Book Title: Shabd Prayogoni Pagdandi par
Author(s): H C Bhayani
Publisher: ZZ_Anusandhan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229605/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दप्रयोगोनी पगदंडी पर १. सं. दीप दीवो 'ना पर्याय संस्कृत शब्दकोश 'अमरकोश' ('नामलिंगानुशासन' ) मां 'दीवो 'ना वाचक मात्र बे शब्द ज आप्या छे : दीप, प्रदीप ( १६, १३८) हेमचन्द्राचार्यना 'अभिधान चिन्तामणि मां सात शब्द छे : - हरिवल्लभ भायाणी दीप, प्रदीप, कज्जलध्वज, स्नेहप्रिय, गृहमणि, दशाकर्ष, दशेन्धन (३, ६८६-६८७) आमांथी पहेला बे सिवायना शब्दो खरेखर तो गुणवाचक के लक्षणवाचक विशेषणो छे. काजळ / मश जेनी उपर ध्वजारूपे छे', 'जेने तेल प्रिय छे - जे तेल वापरे छे' जे घरने अजवाळता मणि जेवो छे', 'जे वाटने खेंचीने बाळतो होय छे', 'जेनुं बळतण वाट छे' आवा ए शब्दोना अर्थ छे. हकीकते ए विशेषणो काव्यशैलीमां नाम तरीके योजातां होवानुं उघाडुं छे. ए स्वयं अभिधारूप नहीं, पण लाक्षणिक गणाय. कोशकारोए तेमना साहित्यिक प्रयोगने आधारे ते नोंध्या होवा जोईए, परन्तु प्राप्त संस्कृत साहित्यमांथी तेमना प्रयोग जाणवामां नथी. संस्कृत शब्दकोशोमां आपेला अनेक शब्दोना अनेक पर्यायो मूळे आ प्रकारना गुण के लक्षण दर्शावतां विशेषणो परथी काव्यशैलीमां रूढ बनेलां नामो छे. २. प्रा. कसरक्क 'वज्जालग्ग'मां करभने-ऊंटने लगती अन्योक्तिओना विभागमां नीचेनी गाथा आपी छे : ते गिरि - सिहरा ते पीलु - पल्लवा ते करीर - कसरक्का । लब्धंति करह मरु - विलसियाइ कत्तो वणेत्थमि || अर्थ : हे करभ, ए पर्वत-शिखर, ए पीलुनां पान, ए केरडाना 'कचरका'एवा मरूभूमिना सुखविलास आ वनमांथी तने क्यांथी मळे ? आमां 'कसरक्क 'नो अर्थ टीकाकार रत्नदेवे 'कुड्मल' एटले के कळी - Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [109] एवो आप्यो छे, अने 'पाइअसद्दमहण्णवो मां पण एने आधारे एक अर्थ ए प्रमाणे आप्यो छे । हवे हेमचंद्राचार्यना व्याकरणना अपभ्रंश विभागना नीचेना उदाहरणमां 'कसरक' शब्द मळे छे. खज्जइ नउ कसरक्केहिँ पिज्जइ नउ पुंटेहिं । एवंइ होइ सुहच्छडी, पिएँ दिट्टएँ नयणेहिं ॥ (८, ४, ८२३.२) अर्थ : प्रिय 'कसरक', 'कसरक' एम करतां खवातो नथी, 'घट घट' पीवातो नथी. प्रियने नयनो वडे मात्र जोतां एम ज सुखशाता थाय छे.' । । आमां कोईक कडक खाद्य पदार्थ स्वादपूर्वक चावतां थतो 'कचडकचड' अवाज - एवा अर्थमां एक उदाहरण तरीके 'कसरक' शब्द आप्यो छे। अने 'वज्जालग्ग'नी गाथामां पण तेनो आज अर्थ थाय छे. स्वादपूर्वक केरडाना कटका माणवानी वात छ । टीकाकारे मूळ अर्थ न जाणवाथी संदर्भने आधारे अटकळे ज 'कळी' एवो अर्थ को छे. 