Book Title: Sammetshikhar Ras ka Sar
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जस कीर्तिकृत सम्मेतशिखर-रासका सार [आगराके कुवरपाल सोनपाल लोढाके संघका वर्णन] - श्री अगरचंद नाहटा -श्री भंवरलाल नाहटा ऐतिहासिक सामग्री में तीर्थमालाओं का भी विशेष स्थान है, पर अब तक उनका एक ही संग्रह प्रकाशित हुआ है। इसीलिए हमारे तीर्थों का इतिहास समुचित प्रकाश में नहीं पाया है। समय-समय पर निकलने वाले यात्रार्थी संघों के वर्णनात्मक रासों से तत्कालीन इतिवृत्त पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस लेख में ऐसे ही एक यात्रार्थी संघ के रास का ऐतिहासिक सार दिया जा रहा है। यह संघ सं. १६७० में आगरा के सुप्रसिद्ध संघपति कुवरपाल-सोनपाल लोढा ने तीर्थाधिराज सम्मेत शिखर गिरि के यात्रार्थ निकाला था जिसका वर्णन रास में काफी विस्तार से है । मूल रास ४८३ गाथाओं का है, यहां उसका संक्षेप में सारमात्र देते हैं। सर्व प्रथम कवि तीर्थंकरों को नमस्कार कर अंचलगच्छाधिपति श्री धर्ममूर्तिसूरि एवं विजयशील वाचक को वंदन कर सम्मेतशिखर-रास का प्रारम्भ करता है। सम्राट जहांगीर के शासन में अर्गलपुर में (आगरा में) प्रोसवाल अंगाणी लोढा राजपाल पत्नी राजश्री-पुत्र रेखराज पत्नी रेखश्री-पुत्र कुवरपाल सोनपाल निवास करते थे। एक दिन दोनों भ्राताओं ने विचार किया कि शत्रुजय की यात्रा की जिनभुवन की प्रतिष्ठा कराके पद्मप्रभु की स्थापना की। सोनपाल ने कहा-भाईजी, अब सम्मेतशिखरजी की यात्रा की जाय ! कुवरपाल ने कहा- "सुन्दर विचारा, अभी बिम्बप्रतिष्ठा में भी देरी है।" यह विचार कर दोनों भाई पोसाल गए और यात्रा-मूहत के निमित्त ज्योतिषियों को बुलाया। गणक और मुनि ने मिलकर सं. १६६९ माघ कृष्णा ५ शुक्रवार उत्तरा फाल्गुनी कन्या लग्न में मध्य रात्रि का मुहत बतलाया। गच्छपति श्री धर्ममूर्तिसूरि को बुलाने के लिए विनतिपत्र देकर संघराज को (कुवरपाल के पुत्र को) राजनगर भेजा। गच्छपति ने कहा, "तुम्हारे साथ शत्रुजय संघ में चले तब मेरी शक्ति थी, अभी बुढ़ापा है, दूर का मार्ग है, विहार नहीं हो सकता।" यह सुन संघराज घर लौटे। राजनगर के संघ को बुलाकर ग्राम-ग्राम में प्रभावना करते हुए सीकरी पाए। गुजरात में दुष्काल को दूर करने वाले संघराज को आया देख स्थानीय संघ ने उत्सव करके बधाए। शाही फरमान प्राप्त करने के लिए भेंट लेकर सम्राट जहांगीर के पास गए, वहां दिवाने दोस मुहम्मद नवाब ग्यासवेग और अनीयराय ने इनकी प्रशंसा करते हुए सिफारिश की। सम्राट ने कहा-"मैं इन उदारचेता प्रोसवाल को अच्छी तरह जानता हैं, इनसे हमारे नगर की शोभा है, ये हमारे कोठीपाल हैं और बन्दी छोड़ावण इनका बिरुद है। मैं इन पर बहुत खुश हूँ, जो मांगे सो दूगा।" सेनानी के अर्ज करने पर सम्राट ने संघपति के कार्य की महती प्रशंसा करते हुए हाथोहाथ फरमान के साथ सिरोपाव निसाणादि देकर विदा किए। नाना वाजिंत्रों के बजते हुए शाही पुरुषों के साथ समारोह से घर आकर निम्नोक्त स्थानों के संघ को आमंत्रण भेजे गए