मुनियों के आहार के लिए दान दिया।" वीर बल्लाल राजा ने भी 'बेक्क' नामक ग्राम का दान गोम्मटेश्वर की पूजा.के लिए ही किया था।" कण्ठीरायपुर ग्राम के लेखानुसार" गङ्गराज ने पार्श्वदेव और कुक्कुटेश्वर की पूजा के लिए गोविन्दवाडि नामक ग्राम का दान दिया। चतुर्विशति तीर्थकर पूजा के लिए बल्लाल देव ने मारुहल्लि तथा बेक्क ग्राम का दान दिया।" शल्य नामक ग्राम का दान बस्तियों के जीर्णोद्धार तथा मुनियों की आहार व्यवस्था के लिए किया गया था। किन्तु आलोच्य अभिलेख में दो अभिलेख६ ऐसे हैं १. जै०शि०सं० भाग एक, ले० सं० १००। २. -बही-ले० सं० १०१। -वही ले० सं०५६ । -वही-ले० सं०८३ । -वही-ले० सं०६०। -वही-ले० सं० १२४ - वही-ले० सं० १३६. ८. -बही-ले० सं० १३७ -वही-ले० सं० ४६४. -वही-ले० सं० ५६. -वही-ले० स०५० -वही- ले० सं० १०७ -वही-ले० सं०४८६. १४. -बही-ले० सं० ४६१. १५. -बही-ले० सं० ४६३. -वही-ले० सं० ४३३ एवं ४८. गोम्मटेश दिग्दर्शन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनके अनुसार ग्राम दान दानशाला, कुण्ड, उपवन तथा मण्डप आदि की रक्षा के लिए किया गया। इस प्रकार हम अभिलेखों से यह जानते हैं कि धार्मिक कार्यों की सिद्धि के लिए ग्राम दान की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। (ii) भूमिदान-आलोच्य काल में ग्राम दान के साथ-साथ भूमि दान की भी परम्परा थी। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनमें भूमि दान के प्रयोजन का वर्णन मिलता है। मुख्यत: भूमिदान का प्रयोजन अष्टविध पूजन, आहार दान, मन्दिरों का खर्च चलाना होता था। कुम्बेनहल्लि ग्राम के एक अभिलेख के अनुसार वादिराज देव ने अष्टविध पूजन तथा आहार दान के लिए कुछ भूमि का दान किया। इसी प्रकार के उल्लेख अन्य अभिलेखों में भी मिलते हैं। श्रवण वेल्गोला के ही कुछ अभिलेखों में ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनमें दान की हुई भूमि के बदले प्रतिदिन पूजा के लिए पुष्पमाला प्राप्त करने का वर्णन है। गोम्मटेश्वर द्वार के दायीं ओर पाषाण खण्ड पर उत्कीर्ण एक अभिलेख के अनुसार बेल्गुल के व्यापारियों ने गङ्ग समुद्र और गोम्मटपुर की कुछ भूमि खरीदकर उसे गोम्मटदेव की पूजा हेतु पुष्प देने के लिए एक माली को सदा के लिए प्रदान थी। इसी प्रकार के वर्णन अन्य अभिलेखों में भी मिलते हैं । कुछ ऐसे भी अभिलेख हैं जिनमें बस्ति या जिनालय के लिए भूमिदान के प्रसंग मिलते हैं । मंगायि बस्ति के प्रवेश द्वार के साथ ही उत्कीर्ण एक लेख में वर्णन मिलता है कि पण्डितदेव के शिष्यों ने मंगायि बस्ति के लिए दोड्डन कट्ट की कुछ भूमि दान की। नागदेव मन्त्री द्वारा कपठपार्श्वदेव बस्ति के सम्मुख शिलाकुट्टम और रङ्गशाला का निर्माण करवाने तथा नगर जिनालय के लिए कुछ भूमिदान करने का उल्लेख एक अभिलेख में मिलता है । उस समय में भूमि का दान रोगमुक्त होने या कष्ट मुक्त तथा इच्छा पूर्ति होने पर भी किया जाता था। महासामन्ताधिपति रणावलोक श्री कम्बयन के राज्य में मनसिज की रानी के रोगमुक्त होने के पश्चात् मौनव्रत समाप्त होने पर भूमि का दान किया। लेख में भूमि दान की शर्त भी लिखी हुई है कि जो अपने द्वारा या दूसरे द्वारा दान की गई भूमि का हरण करेगा, वह साठ हजार वर्ष तक कीट योनि में रहेगा। गन्धवारण