'वज्जालग्ग' ना संपादक पटवर्धने हेमचंद्रे आपेला प्रयोगनी नोंध लोधी छे (पृ. ४४९-४५०), परंतु टीकाकारना अर्थ विशे कशी शंका नथी करी. ३. सं. केकाण नवमी शताब्दीना अपभ्रंश महाकवि स्वयंभूदेवना काव्य 'पउमचरिउ'मां एक स्थळे देश देशनी विख्यात वस्तुओ वगेरेनी जे सूचि आपी छे तेमां 'तुरउ केकाणउ' -एटले के केकाणनो घोडो प्रख्यात होवानुं कर्तुं छे (संधि ४५, कडकक ४, पंक्ति ८) । आ केकाण एटले बलुचिस्तानना उपरना भागमा आवेलो 'कय्कान' नामनो प्रदेश । हेमचंद्राचार्य वगेरेना कोशोमां पण खुरासाण इराक, तुर्कस्तान वगेरे प्रदेशोना घोडाओना, अने तेमना रंग अनुसार 'कोकाह', 'खोंगाह', 'सेराह', 'वोल्लाह' वगेरे अरबी नामो साथे निर्देश छे ("अभिधानचिन्तामणि', १२३७ थी १२४३) । में 'शब्दकथा'मां (पृ. ॥ २३, ६३) आनो सहेज स्पर्श कर्यो छे. परंतु सदगत विद्वान पी. के. गोडेनो आ विदेशी अश्वनामो उपर एक संशोधन-लेख वर्षो पहेलां प्रकाशित थयेल छ । केकाणना ते पछीना साहित्यमां पण उल्लेखो थयेला छे, जेम के 'उपदेश Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [1101 रसायण-रास'मां : 'अधिरु जु जिव किक्काणु तुरंगम' (कडी १३) । _ 'कथासरित्सागर'ना विषमशील-लंबक (सर्ग १२१, पद्यांक २७८)मां विविध रंगना अश्वो पर सुभटो आरूढ थया तेना वर्णनमा 'श्यामा कोंकाणी तुरगी' एवो निर्देश मुद्रित पाठ अनुसार छ । टोनी एनो black konkani marc. एवो अनुवाद कर्यो छे, अने Bohllingkना संक्षिप्त संस्कृत कोशमां पण 'कोंकणप्रदेशनी घोडी- 'कोंकणी' एवं शुद्ध शब्दरूप छंद खातर बदलीने 'कोंकाणी' कर्यु ए प्रमाणे जर्मन भाषामां अर्थ अने टिप्पण आप्यां छे । तेने अनुसरीने मोनिअर विलिअम्झना संस्कृत-गजी कोशमां पण ए ज शब्दरूप अन अर्थ ___ या छे। पण हकीकते 'कथासरित्सागर'नो पाठ भ्रष्ट छे; 'केकाणी' एवो पाठ जो ए। ४. खेह 'धूळ'ना अर्थमां 'खेहा' जिनेश्वरसूरिना कथाकोषप्रकरण(ई. स.)मां मळे छे : तुरय-खरुक्खित्त -खोणी-खेहाए (१६,२७) 'घोडानी खरी मां भौंयनी ऊडती हती'. गुजराती 'खेपट उ.पड्यो' एवा प्रयोगोमां मूळे 'खेहपट्ट'-'धूळनो पट' (ऊडे एटली झडपथी)' एवो अर्थ हशे ? ५. अप. वाहुडि कनकामरना अपभ्रंश काव्य ‘करकंडुचरिउ'( )मां 'बाहुडि आउ' ए शब्दो 'पाछो गयो' ना अर्थमां वपराया छे : बाहुडि गउ सो निय पुरहो । (१.१२.२०) ते पोताना नगरमां पाछो फर्यो ।'सं 'व्याघुट्'-पाछा वळवू, प्रा. 'वाहुड्' वगेरे (टर्नर, क्रमांक १२१९२), तेनुं संबंधक भूतकृदंत 'वाहुडि', हिंदी 'बहुरि' --फरी फरीथी-हिंदी फिर से. ते ज प्रमाणे गुज. 'वळी' (पुनः) पण 'वळवू'नुं संबंधक भूतकृदंत छे. 'बहुरि' 'फरी', 'वळी' शब्दो 'पुनः' एवा अर्थमां रूढ थया छे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [111] ६. वाणजु 'वेपारी' वाणियोना मळमां सं. वाणिजक छे. वाणोतरना मूळमां सं. वाणिजपुत्र छे. वणजारोना मळमां सं. वाणिज्याकारक छे. वाणज 'वेपारी वाणियो'ना मळ तरीके बृगुको मां सं. वाणिज्जक (वाणिजक जोईए), प्रा. वाणिज्जअ आपेल छे, पण ते बराबर नथी. तेथी अंत्य उकारनो खुलासो आपी शकातो नथी, हकीकते प्राकृतमा वाणुंजुअ शब्द मळे छे. हेमचंद्रे 'देशीनाममाला'मा ( ) ते वाणिजकना अर्थमा आप्यो छे. भोजकृत 'सरस्वतीकंठाभरण' मां ग्राम्य 'वाकोवाक्य'ना उदाहरण तरीके जे अपभ्रंश उद्धरण आपेल छे, तेमां वाणुंजुअ शब्द मळे छे. (ए उद्धरणनो भ्रष्ट पाठ शुद्ध करवानो में प्रयास को छे. जुओ वी. एम. कुलकर्णी, Prakrit