अहमदाबाद, पाटण, खंभात, सूरत, गंधार, भरौंच, हांसोट, हलवद्र, मोरबी, थिरपद्र, राधनपुर, साचौर, भीनमाल, जालौर, जोधपुर, समियाना, मेड़ता, नागौर, फलौधी, जेसलमेर, मुलतान, हंसाउर, लाहौर, पाणीपंथ, प्रहमान - શીઆર્ય કcઘાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ છે Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m a iIARRITARAHIRAImmunmunamaAARAamaIRITY महिम, समाणो, सीहनवे, सोवनपंथ, सोरठ, बाबरपुर, सिकन्दरा, नारनौल, अलवर, कोट्टरवाड़ा, दिल्ली, तज्जारा, खोहरी, फत्तियाबाद, उज्जैन, मांडवगढ़, रामपुर, रतलाम, बुरहानपुर, बालापुर, जालणापुर, ग्वाल र, अजमेर, चाटसू, आम्बेर, सांगानेर, सोजत, पाली, रवैरवा, सादड़ी, कुभलमेर, डीडवाणा, बीकानेर, जयतारण, पीपाड़, मालपुर, सिद्धपुर, सिरोही, बाहडमेर, ब्रह्मावाद, व्याणइ, सिकन्दराबाद, पिरोजपुर, फतैपुर, पादरा, पीरोजाबाद इत्यादि। सब जगह निमंत्रण भेजे गए, महाजनों को घर-घर में यति महात्माओं को शालाओं में और दहेरे के दिगम्बर यतियों को भी प्रणाम करके संघ में सम्मिलित होने की विनति की। मुहत के दिन वाजिंत्र बजते हुए याचकादि द्वारा जय जयकार के साथ गजारूढ़ होकर प्रयारण किया। नौका में बैठकर यमुना पार डेरा दिया। यहां स्थान-स्थान का संघ पाकर मिलने लगा, १५ दिन का मुकाम हुआ, श्वे० साधु साध्वी महात्मादि ७५, यति व पंडित (दि.) ४६, सब १२१ दर्शनी, ३०० भोजक, चारण, भाट, गान्धर्व, ब्राह्मण, ब्राह्मणी, जोगी, संन्यासी, दरवेश ग्रादि अगणित थे। २१ धर्मार्थ गाडे में याचक लोग मनोवाञ्छित पाते थे, किसी को कोई चीज की कमी नहीं थी। १५ दिन ठहर कर प्रभु पार्श्वनाथ की पूजा कर संघ चला। जहां-जहां प्रोसवाल और श्रीमालादि के घर थे वहां थाल १, खांड सेर २ व श्रीफल से लाहण की। संघ की रक्षा के हेतु ५०० सुभट साथ थे। प्रथम प्रयाण भारणासराय में हुआ। ३ मुकाम किए, वहां से महम्मदपुर होते हुए पीरोजपुर पाए, ६ मुकाम किये। मुनिसुव्रत भगवान की पूजा करके लाहणादि करके चन्दनवाड़ि गये। वहां स्फटिकमय चन्द्रप्रभु की प्रतिमा के दर्शन किये । वहां से पीरोजाबाद आये, फिर खरी प्रयाण किया, नौका में बैठकर यमुना नदी उतर के सौरीपुर पहुंचे ! नेमिनाथ प्रभु के जन्म कल्याणक तीर्थ का वंदनपूजन कर फिर से खरी पाये। यहां ५२ जिनालय को वंदन किया, संघपति ने प्रथम कड़ाही (जीमनवार) की। सरस के दिगम्बर देहरे का वंदन कर अहीर सराय में डेरा दिया। वहां से इटावा, बाबरपुर, फुलकंइताल, भोगिनीपुर, सांखिसराहि, कोरट्टइ, बिदली सराय में डेरा करते हुए १ दिन फतेहपुर ठहरे। हाथियागाम, कडइ, सहिजादपुर आए, श्रीसंघ हर्षित हुआ। सहिजादपुर से महुआ पाए, वहां सती मृगावती ने भगवान महावीर देव से दीक्षा ली थी। वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में पद्मप्रभु के तीन कल्याणक हुए हैं, वीरप्रभु ने छम्मासी का पारणा चन्दनबाला के हाथ से यहीं किया था। संघपति ने संघ सहित प्रभु की चरणपादुकानों का वंदन किया, अनाथी मुनि भी यहां के थे। एक कोस दूर धन्ना का ताल है, वहां से वापिस सहिजादपुर प्राये, एक मुकाम करके दूसरी कड़ाही की। वहां से फतेहपुर