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शब्द प्रयोगोनी पगदंडी पर ओलुं, पेलुं, अली !, अल्या !
प्रा. आरओ (= सं. आरात् ) 'पहेली' । (जुओ टर्नर कं. डि. इं. लें. क्रमांक १२९५)
जू. गुज. अरहु, अरहुं, अहरुं, अहु, अरुं 'पासेनुं' अहरेरुं 'वधु पासेनुं ' । अरहुं-परहुँ, अहरूं-पहरुं, अरुं परं । 'पासेनुं - आघेनुं' । उरह, उरहुँ, उहरउं, उहुरउं, ओहरुटं 'ओरूं' ।
अरहां - परहां 'पासे - आघे' ।
हरिवल्लभ भायाणी
( जयंत कोठारी : 'मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश') अरहु पहेला क्रिया-विशेषण हतुं पछी विशेषण तरीके तेनो प्रयोग थवा लाग्यो. 'र- ह'नो व्यत्यय, 'ह्- र्' जोडाई जवा, पछीथी हकारनो हुकार, अने हकारनो लोप-ए फेरफारो वडे जू.गु. नां विविध शब्दरूपोनो खुलासो मळी रहे छे ।
प्राकृत भूमिकामां स्थळ-काळ- वाचक केटलाक क्रिया-विशेषणो परथी - इल्ल- प्रत्यय वडे विशेषणो सधायां छे - अग्गिल्ल 'आगलुं', पहिल्ल 'पहेलुं', पच्छिल्ल 'पाछलुं' अने ते अनुसार आर उपरथी आरिल्ल (दे.ना. १,६३) 'निकटना समयनुं, हमणांनुं' अने पर उपरथी परिल्ल ।
समान-वर्ण-लोपना वलणने परिणामे अरिल्ल आइल्ल, पछी अइल, अने परिल्ल-पइल्ल. अर्वा. गुज. मां एलुं, पेलुं ।
पछीथी आर नुं स्थान अवर लेतां अरहु-परहु ने बदले ओरहु-परहु 'ओरुं-परुं' एवं जोडकुं प्रचलित थयुं । ते अनुसार ओरिल्ल - परिल्ल, ओइल्लपइल्ल अने अर्वा गुज. ओलुं, पेलुं ।
ए परिस्थितिमां एलुं विशिष्ट अर्थमां वपरातो थयो, कोई निकटमा रहेली व्यक्तिने बोलाववा के तेनुं ध्यान खेंचवा 'एला एला ए !' एवो प्रयोग सामान्य छे । ते ज प्रमाणे स्त्रीलिंग रूप 'एली', पासे रहेली स्त्रीने बोलाववा, अने पत्नीनुं नाम लेवाना निषेधने लीधे पत्नीने बोलाववा वगेरे माटे प्रचलित छे । क्वचित 'मारी एली' वगेरे जेवामां नाम तरीके पण वपराय छे।
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उच्चारणना सरलीकरणथी एली ने बदले अली, अने ओलो, ओल्योनुं संबोधन अल्या, ल्या पण बोलीओमां प्रचलित छे ।
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ਛੱਤੇ
हांउं एटल 'हा', 'बस', 'पूरतुं छे' एवा अर्थोमां केटलीक बोलीओमां प्रचलित छे । बृह. गु. को. मां तेने रवानुकारी कह्यो छे । हकीकते तेना मूळमां सं. आम् + खलु 'हा, खरेखर (भारवाचक ) ' छे । पछी प्रा. आं + हु, गुज. हांउ, हांउं ए क्रमे शब्द सधायो छे ।
हाय
'हाय !' ए दुःख के शोकनो उद्गार छे । 'हाय रे !' के द्विरुक्त रूपे 'हाय ! हाय !' पण वपराय छे। पछीथी 'तेनी हाय लागी गई', 'हायवोय', 'हाय- वराळ' वगेरेमां ते 'फिकर, चिन्ता', 'अंतरना ऊंडा दुःखनी बददुआ ' वगेरे अर्थमां नाम तरीके वपरातो थयो छे । बृह. गु. को. मां तेने हा साथै जोड्यो छे ।
हकीकते दुःखवाचक उद्गारो हा ! हे ! मळीने बोल 'हा हे !' परथी हाए अने पछी हाय ए रीते तेनुं मूळ सहेजे समजावी शकाय । हिंदीमां पण
हाय छे।
प्रयोग : 'ए !', 'ए रमा !' 'एय! आम आव तो ।'
ए ! ए ! ओ भाई !