verses in Sanskrit Works On Poctics' भाग १, परिशिष्ट १. पृ. २२). तेना परथी नियमितपणे गु. वाणजु निष्पन्न थयो छे, प्रा. वाणुंजुअनुं मूळ स्पष्ट नथी. सं. वाणिजक + युज, प्रा. वाणिअअ + जुंज, पछी वाणिउंज बने. तेमां उअ (सं. उक)एवो कर्तृवाचक प्रत्यय लागतां वाणिउंजुअ थाय, वाणुंजुअ नहीं. ७. गूंगळावू, मूंगणुं गूंगj (मोढा सहित) नाकमांथी बोलवानी टेववाळ, एवी रीते बोलतुं ।' प्राकृत भाषामा 'उत्तराध्ययन-सूत्र' उपरनी शान्त्याचार्यनी टीकामां गुंगुयंती एवो प्रयोग छे. एक प्राकृत कोशमां 'भयथी आकुळव्याकुळ' एवो अर्थ संदर्भने आधारे कर्यो छे. परंतु 'डरथी अस्पष्ट' नाकमांथी गणगणता' एवो अर्थ पण बंध बेसे छे. आम गुंग क्रियापद 'गणगणता होय तेम नाकमांथी अस्पष्ट बोलवू' एवो खानुकारी अर्थ धरावे छे. तेना परथी कर्तावाचक नाम गूंगj. एक्रियापदना मूळमां गूंग 'गु' ए विशेषण होय एम लागे छे. हिंदी .. गूंगा 'मूंगो'. फारसीमां पण गुंग 'मूंगो' एवा अर्थमां छे. (गूगो 'नाकनो बाझी गयेलो मेल' एनुं मूळ कदाच जुदुं होय). गुंग उपरथी विस्तारित गुंगल, जेम अंध-अंधल, पंगु-पंगुल, सं. मूक मूअ-मूअल, मूअल्ल. तेना परथी क्रियापद गूंगळावू 'श्वास बंध थई जाय, रूंधाय एम अनुभवq'. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूंगळावुं (वा० ) गूंगणुं (वा० ) फारसी गुंग गूंगा गोगो होय. प्रा.गुंगुयंत देशी श.णं. 'भयेए आकुलव्याकुल ते गुंगुयंता अच्छंति' (उत्तराध्यन-शान्त्याचार्य टीका) [112] ८. चपटु, चांपवुं चीपवुं, चीवडो वगेरे मूळ शब्दरूप चप् / चंपू 'दाबवुं' दबावीने सपाट करखुं'. तेना परथी गुजरातीमां चपोचप, चपटी, चपटु, चप्प-ट/चाप-ट, चाप-डो, चांपवु, चांपुं निष्पन्न थया छे. अन्य भारतीय आर्य भाषाओना सहजन्य शब्दो माटे जुओ टर्नर क्रमांक ४६७४. अंधल पंगल गुंगल मूअल, मूअल्ल 1 चप्पूनी ज साथै संकळायेल चिप्पू / चिव्व्नो पण एवो ज अर्थ छे. गुजरातीमां चीपियो, चीपवुं, चीप, चीबुं, चिव्व-ड / चव्व-ड, चीवडो (चोखा दाबीने करेला पौवामाथी बनेल) के चेवडो (सं. चिपिष्ट, प्रा. चिविड, कमाउनी च्यउडा, नेपाळी चिउरा, हिन्दी च्यूडा, मराठी चिवडा वगेरे) जुओ टर्नर क्रमांक ४६७४, ४८१८, ४८२१. हिं. चिपचिपा - 'चीकणुं' एनो संबंध 'चीपकीने चोंटवुं' एनी साधे शंकराचार्यने नामे मळतुं भज गोविन्दम् ए स्तोत्र 'चर्पटपंजरिका-स्तोत्र' तरीके जाणीतुं छे. ए नाम विचित्र छे. मारी अटकळ छे के कोईए तेने लगती देश्य संज्ञानुं करेलुं आ संस्कृतीकरण होय. सं. चर्पटनो 'हथेळी' एवो अर्थ नों धायो छे. पंजरिका ए गुजरातीमां प्रचलित 'पंजरी' (प्रसादनी 'पंचाजीरी') लागे छे. 'हथेळीमां पंजरी' (के 'चपटीमां पंजरी ?) सद्बोध 'ईन ए नटशेल' एवं तात्पर्य होय. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [113] स्तोत्रनो अपभ्रंशमां प्रचलित वदनक छंद (१६ मात्रानो) अने डुकृञकरणेमां डुने क्रु के क्रि उच्चारीने गुरु करवो पडे छे, तथा भक्तिभावना छे. सौ लौकिक प्रभावनां द्योतक छे. ९. चंचोळं प्राकृत 'ढुंढुल्लू' = वारंवार भ्रमण करवुं, 'खंखाळवुं', 'खंखेखुं', 'छंछेडवुं', 'झंझेडवु', 'झंझोडवं', 'डांडोळवु', 'ढढोळवु', 'फंफोसबुं', 'फंफोळवुं', '(जळ) बंबोळ' वगेरेनी क्रिया वारंवार थती / कराती दर्शाववा धातुना आद्य व्यंजननी सानुस्वार द्विरुक्ति करवानुं वलण जोई शकाय छे. आनुं एक उदाहरण कायस्थ केशवरामकृत 'कृष्णक्रीडित' काव्यमां (ई.