होकर प्रयाग आये, यहां अनिकापुत्र को गंगा उतरते केवलज्ञान हुआ था। कहते हैं कि ऋषभ प्रभु का केवलज्ञान का स्थान पुरमिताल भी यही है। अक्षयबड़ के नीचे प्रभु के चरणों की पूजा की, यहां दिगम्बरों के ३ मन्दिर हैं जहां पार्श्वनाथादि प्रभु के दर्शन किए। गंगा के तट पर असीसइ ऊँचे स्थान पर डेरा दिया, वहां से खंडिया सराय, जगदीश सराय, कनक सराय, होते हुए बनारस पहुंचे। बनारस में पार्श्व, सुपार्श्व तीर्थंकरों के कल्याणक हुए हैं। विश्वनाथ के मन्दिर के पास ५ प्रतिमाएं ऋषभदेव, नेमिनाथ व पार्श्वप्रभु की हैं। अन्नपूर्णा के पास पार्श्वप्रभु की प्रतिमा है, खमरणावसही में बहुत सी प्रतिमाएं हैं जहां संघ ने पूजनादि किया। पार्श्वप्रभु की रक्त वर्ण प्रतिमा ऋषभ, पार्श्व, चन्दप्रभ व वर्धमान प्रभु की चौमुख प्रतिमानों का कुसुममालादि से अर्चन कर श्री सुपार्श्वप्रभु की कल्याणक भूमि भद्दिलपुर (? भदैनी घाट) में प्रभु की पूजा की। नौका से गंगा पार होकर गंगा तट पर डेरा दिया। संघपति ने नगर में पडह बजाया ADS પ શ્રી આર્ય કયાણગૌતમ ઋતિગ્રંથ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिससे अगणित ब्राह्मण और भिखारी एकत्र हो गये। संघपति ने रुपये के बोरे के बोरे दान में दे डाले । वहां से सिंहपुरे गये; यहां श्रेयांस भगवान के तीन कल्याणक हुए हैं। चन्द्रपुरी में, चन्द्रप्रभ स्वामी के ३ कल्याणक की भूमि में चरणों की पूजा की। वहां से वापिस आकर संघपति ने तीसरी कड़ाही की। वहां से मुगल सराय पाये यहां खजूर के वृक्ष बहुलता से हैं। फिर मोहिनीपुर होकर मम्मेरपुर पहुंचे। (संघपति की पुत्रवधू) संघश्री ने कन्या प्रसव की। यहां चार मुकाम किये। फागुण चौमासा करके सहिसराम आये। वहां से गीठीली सराय में वासा किया। फिर सोवनकूला नदी पार कर महिमुदपुर आये, बहिबल में डेरा किया। चारुवरी की सराय होकर पटना पहुंचे सहिजादपुर से पटना दो सौ कोश है, यहां मिर्जा समसत्ती के बाग में डेरा दिया। पटना में श्वेताम्बरों के मन्दिरों में एक ऋषभदेव भगवान का और दूसरा खमणावसही में पार्श्वनाथ भगवान का है। दुगरी के पास स्थलिभद्रस्वामी की पादुका है, सुदर्शन सेठ की पादुकाओं का भी पूजन किया। जेसवाल जैनी साह ने समस्त संघ की भोजनादि द्वारा भक्ति की। दूसरे दिन खण्डेलवाल ज्ञाति के सा. मयणु ने कड़ाही दी। पटने से आगे मार्ग संकीर्ण है इसलिए गाड़ियां यहां छोड़ कर डोलियाँ ले लीं। चार मुकाम करके संघ चला, फतेहपुर में एक मुकाम किया वहां से आधे कोश पर वानरवन देखा । महानदी पार होकर बिहार नगर आये, यहां जिनेश्वर भगवान के ३ मन्दिर थे। रामदेव के मन्त्री ने ग्राकर नमस्कार किया और कार्य पूछा । संघपति ने कहा, "हम गिद्वौर के मार्ग पर पावें यदि कोल (वचन) मंगावो !" मन्त्री ने प्रादमी भेजकर कोल मंगाया। बिहार में एक मुकाम करके पावापुर पहुंचे। भगवान वर्धमान की निर्वाणभूमि पर पीपल वृक्ष के नीचे चौतरे पर प्रभु के चरण-वंदन किए। तीर्थयात्रा करके मुहम्मदपुर में नदी के तट पर डेरा दिया। संघपति ने चौथी कड़ाही दी। वहां से नवादा गये। सादिक