बस्ति के द्वितीय मण्डप पर उत्कीर्ण लेख में पट्टशाला (वाचनालय) चलाने के लिए भूमि दान का उल्लेख है। भूमिदान से सम्बन्धित अनेक उल्लेख अन्य अभिलेखों में भी मिलते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि तत्कालीन दान परम्परा में भूमि दान का महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिससे प्रायः सभी प्रयोजन सिद्ध किए जाते थे। (iii) द्रव्य (धन) दान-श्रवणबेल्गोला के अभिलेखों में नगद राशि को दान स्वरूप भेंट करने के उल्लेख मिलते हैं। उस धन से पूजा, दुग्धाभिषेक इत्यादि का आयोजन किया जाता था। गोम्मटेश्वर द्वार के पूर्वी मुख पर उत्कीर्ण एक लेख के अनुसार कुछ धन का दान तीर्थंकरों के अष्टविध पूजन के लिए किया गया था। चन्द्रकीति भट्टारकदेव के शिष्य कल्लल्य ने भी कम से कम छह मालाएं नित्य चढ़ाने के लिए कुछ धन का दान किया।" राजा भी धन का दान किया करते थे । वे जिस ग्राम में निर्मित मन्दिर इत्यादि के लिए दान करना होता था, उस ग्राम के समस्त कर इस धार्मिक कार्य के लिए दान कर देते थे। राजा नारसिंह देव ने भी गोम्मटपुर के टैक्सों का दान चतुर्विशति तीर्थकर बस्ति के लिए किया था। द्रव्य दान की एक विधि चन्दा देने की परम्परा भी होती थी। चन्दा मासिक या वार्षिक दिया जाता था। मोसले के बड्ड व्यवहारि बसववेट्टि द्वारा प्रतिष्ठापित चौबीस तीर्थंकरों के अष्टविध पजन के लिए मोसले के महाजनों ने मासिक चन्दा देने की प्रतिज्ञा की । मासिक के अतिरिक्त वार्षिक चन्दा देने के उल्लेख भी मिलते १. २. ३. ४. ६. जैन शि० सं भाग एक ले० सं० ४६५. वहीं-ले० सं०४६६ एवं ४६६ -वही-ले० सं० २. -वही-ले० सं०८८-८९. -वही-ले० सं० १३३. -बही-ले०सं० १३०. -बही-ले० सं० २४. -ले० सं०५१. वही- ले० सं० ८४, ६६, १२६, १४४, १०८, ४५४, ४७६-७७,४८४, ४१०, ४६८, ५... -वही-ले० सं० ८७. -वही-ले सं०१३ -वही-लै० सं० १३८. -वही-ले० सं० ८६. ११. ११. ११. २२ आचार्यरल भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दर पन्य Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। चतुविशति तीर्थकरों के अजान के लिए मोसले के कुछ सज्जनों का देने को प्रतिज्ञा की गोम्मटेश्वर द्वार पर उत्कीर्ण एक लेख के अनुसार बेल्गुल के समस्त जौहरियों ने गोम्मटदेव और पार्श्वदेव के पुष्प पूजन के लिए वार्षिक चन्दा देने का संकल्प किया था । प्रतिमा के दुग्धाभिषेक के लिए द्रव्य का दान करना अत्यन्त श्रेष्ठ माना जाता था। कोई भी व्यक्ति कुछ सीमित धन का दान करता था । उस धन के ब्याज से जितना दूध प्रतिदिन मिलता था, उससे दुग्धाभिषेक कराया जाता था । आदियण्ण ने गोम्मटदेव के नित्याभिषेक के लिए चार गद्याण का दान किया, जिसके ब्याज से प्रतिदिन एक 'बल्ल' दूध मिलता था । हुलिगेरे के सोवण्ण ने पांच माण का दान दिया, जिसके व्याज से प्रतिदिन एक 'बल्ल' दूध मिलता था। इसी प्रकार दुग्धदान के लिए अन्य उदाहरण भी आलोच्य अभिलेखों में देखे जा सकते हैं । अष्टादिक्पालक मण्डप के स्तम्भ पर खुदे एक लेख के अनुसार पुट्ट देवराज अरसु ने गोम्मट स्वामी की वार्षिक पाद पूजा के लिए एक सौ वरह का दान दिया तथा गोम्मट सेट्टि ने बारह गद्याण का दान दिया। इसके अतिरिक्त श्रीमती अवे ने चार गद्याण का तथा एरेयङ्ग ने बारह गद्यान