स. १५३६) मळे छे. 'पगे हाथ ने हाथ्ये पग, चंचोळीने चाहे नाथ' 'चंचोळीने' चोळीने 1 ( ४.६ ) १०. झपट, झापट वगेरे १. झप्प 'वेगपूर्वक, एकाएक थती गति (आघात, प्रहार, पतन ) अने/ अथवा तेने लीधे थतो अवाज' एनुं अनुकरण करतुं शब्दरूप मूळ तरीके स्वीकारीने आपणे चालीए. झप झप, झपाझप, झपाझपी, झपट, झापट वगेरेनो ए मूळ घटक छे. == २. रवानुकारी अने बीजा केटलाक शब्दोमां भारवाचक शब्दरूपम मूळनो संयुक्त व्यंजन कां तो जळवाय छे, अथवा तो ज्यारे एकवडो थाय छे त्यारे तेनो पूर्ववर्ती स्वर दीर्घ थतो नथी. झप जेवा घणा खानुकारी शब्दो आनां उदाहरण छे. पण झापट वगेरेमां सामान्य वलण प्रमाणे झपनुं झाप थयुं छे. वारंवार ३. झपट (स्त्री.), झापट (स्त्री.) झापटुं (न.), झापटवुं ( साधित धातु) - एमां ट प्रत्ययथी मूळरूपनुं विस्तरण थयुं छे. चपटी, चप्पट / चापट ( मूळमां चप्प) अने थापट (स्त्री.) (मूळमां थप्प) वगेरे बीजां उदाहरण छे. ४. झपाटोमां आट प्रत्यय छे. ते ज प्रमाणे चपाट, थपाट (मूळमां थप्प) (स्त्री.), लपाट (स्त्री.) अने सपाटो तथा खानुकारी नहीं एवा गपाटो ( मूळमां गप्प) अने खपाट (स्त्री.) (मूळमां खप्प : खाप 'वांसनी चीप' ) अने बुमाटो ( मूळमां बूम) एमां पण छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [114] ५. टर्नरना भारतीय आर्य भाषाना तुलनात्मक कोशमां क्रमांक ५३३६ नीचे झप्प एवा अर्थना 'एकाएक थती वेगवाळी गति' मूळरूपमांथी निष्पन्न शब्दरूपो सिंधी, पंजाबी, पहाडी, नेपाळी, असमिया, बंगाळी, ऊडिया, मैथिली, हिन्दी अने गुजरातीमांथी आपेलां छे, जेमना 'झपटी लेवुं', 'झडपथी', 'एकाएक' 'उतावळे' 'झटको' जेवा अर्थ छे. झपेटोमा एट प्रत्यय छे. अंगविस्तार, स्वार्थिक, ट, आट प्रत्यय माटे जुओ ह. भायाणी 'थोडो व्याकरण विचार' (त्रीजी आवृत्ति, १९७८) पृ. ११९ - १२० ; तथा ऊर्मि देसाई, 'गुजराती भाषाना अंगसाधक प्रत्ययो (बीजी आवृत्ति, १९९४) पृ. १३०, १३१, १४५. ११. झूम झूमखो, झूमणुं झुंब एटले 'लटकवुं' एवा मूळ धातुरूप परथी गुजराती झूमवुं, झूमखो, झूमणुं अने झुम्मर निष्पन्न थयेला छे. झुंब परथी गुजराती वगेरमां झुंब थाय, पछी वनुं सारूप्य थवाथी झूम थयुं -लींवडो > लीमडो वगेरेनी जेम. प्रा. झुंबणग एटले 'गळामांथी लटकतो हार के माळा' तेना पस्थी गुज. झूमणुं 'नीचे मोटुं चग अने बने सेरमां नानां चगदां होय तेवो सोनानो हार'. 3 प्रा. झुंबुक्क (अपभ्रंश साहित्यमां मळे छे, जुओ रत्ना श्रीयन A Critical . Study of Mahāpurāna of Puspadanta १९६९) क्रमांक ९९४ परथी पंजाबी, बंगाळी, हिन्दी झुमका 'काननुं एक लटकतुं आभूषण'. 