मुहम्मद खान का पुत्र मिर्जा दुल्लह आकर संघपति से मिला, उसे पहिरावणी दी। जिनालय के दर्शन करके चले, सबर नगर पहुंचे। रामदेव राजा के मन्त्री ने स्वागत कर अच्छे स्थान में डेरा दिलाया। संघपति ने राजा से मिलकर यात्रा कराने के लिए कहा। राजा ब्राह्मण था, उसने कहा "दो चार दिन में ही आप थक गये ! अापके पहले जो बड़े संघपति आये हैं महीने-महीने यहां रहे हैं।" संघपति उसकी मनोवृत्ति समझ कर पा गए । चार मुकाम करके सिंह गुफा में श्री वर्द्धमान स्वामी को वंदन किया। जाऊ तब तुम मुझे प्रोसवाल समझना । संघपति ने आकर प्रयाण की तैयारी की। राणी ने राजा रामदेव को बहुत फिटकारा, तब उसने संघपति को मनाने के लिये मन्त्री को भेजा । मन्त्री ने बहुतसा अनुनय-विनय किया पर संघपति ने उसे एकदम कोरा जवाब दे दिया। संघपति संघ सहित नवादा पाये, मिरजा अंदुला पाकर मिला। उसने कहा--कोई चिंता नहीं, गुम्मा (गोमा) का राजा तिलोकचन्द होशियार है उसे बुलाता हं! मिरजा ने तत्काल अपना मेवड़ा दूत भेज दिया। राजा तिलोकचन्द मिरजा का पत्र पाकर आह्लादित हुआ और अपने पुरुषों को एकत्र करना प्रारम्भ किया ! राणी ने यह तैयारी देखकर कारण पूछा । आखिर उसने भी यही सलाह दी कि "राजा रामदेव की तरह तुम मूर्खता मत करना, संघपति बड़ा दातार और आत्माभिमानी है, यात्रा कराने के लिए सम्मानपूर्वक ले आना। राजा तिलोकचन्द ससैन्य मिर्जा के पास पहुँचा। मिर्जा ने उसे संघपतिके पास लाकर कहा कि "ये बड़े व्यवहारी हैं, इनके पास हजरतके हाथका फरमान है, इन्हें कोई कष्ट देगा तो हमारा गुनहगार होगा।" राजाने कहा--"कोई चिन्ता न करें, यात्रा कराके नवादा पहुंचा दूंगा। इनके एक दमड़ीको भी हरकत नहीं होगी। यदि અમ શ્રી આર્ય કલ્યાણગૌતમસ્મૃતિ ગ્રંથ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुकसान हुआ तो ग्यारह गुना मैं दूंगा।" यह सुनकर संघपतिने मिर्जाको और राजाको वस्त्रालंकार, घोड़े, सोनइया और जहांगीरी रुपये, उत्तम खाद्य पदार्थादि से संतुष्ट किया। वहांसे राजाके साथ संघपति संघ सह प्रयारण कर, पांच घाटी उल्लंघन कर, सकुशल गुम्मानगर पहुंचे। अच्छे स्थान पर संघ ने पड़ाव डाला, और राजा तिलोकचन्द ने बड़ी पाव-भगत की । संघपतिने राणीके लिए अच्छे अच्छे वस्त्राभरण भेजे । गोमा से और भी पैदल सैनिक साथ में ले लिये । यहां से गिरिराजका रास्ता बड़ा विषम है, दोनों ओर पहाड़ और बीच में बीहड़ वन है । नाना प्रकारके फल फूल औषधि आदि के वृक्षों से वन परिपूर्ण है और प्राकृतिक सौंदर्य का निवास है । जंगली पशु पक्षी बहुतायतसे विचरते हैं। नदी का मीठा जल पीते और कड़ाही करते हुए झोंपड़ियों वाले गांवोंमें से होकर खोह को पार किया। १२०० अन्नके पोठिये और घृतके कूड साथमें थे। अन्नसत्र प्रवाहसे चलता था। अनुक्रम से संघपतिने चेतनपुर के पास डेरा दिया। यहां से १ कोश दूरी पर अजितपुर है वहांका राजा पृथ्वीसिंह बड़ा दातार, शूरवीर और प्रतापी है। नगारोंकी चोट सुन पृथ्वीसिंहकी राणीने ऊपर चढ़ देखा तो सेनाकी बहुलतासे व्याकुल हो गई। राजाने संघपति की बात कही और अपने भतीजेको