का दान दिया । - " (iv) बस्ति (भवन) निर्माण – बानोच्य अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस समय बस्ति निर्माण भी दान परम्परा का एक अंग था। ये बस्तियाँ पूर्वजों की स्मृति में जन साधारण के कल्याणार्थ बनवाई जाती थी। आज भी पार्श्वनाथ, कत्तले, चन्द्रगुप्त, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, चामुण्डराय शासन, मजिगण एरडकट्टे सतिगन्धवारण, तेरिन, शान्तीश्वर, चेन्नण्ण, ओदेगल, चौबीस तीर्थंकर भण्डारि, अक्कन, सिद्धान्त, दानशाले मज्जावि बादि बस्तियों को खण्डितावस्था में देखा जा सकता है। ये गर्भगृह, सुखनासि, नवरङ्ग मानस्तम्भ, मुखमण्डप आदि से युक्त होती थीं। 1 इन्हीं उपरोक्त बस्तियों के निर्माण की गाथा ये अभिलेख कहते हैं । दण्डनायक मङ्गरय्य ने कत्तले बस्ति अपनी माता पोचब्बे के लिए निर्माण करवाई थी।" गन्धवारण बस्ति में प्रतिष्ठापित शान्तीश्वर की पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार" शान्तलदेवी ने इस बस्ति का निर्माण कराया था तथा अभिषेकार्थ एक तालाब भी बनवाया था ।" इसी प्रकार भरतय्य ने भी एक तीर्थस्थान पर बस्ति का निर्माण कराया, गोम्मटदेव की रङ्गशाला निर्मित कराई तथा दो सौ बस्तियों का जीर्णोद्धार कराया ।" इसके अतिरिक्त समयसमय पर दानकर्ताओं ने परकोटे इत्यादि का निर्माण करवाया था । (v) मन्दिर निर्माण - भारतवर्ष में मन्दिर निर्माण की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । आलोच्य अभिलेखों में भी मन्दिर निर्माण के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। मन्दिरों का निर्माण प्रायः बस्तियों में होता था। राष्ट्रकूट नरेश मारसिंह ने अनेक राजाओं को परास्त किया तथा अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण करवाकर अन्त में संल्लेखना व्रत का पालन कर बंकापुर में देहोत्सर्ग किया । * अभिलेखों के अध्ययन से इतना तो ज्ञात हो ही जाता है कि मन्दिरों का निर्माण प्रायः बेल्गोल नगर में ही किया जाता था क्योंकि यह नगर उस समय में जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था। शासन बस्ति में पार्श्वनाथ की पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार " चामुण्ड के १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. £. १०. ११ १२. १३. १४. १५. जै० शि० सं० भाग एक, ले० सं० ३६१. - वही ल े० सं० ६१. - वही ल े० सं० ६७. - वहा- ले० सं० १३१. - बही - ले० सं० ६४-६५ - वही - ले० सं० ६८. - वही - ल े० सं० ८१. - बही - ल े० सं० १३५. - वही— ले० सं० ४६२. = वही ले० सं० ६४. - वही- ल े० सं० ६२. - वही ले० सं० ५६. - वही - ले० सं० ११५. वही ल े० सं० ३८१. - -वही - ल े० सं० ६७. गोम्मटेश दिग्र्शन २३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और अजितसेन मनि के शिष्य जिनदेवण ने बेल्गोल नगर में जिन मन्दिर का निर्माण करवाया। दण्डनायक एच ने भी कोपड़, बेल्गोल आदि स्थानों पर अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया।' आचलदेवी ने पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण भी बेल्गोल तीर्थ पर ही करवाया। मन्दिर निर्माण में जन साधारण के अतिरिक्त राजा भी अपना पूर्ण सहयोग देते थे। गङ्ग नरेशों ने वल्लङ्ग