'झुंब' ने कर्तृवाचक उ + क्क प्रत्यय लाग्यो छे. गुज. झूमखं एटले 'नीचे लटकतुं होय तेवुं लूमखुं', लटकतो झूडो. पांदडां के फूलफळोनो एवो गुच्छ. आमां बे अर्थघटक छे. लटकवुं ते अने गुच्छरूप होवुं ते. टर्नर गुच्छवाळा घटकने मूळ तरीके लीधो छे. सिंधी झुमकु हिंदी झुमका, मराठी झुमका गुच्छनो अर्थ धरावे छे. (जुओ टर्नर, क्रमांक ५४०४) पण ते साधे पंजाबी, बंगाळी, हिन्दी झुमकानो 'काननुं लटकणियुं' एवो अर्थ छे. एटले लटकवानो अर्थ मुख्य छे, अने गुच्छनो अर्थ गौण छे. पछीथी केटलाक शब्दोमां गुच्छनो अर्थ मुख्य बन्यो छे एटले टर्नरे झुप्प अने झुम्मने Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [115] सहयोगी गण्या छे, ते चिन्त्य छे. गुज. झूमखो / झूमखुंमां मूळना कने बदले ख प्रत्यय छे. आमां लूमखुंनो प्रभाव होय. सं. प्रा. सं. लुंबी, गुज. लूम, स्वार्थिक ख प्रत्यय लागीने लूमखुं. ख प्रत्यय गुजराती डाळखी, लहेरखी, माळखुं अने तणखलुं (<तरणखलूं) मां पण छे, जुओ. ह. भायाणी, 'थोडोक व्याकरण विचार' (त्रीजी आवृत्ति, १९७८) पृ. १२४, ऊर्मि देसाई, 'गुजराती भाषाना अंग विस्तारक प्रत्ययो ' ( बीजी आवृत्ति, १९९४), पृ. १३२. गुज. झुम्मर / झूमर लटकतुं होय छे. तेना मूळमां झुम्बिर (प्राकृतमां इर प्रत्यय ताच्छील्य वाचक छे छे. हिन्दी झूमरनो अर्थ छे 'माथा पर परवानुं एक आभूषण जेमां घूघरी के तारकसबनो गुच्छो लटकतो होय छे.' रूमझममां झूम खानुकारी छे. १२. ठोंसो, ठोंस, ठांस, ठसवुं ठेस हिन्दी ठोस 'पोलुं नहीं, घन, नक्कर' आपणने गुजराती ठोसो / ठोंसो (पोला हाथनो धब्बो नहीं पण मुक्काथी करातो प्रहार) शब्दना अर्थनो खुलासो आपे छे. चूस / चूंसवं, भूसवुं / भूसवुं खोस / खोंसवं वगेरेमां बोलीभेदे सकारनी पूर्वेनो स्वर सानुनासिक बोलवानुं वलण जाणीतुं छे. ठोंसवुं 'दाबीने भरखुं' अने पछी लाक्षणिक 'दबावीने खावुं', हिन्दी सना / ठूंसनानो ए ज अर्थ छे. पंजाबी ठूसणा, सिंधी ठाँसो आ साधे संकळायेला छे. जुओ टर्नर, क्रमांक ५५११ नीचे ठोस्स. 'चाली चालीने ठूंस नीकळी गई', 'काम करावीने एणे तो मारी ठूंस काढी' एवा प्रयोगोमां, अत्यंत थाकंवा के थकवी नाखवाना अर्थमां ठूंस वपरायो छे, तेनो खुलासो 'शरीरमां जे कांई भरेलुं हतुं ते बळ, ताकात, बधुं नीसरी गयुं, दम नीकळी गयो' ए रीते कदाच आपी शकाय. ठांस पण आ साथै संकळायेलो छे. ठांसोठांस, ठांसियो वगेरे आमांथी साधित छे. अन्य भारतीय आर्य भाषाना शब्दो टर्नर क्रमांक ५४९९ (ठस्स) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [116] नीचे आप्या छे. ठेस, 'ठोकर, ठेळ', ठेशी 'अटकण' पण आ ज कुळनो छे. जुओ टर्नर क्रमांक ५५११ नीचे. १३. थपथपी, थापडी, थपाट वगेरे . थप थप, थपथपी, थपकवू, थापी, थापडी, थप्पड, थयाट, थप्पो, थपती, थपेली, थपोलु, थपोडं वगेरेनो संबंध खानुकारी थप्प साथे छे. अन्य भारतीय-आर्य भाषाओना सहजन्य शब्दो माटे जुओ टर्नर, क्रमांक ६०९१ (थप्प) नीचे. थेपर्बु, थेप, थेपलुं वगेरे माटे थेप्प एवं मूळ शब्दरूप स्वीकारवू पडशे. थप्पी, थापो थापोडो, थपरडो/थपेडो, थापण एनो संबंध सं. स्थाप्यते, प्रा. थप्पड़, गुजराती थापq साथे छे. १४. नकळंक कल्कि-अवतारना 'कल्कि'नुं सरळ उच्चारण 'कलक्की'. 