संघपतिके पास भेजा। उसने संघपतिका स्वागत कर अपने राजाके लिए कोल (निमंत्रण) देनेका कहा। संघपतिने सहर्ष वस्त्रादि सह कोल दिया। राजा पृथ्वीसिंह समारोहसे संघपतिसे मिलने पाया। संघपतिने वस्त्रालंकार द्रव्यादिसे राजाको सम्मानित किया। दूसरे दिन अजितपुर आये। एक मुकाम किया। वहांसे मुकन्दपुर आये, गिरिराज को देख कर सब लोग लोगोंके हर्षका पारावार न रहा। सोने चांदीके पुष्पोंसे गिरिराज को बधाया । संघपतिको मनाने के लिए राजा रामदेवका मन्त्री पाया। राजा तिलोकचन्द और राजा पृथ्वीसिंह आगे चलते हुए गिरिराजका मार्ग दिखाते थे। पांच कोश की चढ़ाई तय करने पर संघ गिरिराज पर पहुँचा। अच्छे स्थान में डेरा देकर संघपतिने त्रिकोण कुण्डमें स्नान किया। फिर केशरचन्दनके कटोरे और पुष्पमालादि लेकर थुभकी पूजा की। जिनेश्वरकी पूजा सब टुकों पर करनेके बाद समस्त संघ ने कुअरपाल-सोनपालको तिलक करके संघपति पद दिया। यह शुभ यात्रा वैशाख वदि ११ मंगलवारको सानंद हुई। यहां से दक्षिण दिशिमें ज भकग्राम है जहां भगवान महावीरको केवलज्ञान हुआ था। गिरिराज से नीचे उतर कर तलहटी में डेरा दिया, संघपतिने मिश्रीकी परब की। मुकुदपुर आकर पांचवी कड़ाही दी। वर्षा खूब जोरकी हुई । वहांसे अजितपुर आये। राजा पृथ्वीसिंह ने संघ का अच्छा स्वागत किया, संघपति ने भी वस्त्रालंकारादि उत्तम पदार्थोंसे राजा को संतुष्ट किया। राजा ने कहा-यह देश धन्य है जहां बड़ेबड़े संघपति तीर्थयात्राके हेतु पाते हैं, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अबसे जो संघ आवेंगे उनसे मैं आधा दान (कर) लूगा। यहांसे चलकर गुम्मा पाए। राजा तिलोकचन्द को, जिसने मार्ग में अच्छी सेवा की थी सोनाचांदीके मुहररुपये वस्त्रालंकार आदि वस्तुएं प्रचुर परिमाण में दीं। सम्मेतशिखरसे राजगृह १२ योजन है, सातवें दिन संघ राजगृह पहुंचा। यहां बाग बगीचे कुए इत्यादि हैं। राजा श्रेणिक का बनाया हुया गढ और चारों ओर गरम पानीके कुंड सुशोभित हैं। समतल भूमिमें डेरा देकर पहले वेभारगिरि पर चढ़े। यहां मुनिसुव्रत स्वामीके ५२ जिनालय मन्दिर हैं, पद्मप्रभु, नेमिनाथ, चन्द्रप्रभु, पार्श्वनाथ ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनन्दन, महावीरप्रभु, विमलनाथ, सुमतिनाथ और सुपार्श्वनाथ स्वामीकी फूलों से पूजा રહી શ્રી આર્ય કkયાણા ગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AmmmmmmmwaIIIIIIIIIIIIIIIIIIIMALAAAAAAAAAAAAAmwwRIMARIHARANImmmmmmmmmmmmmmmm-[61] की। दूसरे देहरेमें मुनिसुव्रतनाथजी की पूजा की। वीर विहारकी दक्षिण ओर 11 गणधरोंके चरण हैं वहां पूजा की / कई भूमिगृहोंमें कई काउस ग्गिए स्वामी थे। ईसर देहरेके सामने धन्ना-शालिभद्रकी ध्यानस्थ बड़ी प्रतिमाओंकी पूजा करके तलहटीमें उतरे, मिश्रीकी परब दी। गुणशील चैत्य, शालिभद्रका निर्माल्य कूप, रोहणयाकी गुफा आदि स्थान बड़े हर्षोत्साह से देखे। विपुलगिरि पर चतुर्विशति जिनालयके दर्शन किये। अजितनाथ, चन्द्रप्रभु, पार्श्वनाथ और पद्मप्रभके चार मन्दिरों में पूजा की। उसके पास ही जंबू, मेधकुमार, खंधक