रे में एक विशाल जिन मन्दिर व अन्य पाँच जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया तथा बेल्गोल नगर में परकोटा, रङ्गशाला व दो आश्रमों सहित चतुर्विशति तीर्थकर मन्दिर का निर्माण करवाया। राजाओं के अतिरिक्त उनकी पत्नियों द्वारा करवाये गए मन्दिर निर्माण के उल्लेख भी मिलते हैं। मललकेरे (मनलकेरे) ग्राम में ईश्वर मन्दिर के सम्मुख एक पत्थर पर लिखित एक लेख' में वर्णन मिलता है कि सातण्ण ने मनलकेरे में शान्तिनाथ मन्दिर का पुनर्निमाण तथा उस पर सुवर्ण कलश की स्थापना कराई । (vi) मूर्ति निर्माण-आलोच्य अभिलेखों के अध्ययन से तत्कालीन मूर्ति निर्माण की परम्परा का भी हमें ज्ञान होता है। भारतवर्ष में श्रवणबेल्गोलस्थ बाहु बलि की प्रतिमा सुप्रसिद्ध है। एक अभिलेख के अनुसार इस मूर्ति की प्रतिष्ठापना चामुण्डराज ने करवाई थी । अखण्डबागिल की शिला पर उत्कीर्ण एक लेख में वर्णन आता है कि भरतमग्य ने बाहुबलि की मूर्ति का निर्माण कराया। किन्तु बाहुबलि की मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य तीर्थंकरों आदि की मूर्तियों के निर्माण के उल्लेख भी अभिलेखों में उपलब्ध होते हैं । तञ्जनगर के शत्तिरम् अप्पाउ श्रावक ने प्रथम चतुर्दश तीर्थकरों की मूर्तियाँ निर्माण कराकर अर्पित की। एक अन्य अभिलेख में भी श्रावक द्वारा पञ्चपरमेष्ठी की मूर्ति निर्मित कराकर अर्पण करने का उल्लेख मिलता है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उस समय मूर्तियों का निर्माण दानार्थ भेंट करने के लिए भी करवाया जाता था। (vii) जीर्णोद्धार-पुराने मन्दिरों व बस्तियों आदि का जीर्णोद्धार करवाना भी उतना ही पुण्य का काम समझा जाता था, जितना कि नए मन्दिरों को बनवाना । श्रवणबेल्गोला के अभिलेखों में भी जीर्णोद्धार सम्बन्धी उद्धरण पर्याप्त मात्रा में देखे जा सकते हैं। शासन बस्ति के एक लेख के अनुसार गङ्गराज ने गङ्गवाडि परगने के समस्त जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया। महामण्डलाचार्य देवकीति पण्डितदेव ने प्रतापपुर की रूपनारायण बस्ति का जीर्णोद्धार व जिननाथपुर में एक दानशाला का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त पालेद पदुमयण्ण ने एक बस्ति का तथा मन्त्री हुल्लराज ने बंकापुर के दो भारी और प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया। इसके अतिरिक्त अन्य अभिलेखों में भी बस्तियों और मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाने के उल्लेख मिलते हैं। (viii) निषद्या निर्माण-अहंदादिकों व मुनियों के समाधिस्थान को निषद्या कहते हैं। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में निषद्या निर्माण से सम्बन्धित अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसका निर्माण प्रकाशयुक्त व एकान्त स्थान पर किया जाता था। यह बस्ति से न तो अधिक दूर तथा न ही अधिक समीप होता था। इसका निमाण समतल भूमि तथा क्षपक बस्ति की दक्षिण अथवा पश्चिम दिशा में होता था । अभिलेखों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि निषद्या गुरु, पति, भ्राता, माता आदि की स्मृति में बनवाई जाती १. जै० शि० सं० भाग एक ले० सं० १४ २. -वही-ले मं. ४६४. -वही-ले स. १३६ ४. -वही-में सं०४-५३ -वही-ले सं० ४६६. श्री चामुण्डे राजे करवियले । (ज. शि. सं.