'चोलुक्य'> 'चोलुकिय'>'सोलुक्किय'> सोलंकी'; 'चालुक्य'>साळुके; 'वालुक्की'/ 'वालुंकी'- काकडी-ऐसे परिवर्तन के अनुसार 'कलक्की' 'कलंकी'. 'कलंकी 'नो कलंकवाळु अर्थ निवारखा 'अकलंकी' 'नकलंकी', 'अकळंक', 'नकळंक'. १५. पोपट, पोपचुं वगेरे पोमु, पोपचुं, पोपट, पोपटो, पोपडो ए शब्दो एक ज मूळना होवानुं जणाय छे. पोप्प 'कशुक उपसेली गोळाकार सपाटीवाळु अने अंदरखाने अवकाशवाळु' एवं मूळभूत शब्दरूप स्वीकारीने आपणे चालीए. पोपुं, पोपलु, पोपा-वाई एमां 'पोचट होवू' एवो जे अर्थ कोशो आपे छे, तेमां मूळे तो 'पोलुं होवू' एवो अर्थ होवानो संभव छे. टर्नर क्रमांक ८४०५ नीचे मूळ शब्दरूप तरीके आपेल पोप्पनो 'पोलुं' अर्थ आप्यो छे अने पंजाबी, हिन्दी पोपला 'बोर्खा' ऊडिया 'पोपरा 'पोलुं', गुजराती पोपडो, पोपचुं, पोपटो अने पोपलां नोंध्या छे. आ साथे तेज अर्थनो फोप्फ अने तेमांथी निष्पन्न शब्दो Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [117] नोध्या छे (तेमां गुजराती फोफु उमेरवानी छे). पोप-चुं मों उपर उपसेल, गोळाकार अने नीचे अवकाशनो अर्थ स्पष्ट छे. स्वार्थिक च प्रत्ययवाळा नाळचुं, डोलचुं, ढीमचुं वगेरे माटे जुओ ह.भायाणी 'थोडो व्याकरण विचार' (त्रीजी आवृत्ति, १९७८), पृ. १२४) पोप-टमां पण उपरनो फूलेलो गोळकार अने अंदर अवकाश छे ज, तेना रंग अने आकारला साम्ये चणा वगेरेनो पोपटो. बृगुको.मां मूळ पोपटो होवानुं अने तेना साम्ये पोपट बन्या मान्युं छे. पोप-डोमां पण उपरनुं पड अने अंदरनो अवकाश छे, जो के उपर गोळाकार नथी. १६. पळी, तलवट दूध, घी वगेरेनी विकृतिओना वर्णनमा तरुणप्रभसूरि-कृत 'षडावश्यकबालावबोध'मां (इ.स. १३५६) तेल विकृतिओ गणावतां प्रा. "तिल्लमली नो अर्थ 'तेल नउ ठाहउ' अने 'तिलकुट्टी'नो अर्थ "तिलवटि' ए प्रमाणे आप्यो छे. आमां 'मली' एटले अर्वा. गुज. 'मळी' -- तेलतुं कीटुं (पैडामां जामेलो तेलियो कीचड, हनुमाननी मूर्ति उपरनो तेलियो सूको रगड-एवा अर्थमां पण हाल प्रचलित) (टर्नर क्रमांक ९८९९; असमिया मलि- कदडो; उडिया धूळि-मळि 'धूळ अने कदडो' स्त्रीलिंग छे.) 'ठाहउ'नो अर्थ 'नीचे जामेलुं कीटुं'एम संदर्भथी समजवानो छ । ___ 'तिलकुट्टी'>'तिलउट्टी' तिलवटि' 'बृहत्गुजराती' कोश'मां 'तिलवति' मूळ तरीके आपेल छे ते सुधारवू पडशे. 'तल'ने प्रभावे 'ल'नो ळ नथी धयो. सौराष्ट्रमां 'तलवट' पुंलिंगमां वपराय छे. १७. रांझण रांझण, रांझणी शब्द 'सणका मारे तेवो एक पगनो रोग' एवा अर्थमां आपेला छे. सार्थ जोको. मां तेना मूळ तरीके दे. रंजण (मराठी रांजण, रांझण) 'कुंभ' होवानुं कर्तुं छे. पण जो पग सूझीने जाडो थतो होय तो 'कुंभ' उपरथी कदाच लाक्षणिक अर्थमां ए दृश्य शब्द घटावी शकाय. पण आ तो सणकानो Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [118] रोग छे. वळी दे. रंजण पुंलिंग छे, ज्यारे रांझण स्त्रीलिंग छे. अने मूळे तो रंजणनो प्रा. अरंजर, अलिजर 'घडो' परथी थयो जणाय छे. बीजी बाज बृगुको.मां तो रांझणने रवानुकारी शब्द कह्यो छे. एमां कोई रवनुं (सणकानुं) अनुकरण भाळी शकाय तेम न होईने आने तुक्को ज गणवो पडे. शीलांकाचार्ये ई.