'ओ भाई ! जरा आघा खसो ।' वगेरे ।
मूळ :
दूरवर्ती दर्शक सर्वनाम अने विशेषण तरीके वपरातो ए अने बोलाववाध्यान खेंचवा संबोधन तरीके वपरातो ए एक ज होवानुं जणाय छे। सं. एषः,
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प्रा. एहो, अप. एहु पछी एह अने ए.
आ ए ने बदले वपराता एय ना छेवटना यव मां मूळमां सं. भारवाचक ही होय. एही एई एय ।
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ओ पण दूरवर्ती दर्शक सर्वनामनो संबोधन तरीकेनो प्रयोग छे. सं. ओषः, अप., ओहु, पछी ओह, ओ (= हिंदी वह). तेने सं. उद्गार हो परथी थयेलो मानवानुं बराबर नथी लागतुं, केम के गुजराती शब्दरूपोमां आद्य हकारना लोपने बदले. अग्र स्वरनी पूर्वे हकारनो आगम करवानुं वलण छे ।
हेय ! हैय्या !
आनंदना, आश्चर्यना के सानंदाश्चर्यना उद्गार तरीके हेय ! वपरातो होवानुं आपणे जाणीए छीए । वधु उत्कटता हैय्या ! थी व्यक्त कराय छे। कोशोमां आ नोंधाया नथी ।
तेमना मूळनी अटकळ करतां लागे छे के संस्कृत नाटकोमां एवी लागणीओना उद्गार तरीके जे हीही वपराय छे (विदूषक वगेरेनी उक्तिओमां) तेमांथी ज आ ऊतरी आव्यो होय. हीहीनुं पछीथी हीहि अने हकारना आगळ-पाछळना स्वरो उपरना प्रभावथी हेइ अने अंते हेय. हेइया उपरथी हैय्या अने तेमां अंते जे या छे, तेना मूळमां आनंद अने आश्चर्यनो उद्गार हा होय !
हांनो 'बस' (सं. अलम् ) एवा अर्थमां पण प्रयोग जाणीतो छे ! ('हां ! बस', 'हां ! हां ! बस थयुं, हवे वधु नहीं') ।
व्यवहारनी नीतिने लगती एक उक्तिमां पण तेनो उपयोग थयो छे : जे जमवा बेठु होय तेने वधु पोरसवा आवे त्यारे विवेक खातर ना पाडवानो रिवाज छे। पण खावानी इच्छा होय तो तेने शीखामण आपेली छे के जरा धीमेथी हां हूं एभ नकारवा माटे कहेवुं, पण जोरथी ते न बोलवं, नहीं तो पीरसनार ताण करीने परसवाने बदले पीरस्या वगर चाल्यो जशे
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'हां हां' दद्यात् 'हूं हूं' दद्यात्, न दद्यात् सिहंगर्जनां ||
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हं, हुं
कोई नाम दईने आसपास रहेली व्यक्तिने बोलावे त्यारे, (१) वात करनार श्रोता वक्ता कहेवुं सांभळे छे के तेना कहेवामां संमत छे के केम, जाणवा, (२) कोई वार्ता कहे त्यारे तेमां बच्चे वच्चे तेना श्रोताना प्रतिसाद तरीके होंकारी करवा के भरवामां आवे छे। एहं के हुं तरीके लेखनमां व्यक्त कराय छे। मोढुं खुलुं राखीने होंकारो आपे त्यारे घणुंखरुं ते हं रूपे संभळाय छे, पण बंध मोढे भणातो होंकारो हुं तरीके पण संभळाय छे अने लेखनमां व्यक्त कराय छे।
सं. आम् परथी हं (हिन्दी हां ) ऊतरी आवेल छे, तेमां हकारनो अग्रागम थयेलो छे । मोढुं बंध होय त्यारे जीभना पाछळना भागमांथी, गळामांथी ए उद्गार कढातो होवाथी अने अनुनासिक / अनुस्वारनो प्रभाव होवाथी खुल्ले मोंए उच्चाराता अ स्वर ने बदले पृष्ठस्वर उ बोलाय - संभळाय छे। एटले के हं- नुं उच्चारण हुं जेवुं थाय छे।
