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षट्प्राभृतमां दन्त्य नकारना प्रयोग
दिगम्बर परंपरामां आचार्य कुन्दकुन्द सौथी प्रसिद्ध अने सर्वाधिक पूजनीय आचार्य मानवामां आवे छे. भगवान गौतमस्वामी पछी तरत ज कुन्दकुन्दाचार्यनुं स्थान आवे छे. कुन्दकुन्दाचार्यना नामथी प्रचलित षट्प्राभृत' ( दर्शन, चारित्र, सूत्र, बोध, भाव अने मोक्षप्राभृत) उपरांत लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, रयणसार अने बारहअणुवेक्खा आ पांच ग्रन्थ प्रकाशित करवामां आव्या छे. तेमना रचित दर्शनप्राभृतमां २९ गाथाओ, चारित्र प्राभृतमा २६ गाथाओ, सूत्रप्राभूतमां २१ गाथाओ, बोधप्राभृतमां ५६ गाथाओ, भावप्राभृतमां १७५ गाथाओ अने मोक्षप्राभृतमां ७५ गाथाओ आपवामां आवी छे.
डो. शोभना आर. शाह
षट्प्राभृतमां प्रारंभिक दन्त्य नकार अने (सामासिक) मध्यवर्ती दन्त्य नकार मळे छे. शौरसेनी अने महाराष्ट्री प्राकृतमां दन्त्य नकारनो प्रयोग सामान्य रीते जोवा मळतो नथी. श्वेताम्बरोना अर्धमागधी आगम ग्रन्थोमां प्रारंभमां दन्त्य नकारनो प्रयोग बहुलताथी मळे छे, अने क्यारेक क्यारेक मध्यवर्ती नकारनो प्रयोग पण मळे छे. दिगम्बर जैनोना शौरसेनी भाषाना ग्रन्थोमां प्रारंभमां अने मध्यमां दन्त्य नकारना बदलामां प्रायः मूर्धन्य णकार ज मळे छे. परंतु षट्प्राभृतमां केटलाक एवा प्रयोग पण मळे छे जेमा प्रारंभमां अने (सामासिक) मध्यवर्ती दन्त्य नकारना माटे दन्त्य नकार मळे छे. पालि त्रिपिटक, प्राचीन शिलालेख अने अर्धमागधी भाषाना प्रयोगोने जोतां ए स्पष्ट छे के प्राचीनतम प्राकृत रचनाओमां दन्त्य नकार यथावत रहेतो हतो. परंतु पाछळथी प्राकृत व्याकरणना नियमोना प्रभावमां आवीने दन्त्य नकारने मूर्धन्य णकारमां बदली देवामां आव्यो. आ दृष्टिथी षट्प्राभृतमां दन्त्य नकारवाळा प्रयोग ध्यान आपवा योग्य छे जे प्राचीन परंपराथी प्रभावित छे अने आ प्रमाणे छे.
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अध्यायनु नाम
दर्शनप्राभूत चारित्र प्राभृत
पृष्ठनं. श्लोकनं. प्रारंभिक मध्यवर्ती
(सामासिक)नकार २३ २९ -निमित्ते
निव्वाणं ४११८ नियगुण२०,२०,२७ निरायारं
-निवासो निच्चेलनिज्जरानिरवसेसाई
ar
९
३
सूत्र प्राभृत
६
१
१९
.