भाग एक ले० सं०.). -वही-ले० सं० ११५. -वही-ले. सं०४४१. बही- ले० सं० ४३७. -वही= ले० सं० ५६. -वही-ले० सं० ४०. -वहीं- ले० सं०४७०. -वही-ले० सं० १३७. १४. -बही-ले.सं.१३४. १०३ तथा YEE. भाचार्यरल भी वेशभूषजी महाराज अभिनन्दन अन्य Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। चट्टिकब्बे ने अपने पति की निषद्या का निर्माण करवाया था।' सिरियम्बे व नागियक्क ने सिङ्गिमय के समाधिमरण करने पर निषद्या का निर्माण करवाया / महानवमी मण्डप में उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार शुभचन्द्र मुनि का स्वर्गवास होने पर उनके शिष्य पद्मनन्दि पण्डितदेव और माधवचन्द्र ने उनकी निषद्या निर्मित करवाई। लक्खनन्दि, माधवेन्द्र और त्रिभुवनयल ने भी अपने गुरु के स्मारक रूप में निषद्या की प्रतिष्ठापना करवाई थी। मुनि समाज के अतिरिक्त राजा या उनके मन्त्री भी अपने गुरु आदि की स्मृति में निषद्या का निर्माण करवाते थे। पोयसल महाराज गंगनरेश विष्णुवर्द्धन ने अपने गुरु शुभचन्द्र देव की निषद्या निर्मित करवाई थी।" मन्त्री नागदेव ने भी अपने गुरु श्री नयनकीर्ति योगीन्द्र की निषद्या निर्मित करवाई। मेघचन्द्र विद्य के प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव ने महाप्रधान दण्डनायक गंगराज से अपने गुरु की निषद्या का निर्माण करवाया था। इनके अतिरिक्त अन्य अभिलेखों में भी निषद्या निर्माण के उल्लेख मिलते हैं / (ix) अन्य वान–पूर्व वणित दानों के अतिरिक्त परकोटा निर्माण, तालाब निर्माण, पद्रशाला निर्माण, चैत्यालय निर्माण तथा स्तम्भ प्रतिष्ठा जैसे अन्य दानों के उल्लेख भी आलोच्य अभिलेखों में उपलब्ध होते हैं। गङ्गराज ने गनवाड़ि में प्रतिष्ठापित गोम्मटेश्वर की प्रतिमा का परकोटा तथा अनेक जैन बस्तियों का जीर्णोद्धार करवाया। गोम्मटेश्वर द्वार की दायीं ओर एक पाषाण खण्ड पर उत्कीर्ण एक लेख में वर्णन आता है कि बालचन्द्र ने अपने गुरु के स्मारक स्वरूप अनेक शासन रचे तथा तालाब आदि का निर्माण करवाया। बल्लण के संन्यास विधि से शरीर त्याग करने पर उसकी माता व बहन ने उसकी स्मृति में एक पट्टशाला (वाचनालय) स्थापित करवाई। इनके अतिरिक्त चैत्यालय निर्माण और स्तम्भ प्रतिष्ठापना के वर्णन भी श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में मिलते हैं। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आलोच्यकाल में दान परम्परा का अत्यन्त महत्त्व था / दान प्रायः अपने पूर्वजों की स्मृति में तथा जन साधारण के उपकार के लिए दिया जाता था। उस समय बस्ति निर्माण, मन्दिर निर्माण तथा जीर्णोद्धार, धन दान, मूर्ति दान, निषद्या निर्माण, तालाब, पट्टशाला, चैत्यालय, परकोटा निर्माण आदि के अतिरिक्त निर्माण व जीर्णोद्धार सम्बन्धी कार्यों के लिए ग्राम व भूमि का दान दिया जाता था। ग्राम व भूमि से प्राप्त होने वाली आय से आहार आदि की व्यवस्था भी की जाती थी। 2. ०शि०सं० भाग एक, सं० स०६८, -वही-ले० स०५२. -वही-ले०स०४१. वही-ले० स० 39. ले० स०४३. - ले० स० 42. - ले० स० 47 वही-ले० स.४८, 40, 41. -ले० सं०५१,७५, 90. -ले. स... -वही-ले०सं० 51. -वहौ-ले० स०४३०. -वही-ले. स. 46. 11. 12. 13. गोम्मटेश दिग्दर्शन 25