हुंकारोने बदले होंकारो कहेवाय छे, ते हुंकार दर्पसूचक होवाथी, अर्थगूंचवण वळवा माटे एवी अटकळ करी शकाय ।
वार्ता सांभळतां बाळक होंकारो पूरे छे, तेनो संस्कृतमां हुं अने हुंकार रूपे निर्देश थयो छे. आ सर्वसामान्य अनुभवनो बिल्वमंगले पोताना एक मुक्तकमां सरस उपयोग कर्यो छे । ए मुक्तक नीचे प्रमाणे छे - तेमां यशोदा बाल- कृष्णने राम-सीतानी वार्ता कहे छे अने कृष्ण होंकारो दे छे
'रामो नाम बभूव',
'हुं',
'तदबला सीतेति',
'हुं',
'तौ पितुर्वाचा पंचवटी - तटे विहरतां तामाहरद् रावणः ।' 'निद्रार्थं जननी - कथामिति हरेहुंकारतः शृण्वतः ।' 'सौमित्रे व धनुर्धनुर्धनुरिति व्यग्रा गिरः पांतु वः ॥
('कृष्णकर्णामृत', २.७२)
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['प्रभाकचरित'मां (५३, क्रमांक ५७२), तथा 'प्रबंधकोश' मां (पृ.३९)मां चोथा चरण- पाठांतर छ : 'पूर्व-स्मर्तुरवंतु कोप-कुटिला भ्रूभंगुरा दृष्टयः ॥']
सूरदासने नामे मळता नीचेना पदमां उपर्युक्त मुक्तकनो आधार लेवायो
छे:
'नंदनंदन ! एक कहुं कहानी ; रामचंद्र राजा दशरथ के, जनक-सुता जाके घर रानी – १ तात-वचन सुन पंचवटी-वन, छांड चले ऐसी रजधानी तहां बसत सीता हर लीनी, रजनीचर अभिमानी - २ पहली कथा पुरातन सुन सुन, जननी के मुख-बानी 'लक्ष्मण ! धनुष धनुष' कहे टेरत - जसुमति सूर डरानी - ३
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तीर्थंकर महावीरनुं देहवर्णन (जैन आगमग्रंथ 'औपपातिकसूत्र'ना महावीरवर्णक अने तेना परनी अभयदेवसूरिनी वृत्तिने आधारे)
हरिवल्लभ भायाणी तीर्थंकर महावीरनुं मुख कान्तिमान अने श्वास उत्पलना परिमल जेवो देहनो वान उत्कृष्ट हतो. देहर्नु मांस नीरोगी, अति प्रशस्त, निरुपम हतुं. त्वचा, कशी पण मलिनता, रज, प्रस्वेद, कलंकथी मुक्त हती. अगोपांग तेजस्वी हतां. मस्तक, उन्नत, छत्राकार अने निबिड, पिंडीभूत केश वाळु हतुं. केश, विशद, मृदु, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण, स्निग्ध, सुगंधी, प्रशस्य, सुंदर, भंग
अंगार काजळ नीलमणि जेवा श्याम, शीमळानां फळ जेवा सघन,
सुबद्ध हता. केशमूळ पासेनी त्वचा, दाडमना पुष्पनो, सुवर्णनो वान धरावती, निर्मळ,
सुस्निग्ध हती. भालप्रदेश, व्रण विनानो, परिमार्जित, मनोज्ञ, अर्धचंद्राकार हतो. वदन, पूर्णचंद्र समान, सौम्य हतुं. श्रवण, लगोलग, सप्रमाण हता. कपोलप्रदेश, पीन, मांसल हतो. भ्रमर, पातळी, अभ्रराजि जेवी श्याम, स्निग्ध, दीर्घ, सहेज नमावेल
. धनुष समी हती. श्वेत भोंय पर काळी कीकी अने लांबी पांपणो वाळां नेत्र, विकसित
पुंडरीक समां हतां. नाक गरुड जेवू आयत, सीधुं, उन्नत हतुं. अधरोष्ठ, भरेलो, प्रवाल अने बिंबफळ समो हतो.