बोधप्राभृत
७८
१४
निरायारो नियत्ता, नियत्ताई निग्गंथ निरुवमम, निम्मिविय निग्गंथ निम्मवं निरावेक्खा निरावेक्खा -निमित्तं -निमित्तं
१०८
४८ ५५
भावप्राभृत
१३०
१३१
१३३
-निग्गंथनिरंतरं,-नरय-निलएसु नियोग
१३५
१४५
१२ २८
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अनुसंधान-२४
नवदसमासेहि नियाण-, न नरयं
Hb
३
४९
नग्गेण
S
निम्ममति--निम्मलं नारय-, नग्गा नग्गो(३बार), न निप्पवासो, निष्फल-, निगुण, नलसवणो, नग्गरूवेण न, -निग्गंथा
७१
७२
२१६
७३ ওও
२३४
८४
२३५
-नाम- . -निमित्तं(रबार) निरवसेसाई -नरयं निरत्थओ निम्मह नर
२३७ २४० २४७
८७ ९१ ९८
२४७
२५४
१०२ १०५
२५६
१०६
निट्ठर-निमित्तं नराणं नईहितो
२५६
१०८
१११
१३० १३३ १३४
निरंतरं --निमित्तं
२८२
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मोक्षप्राभृत
my
निम्ममो, निरारम्भो निरइ निस्सरिढुं
mm
निम्मल
m
m
३१२ ३२०
३२१ • ३२९
३३२ ३३३ ३४० ३६१ ३६५ ३६६ ३६७ ३८६ ३९०
१२ २५ २६ ३९ ४५ ४६ ४७ ८० ८६ ८८ ९० ८ ३०
mr
m
नियमेण निग्गंथनिक्कंप, सुनिम्मलं नरवरा निग्गंथे न। नरयं
mm
२६७
शीपाभृत
m
m
मध्यवर्ती दन्त्य नकार भावप्राभृत
२७३ १२१ -अनिल__उपर्युक्त तारणथी ए फलित थाय छे के प्राचीनकाळमां शौरसेनी भाषाना ग्रंथोमां दन्त्य नकारना बदलामां मूर्धन्य ‘णकार' ना प्रयोग रूढ न हता.
संदर्भ ग्रन्थ : १. श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः षट्प्राभृतादि संग्रहः ।
श्री माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला समिति । १९७७ समासना बीजा शब्दनो प्रारंभिक नकार लेवामां आव्यो छे. जेनी आगळ डेस (-) मूकवामां आवी छे.
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षट्प्राभृतमां विभक्तिरहित शब्दरूप
कुन्दकुन्दाचार्यना नामथी प्रचलित षट्प्राभृत' ग्रन्थमां दर्शनप्राभृतमां २९ गाथाओ, चारित्रप्राभृत २६ गाथाओ, सूत्र प्राभृतमां २१ गाथाओ, बोधप्राभृतमां ५६ गाथाओ, भावप्राभृतमां १७५ गाथाओ, अनो मोक्ष प्राभृतमां ७५ गाथाओ आपवामां आवेली छे. जेमां केटलाक विभक्तिरहित प्रयोगो उपलब्ध थाय छे. छन्द जाळववा माटे विभक्तिनो लोप करवामां आव्यो छे. आवी प्रवृत्ति अपभ्रंश भाषामा वधारे जोवा मळे छे. तेथी अनुमान करी शकाय के तेना उपर अपभ्रंशनो प्रभाव जोवा मळे छे. आधी एम कही शकाय के आ कृतिओ कुन्दकुन्दाचार्यना समयनी होय तेम जणातुं नथी, अने तेमना समयनी होय ज, तो तेमनो समय घणो पाछळ लाववो पड़े. आनां उदाहरण नीचे मुजब छे.
अध्यायनुं
पृ.नं. श्लोक शब्द प्रयोग
नं.