आदि मुनियों के चरण हैं। तीसरे पहाड़ उदयगिरि पर चौमुख मन्दिर के दर्शन किये। फिर रत्नगिरि पर ऋषभदेव और चौबीस जिनके मन्दिरोंको वंदन कर, स्वर्णगिरिके देवविमान सदृश जिनालयकी पूजा की। राजगृही नगरीमें जिनेश्वरके तीन मन्दिरोंकी पूजा की। संघपति कुअरपालकी राणी अमृतदे और सोनपालकी राणी काश्मीरदे थी सो यहां संघपतिने छठी कड़ाही दी। गांधी वंशके साह जटमल वच्छा हीराने भी सुयश कमाया। राजगृहसे संघ वड़गाम आया। यहां ऋषभ जिनालयके दर्शन किये। शास्त्रप्रसिद्ध नालंदा पाड़ा यही है जहां त्रिशलानंदन महावीर प्रभु ने 14 चोमासे किये थे। यहांसे दक्षिणकी तरफ 1500 तापसोंकी केवलज्ञान-भूमि है, चार कोनोंके चोतरोंमें 2 गौतमपादुका हैं। यहां पूजन कर अनुक्रमसे पटना पहुंचे। सुन्दर बगीचेमें डेरा किया। साह चांपसीने प्रथम कहाड़ी दी, महिमके सेठ उदयकरणने दूसरी, महाराज कल्याणजीने तीसरी, श्री वच्छ भोजा साहा जटमलने चौथी कड़ाही दी, कपूराके पुत्र पचू सचू साहने पांचवी कड़ाही दी, सहिजादपुर निवासी साह सीचाने छठी, तेजमाल बरढ़ीया ने सातवी, लाहीरी साह सुखमल ने आठवीं कड़ाही दी। संघ वहांसे चला। अनुक्रमसे गोमतीके तट पर पहुंचे, स्नान करके भूदेवको दान दिया। जम्मणपुर पाए, डेरा दिया, भूमिगृहकी 41 जिन-प्रतिमाओंका वंदन किया। साह चौथा साह, विमलदास साह रेखाने संघकी भक्ति की। वहांसे मार्गके चैत्योंको वंदन करते हए अयोध्या नगर पहंचे। ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनन्दन, सुमतिनाथ, और अनन्तनाथ तीर्थंकरोंकी कल्याणक भूमिमें पांच थभों का पूजन किया, सातवीं कड़ाही की। अयोध्यासे रत्नपुरी पाए, धर्मनाथ प्रभुको वंदन किया। इस विशाल संघके साथ कितने ही नामांकित व्यक्ति थे जिनमेंसे थोड़े नाम रासकारने निम्नोक्त दिये हैं। संघपति कुअरपालके पुत्र संघराज, चतुर्भुज साह, धनपाल, सुन्दरदास, शूरदास, शिवदास, जेठमल, पदमसी, चम्मासाह, छांगराज, चौधरी दरगू, साह वच्छा हीरा, साह भोजा, राजपाल, सुन्दरदास, साह रेखा, साह श्रीवच्छ, जटमल, ऋषभदास, वर्द्धमान, पचू सच, कटारु, साह ताराचन्द, मेहता वर्द्धन, सुख पंसारी नरसिंह, सोहिल्ला, मेघराज, कल्याण, काल, थानसिंग, ताराचन्द, मुलदास, हांसा, लीलापति इत्यादि। अनुक्रमसे चलते हुए आगरा पहुंचे, सानन्द यात्रा संपन्न कर लौटनेसे सबको अपार हर्ष हुआ। संघपतिने आठवीं कड़ाही की। समस्त साधुनोंको वस्त्रादिसे प्रतिलाभा। याचकों को दो हजार घोड़े और तैतीस हाथी दान दिये। स्थानीय संघने सुन्दर स्वागत कर संघपतिको मोतियोंसे वधाया। सम्राट जहांगीर सम्मानित संघपतिने गजारूढ होकर नगरमें प्रवेश किया। संघपतिने सं. 1657 में शत्रुजयका संघ निकाला, बहुतसी जिनप्रतिमाओं की स्थापना की। बड़े-बड़े जिनालय कराये / सप्तक्षेत्र में द्रव्य व्यय कर चतुर्विध संघ की भक्ति की। बड़े-बड़े धर्मकार्य किये / सं. 1670 में गिरिराज सम्मेतशिखरकी यात्रा संघ सहित की, जिसके वर्णनस्वरूप यह रास कवि जसकीर्ति मुनि ने बनाकर चार खंडों में पूर्ण किया। શ્રી આર્ય કલ્યાણગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ 5