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दंतश्रेणि, पूर्णचंद्र, शंख, दूधनां फीण, कुंदपुष्प, जलशीकर, मृणालना जेवी धवल, निर्मल हती.
दांत, फाटफूट विनाना, अखंड, लगोलग, सुजात, स्निग्ध, अनेक छतां एक श्रेणि जेवा हता.
ताळवं अने जीभ, अग्निमां तपायेल सुवर्ण समां लाल हतां. दाढी, अल्प, आछी अने शोभीती हती.
हडपची, भरेली, मापसर, वाघना जेवी विपुल हती.
ग्रीवा, चार आंगळनी, सप्रमाण, शंख जेवी हती.
स्कंधप्रदेश, महिष, वराह, सिंह, वाघ, वृषभ, गजराजना जेवो विपुल अने प्रमाणसर हतो.
भुजा, यूप जेवी पुष्ट, सुसकर, भरेला कांडा वाळी, सुश्लिष्ट सघन सुबद्ध स्नाओनी गूढ संधि वाळी, नगरद्वारना आगळिया जेवी वर्तुल हती.
बाहु, नागराजना देह जेवा हता.
अग्रहस्त राती हथेली वाळा, पुष्ट, मांसलु, मृदु, सुलक्षण हता.
आंगळियो, सभर गोळाकार कोमळ हती.
नख, सहेज राता पातळा स्वच्छ स्निग्ध रुचिर हता.
हस्तरेखाओ, दक्षिणावर्त स्वस्तिक, सूर्य, चंद्र, शंख, चक्रनां चिह्नो वाळी हती.
वक्षःस्थळ, सुवर्णशिला जेवुं उज्ज्वळ, समथळ, पुष्ट, विस्तीर्ण, श्रीवत्सथी अंकित हतुं.
देह, करोडरज्जु न कळाय तेवो, सुवर्णकान्ति, निर्मळ, रोगचिह्नोथी मुक्ते हतो.
पडखां, सहेज नमतां, सप्रमाण, सुंदर, भरेलां हतां,
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________________ 101 रोमावलि, ऋजु, सम, सूक्ष्म, संहत, श्याम, स्निग्ध, रमणीय रूंवाडा वाळी हती. नाभि, गंगाना जमणी बाजु घूमता आवर्तना तरंगो जेवा भंगवाळी, सूर्यकिरणथी विकसित पद्म जेवी गंभीर हती. मध्यभाग, संहत, मुशळ दर्पणनो हाथो सोनानी तरवारनी मूठ अने वज्र जेवो कृश हतो. कटि, अश्व, सिंहना समी गोळाकार हती. गुह्यप्रदेश, जातवान अश्वना जेवो निरुपलेप, प्रशस्त हतो. गति, गजवर समी, पराक्रमी अने सविलास हती. जंघा, गजराजनी सूंढ समान हती. चूंटण, संपुट जेवा आने मांसल होवाथी गूढ हता. पीडी, हरणना जेवी, कुरुविंद तृण जेवी, सूतरनी आंटी जेवी वर्तुलाकार उत्तरोत्तर पातळी थती हती. चरणांगुलि, अनुक्रमे उत्तरोत्तर लघु, वच्चे विरल अवकाश वाळी, पुष्ट हती. चरणना नख, उन्नत, पातळा, राता, स्निग्ध हता. चरणतळ, रक्त कमळनां पत्र समां मृदु, सुकुमार, कोमळ हतां अने पर्वत, नगर, मगर, सागर, चक्र जेवां मंगळ चिह्नोथी अंकित हतां. देहकान्ति, निर्धूम पावक, विद्युत् , तरुण रविकिरण समी हती. तीर्थंकर महावीर आठ हजार (एक हजार ने आठ ?) पुरुषलक्षण धरावता हता.