नाम
दर्शन प्राभृत
चारित्र प्राभृत
७
१०
१८
१९
३०
३१
३३
३४
३६
३८
३८
१०
१९
२१
9
2 2 2
१०
१५
दोस (दोषान् )
परिवार ( परिवारस्य)
तच्च(तत्वानि)
पदम (प्रथमम् )
दंसण ( दर्शनम्)
दुविह (द्विविधम् ) - दोस (दोषान् )
णिस्संकिय ( निःशंकितम् ) णिक्कंखिय (निःकांक्षितम् )
उवगूहण (उपगूहनम् ) वच्छल्ल (वात्सल्यम्) अवगूहण (उपगूहनम् )
पव्वज्ज(प्रव्रज्यायाम्) - दंसण (दर्शनेन)
प्राकृत मूळ रूप
दोसा
परिवारस्स
तच्चाणि
पढमं
दंसणं
दुविहं
दोसा
णिस्संकियं
णिक्कंखियं
उवगूहणं
वच्छल्लं
अवगूहणं
पव्वज्जाए
दंसणेण
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२०
रहिए
२१
चउत्थं
सूत्र प्राभृत
वुत्तं
रहिय (रहिते) दंसण (दर्शनम्)
दसणं वय(व्रतम्)
वयं सामाइय (सामायिकम्) सामइयं पोसह (प्रोषधम्) पोसहं सचित्त (सचित्तम्) सचित्तं -परिम (परिमाणम्) परिमाणं चउत्थ(चतुर्थम्) पंचम (पञ्चमम्)
पंचम अपरिग्गह (अपरिगहे) अपरिग्गहे आदाण (आदाणम्) आदाणं फुडु (स्फुटम्) फुडं (अपभ्रंश शब्द) सिवमग्ग (शिवमार्गे) सिवमग्गे वुत्त (उक्तम्) कह (कथम्) चेइय (चैत्यम्)
चेइयं विणय (विनयम्) विणयं दंसण (दर्शनम्)
दंसणं सुदगुण (श्रुतगुणः) सुदगुणो दंसण (दर्शने)
दसणे इंदिय (इन्द्रिये) कसाय (कषाये)
कसाये संजम (संजमे)
संजमे लेसा (लेश्यायाम्) लेसाए सम्मत्त (सम्यक्त्वे) सम्मत्ते सण्णि(संजिनि)
सण्णिम्मि सिंहाण (सिंहाणः) सिंहाणो खेल(खेलः)
खेलो
६८
२४
कहं
बोधप्राभृत
८५
१७
८९ १५ १००
२३ २९ ३३
इंदिये
१०३ ३७
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भावप्राभृत
भावप्राभृत
१२० ५६
१३२
८
१३४
११
१३८ १५
२८२
१३३
२८३ १३५
२८४ १३७
२८६ १४०
२८८ १४४
१४५
२९
१४६ ३१
१५३ ३८
२०१
५४
कम्मपयडीण (कर्मप्रकृतीनाम्) कम्मपयडीणं
२०१ ५५
- रहिय- ( रहितम्)
- रहियं
२१६
७३
दोस (दोषान् )
दोसा
२१७ ७५ २१९ ७६ बोहि (बोधिम् )
बोहिं
२५५ १०४
गारवं
२६९ ११९
अहं
२८९ १४५
२९१ १४८
२९२ १४९
२९९ १५६
२९९ १५६
२९९
१५६
अनुसंधान - २४
सिलाए
सिल (शिलायाम् ) जिणभावणा (जिनभावनाम्) जिणभावणं
आगंतुक (आगंतुकम् )
आगंतुकं
इड्डि (ऋद्धिम् )
इडि
माहप्प (माहात्म्यम्)
माह
बहुविह (बहुविधम् )
बहुविहं
पंचिदिय (पञ्चेन्द्रियाणाम् ) पंचिदियाणं
फुडु (स्फुटम् )
महाजस ( महायश:)
गारव (गारवम्)
अट्ट (आर्तम्)
झाण (ध्यानम्)
उमरग (उन्मार्गम्)
भाविय (भावितम् )
महाजस ( महायश:)
असियस (अशीतिशतम्) असियसयं जिणपण्णत्त (जिनप्रज्ञप्तम् ) जिणपण्णत्तं
उमरगं
भावियं
पढमं
-दंसणं
सिवो
आरूढं
- फुल्लियं मायावेल्लि
पढम (प्रथमम् )
- दंसण (दर्शनम्)
सिव (शिव:)
आरूढा (आरूढाम्)
-फुल्लिय (-पुष्पिताम् ) मायावेल्लि ( मायावल्लीम् )
फुडं (अपभ्रंश) महाजसो
झा
महाजसो
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________________ June-2003 95 मोक्ष प्राभृत सावयो 370 372 94 97 सावय (श्रावकः) -भाव (-भावेन) -भावेण संदर्भ ग्रन्थ : 1. श्री मत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः षट्प्राभृतादिसंग्रहः / श्री माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति - 1977 Co आन्तरराष्ट्रीय जैन विद्या अध्ययन केन्द्र गूजरात विद्यापीठ अमदावाद-३८००१४ * * *