स. ८६९मां प्राकृत भाषामां रचेल जैन महापुरुषोना चरित्रग्रंथ, 'चउपन्नमहापुरिस-चरिय'मां सनत्कुमार चक्रवर्तीना चरित्रमा तेने थयेला रोगो वर्णवतां का छे : रोगायंका समुब्भूया । तं जहा-सीस-वेयणा, कण्ण-सूलं, लोयणाणं कोवो, दंते घणेट्टओ, सिरोहराए गंडमाला, वच्छत्थले तोडो, बाहुम्मि अवबाहुयं, हत्थेसु कंपो, पोट्टे जलोयरं, पट्टीए सूलं, पाडम्मि अरिसापीडा, अण्णत्थ काइया-- निरोह-संगवो, उरुसु थद्धोरुयत्तं, जघासु रंघणी, चलणे रप्पओ, सव्व-सरीरे कुट्ठरोगो वलक्खओ य । 'अनेक पीडाकारक रोग थया. जेवा के-शिरोवेदना, कर्णशूळ, चक्षुकोप, दांतनो सडो, कांधे गंडमाळ, छातीमां दुखावो, बावडां अटकी पडवा-थीजी जवा, हस्तकंप, पेटमां जळोदर, पीठमां शूळ, गुदामां हरस, मूत्रनिरोधनी पीडा, साथळ थीजी जवा, पीडीमां रांझण, पगे हाथीपणु, आखा शरीरे रक्तपित्त अने सफेद कोढ'. आमां पीडीमां रंघणी थई होवानुं कर्तुं छे. उत्तर गुजरातनी बोलीओमां तालव्य ध्वनिना संपर्के कंठ्यनो तालव्य थतो होवानुं जाणीतुं छे. काकी>काची, नाछ्युं लाख्यु एटले रांधण्यनुं ए बोलीमां रांझण्य ऐवं उच्चारण थाय. प्रा. रंधणी उपरथी रांधणी अने ते परथी रांझण्य. आम रांझण्य शब्दरूप उत्तर गुजरातनी बोली- होवार्नु जणाय छे. 'स्कंदपुराण'ना काशीखंडमां रंध्या शब्द एक रोगना नाम तरीके मळतो होवा- मोनिअर विलिअम्झना संस्कृत शब्दकोशमां आप्युं छे, ते आ संबंधमां विचारणीय गणाय. १८. ववठावू, वावठवू ववठावू, वावठवू एटले 'उपरथी पवन फूटतां सुकातुं जq' बृगो को.मां सं. वात, प्रा. वाअ, गुज. वा साथे तेने संबंध होवानुं कर्तुं छे, पण पूरी व्युत्पत्ति नथी आपी. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [119] सं. वातस्पृष्ट, प्रा. वाअपुटु, ते पछी वाउट्ठ द्वारा वावठ, पछी क्रियापद ववठा निष्पन्न थयुं होय एम लागे छे. १९. वावलवू वावलq एटले 'दाणामांथी फोतरां छूट पडे ए माटे अनाजने अध्धरथी थोडं थोडं नीचे ढोळवू'. कां तो ए वावलो 'पवन' उपरथी साधित क्रियापद होय, अथवा वावला 'फातरां' उपरथी साधित क्रियापद होय. बीजो विकल्प स्वीकारीए तो वावालुंना मूळ तरीके सं. वात + तूल, प्रा. वाअउल, पछी वाउल्लअ, वावलुं एवो परिवर्तनक्रम सूचवी शकाय. प्रकीर्ण ओष्ठ्य म् पछी उ के ओनो अ १. सं. मुद्ग, प्रा. मुग्ग, ते पछी अन्य भारतीय-आर्या भाषाओमां हिंदी मूंग, बंगाळी मुग, मराठी मुंग, वगेरे-जेमा उकार नियम प्रमाणे जळवायो छे. परंतु गुजरातमां मग (टर्नर १०१९८) २. तेवी रीते सं. मुकुष्ठ, (तेना परथी पूर्ववर्ती उनो अ थतां प्राकृतमा मउटु थाय. तेना परथी घडी काढेलुं संस्कृत शब्दरूप मपुष्टक. अन्य भारतीयआर्य भाषाओमा (जेम के पंजाबी-हिंदीमां) नियम प्रमाणे मोठ, पण गुजरातीमा मठ. ३. संस्कृत मुकुटबई परथी प्रा. मुउडबद्द मउडबद्द अने पछी जूनी गुज. मुडधउ, अर्वा. गुज. मडधो. प्राकृतमां लगोलगना अक्षरोमां बे उकार होय, त्यारे आगळना उनो अ थाय छे. (सं. मुकुट, प्रा. मउड, गुज. मोड) वालबंध परथी थयेल वाळंदमां पण बंध अक्षर पूर्वेनो बकार लुप्त थयो छे. ४. सं. मुखवालक, प्रा. मुहवालअ. ते परथी गुज. मोवाळा, पक बोलीमां मवाळा. ५. सं. गोधूम, प्रा. गोहूम ते परथी गोहूर्वं, गोहूं अने पछी नियम प्रमाणे घोंउ थर्बु जोईए, तेने बदले घउं. आमां पाछळना उकारनो प्रभाव कारणभूत होवानुं जणाय छे. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [120] बे कहेवत नवमी शताब्दीना स्वयंभूकृत 'स्वयंभूच्छंद'मां उद्धृत करेल रोहिणी छंदना कवि उद्भटकृत उदाहरणमा १.३.३.१ 'सूए पलोट्टे घअं' ए कहेवतनो प्रयोग थयो छे. अर्थ छ 'घी ढोणायुं ते सूप'मां ! हजी पण आपणे ते वापरीए छीए : 'घी ढोळायुं ते खीचडीमा'. थोडोक परंपरा प्रमाणे फेरफार थयो छे-जेम जूनी कहेवत-'गाय वाळे ते अर्जुन' (विराटपर्वनो संदर्भ)ने बदले हवे 'गाय वाळे ते गोवाळ। ते ज प्रमाणे विनयचंद्रसूरिकृत नेमिनाथ चतुष्पदिका (१३ मी शताब्दीना अंत)मां मळती कहेवत 'चणय जिम न मिरिय खजंति' चणानी जेम मरी न खवाय', आम्रदेवसूरिकृत 'आख्यानक-मणि-कोश'मां पण मळे छ : चाविज्जति न मिरिया जह चणया । (पृ. १९५, गाथा ५२) 'चणानी जेम मरी न चवाय' । विधवाने रातो साडलो पहेरवानी रूढि माळवामां ई.स. १०२० मां वीरकविए अपभ्रंश काव्य 'जंबूसामिचरिउ'नी रचना करी हती । तेमां आवता एक युद्धवर्णनमा एक वीर सुभटे शत्रुसेनानो घाण काढ्यो तेमां एक विगत आ प्रमाणे छे. 'रत्त-पोत्त-धर-राम-रंडियं । काव्यना संपादक विमलप्रकाश जैने आ शब्दोनो 'सौभाग्य-सूचक रक्तवस्त्रोंको धारण करनेवाली शत्रुनारियोंको विधवा बना दिया है।' एवो जे अर्थ कर्यो ते भ्रान्त छ । काव्य परनी संस्कृत टीकामां 'रक्तानि पोतानि वस्त्राणि धरन्ति या ता रामाश्चैता रंडिता यत्र' ए प्रमाणे जे समजण आपी छे, तेनुं तात्पर्य 'स्त्रीओने रातां वस्त्र पहेरती विधवा करी दीधी' एवं छे । गुजरातमां विधवाओ परंपराथी रातो साडलो पहेरे छे. 'राते साडले रांड, लई गई पाशेर खांड' ए कहेवतमां पण हकीकतनो निर्देश छे. आ रिवाज अगियारमी शताब्दीथी माळवामां पण होवानी महत्त्वनी माहिती आथी आपणने मणे छे. 'पृथ्वीराज-रासौ' नी मूळ भाषा सद्गत मुनि जिनविजयजी 'पृथ्वीराज-रासौ' ना थोडाक छप्पानुं प्राचीन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [121] कृतिओमां मळतुं जे मूळ अपभ्रंश स्वरूप प्रस्तुत कर्यु अने ए रचनानी मूळ भाषा (तेना पाठनी अने प्रमाणनी जेम) उत्तरोत्तर घणी बदलाती गई होवानुं स्थापित कर्यु ते माटे तेमने अनन्य यश घटे छे / ए भाषा मूळे राजस्थानी के हिन्दी न होवाना समर्थनमां हुं अहीं तेमांथी त्रणचार प्रयोगो तरफ ध्यान खेंचुं छु : 1. मुनिजीए नोंधेला एक उद्धरणमा 'खणइ खुद्दइ' एवो प्रयोग मळे छे. आ गुजराती 'खण-खोद' शब्दनी याद आपशे. राजस्थानी-हिंदीमां एवो कोई प्रयोग नथी. 2. 'संभरिसि' मरिसि' एवो 'इसि' प्रत्ययवाळो भविष्यकाळ गुजरातीमां श्- प्रत्ययवाळा भविष्यकाळ तरीके जळवायो छे. राजस्थानी हिंदीना भविष्यकाळy अंग साधतो प्रत्यय जुदो छे. 3. 'भंगाणउं' 'सच्चउं' एवां नपुंसक लिंगनां रूप अपभ्रंश अने गुजरातीनी लाक्षणिकता छे. राजस्थानी अने हिन्दीमां नपुंसक लिंग नथी.