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आत्म-स्वरूप की ओर ले जानेवाले और समाज को संधारण करने वाले विचार एवं प्रवृतियाँ धर्म हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं। कि जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान भौतिक जगत् के नियमों का अनुसन्धान करता है, उसी प्रकार धर्म नैतिक एव तात्विक जगत् के
आन्तरिक नियमों का अन्वेषण करता है। दोनों ही अपने-अपने ढंग से सामाजिक चरित्र के
मनुष्य जगत के लिए मोक्ष का द्वार प्रशस्त करते हैं। अतः जो
प्राणियों को संसार के दुःख से उठा कर उत्तम मुख (वीतराग सुख) नैतिक उत्थान में में धारण करे उसे धर्म कहते हैं । जैनधर्म के दश लक्षणों
संसार के प्राचीनतम धर्मो में जैन धर्म भी एक है। यह विश्व का एक अति प्राचीन तथा स्वतन्त्र धर्म है। यह स्मरणातीत काल से इस
भारतभूमि पर अपना विकास एवं विस्तार कर रहा है। वर्तमान युग को
में भी इसकी प्रासंगिक उपयोगिता ज्यों की त्यों है। जैन-दर्शन में प्रासंगिक उपयोगिता
राग-द्वेष रूप दुर्भावों से उत्पन्न मानसिक अवस्थाओं के उपशमन के लिए दस प्रकार के धर्मों का निरूपण किया गया है। इनका आचरण करने से आत्मा में कर्म का प्रवेश रुक जाता है। ये दस धर्म निम्नलिखित हैं
उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यत्ब्रह्मचर्याणि धर्मः ।
अर्थात्- उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तपत्याग, आकिंचन्य, और ब्रह्मचर्य-ये दस उत्तम धर्म हैं। इन दस धर्मों का सामान्य परिचय इस प्रकार है
(१) उत्तम क्षमा-सहनशीलता अर्थात् क्रोध न करना और साथ -प्रो० चन्द्रशेखर राय
ही उत्पन्न क्रोध को विवेक एवं नम्र भाव से दबा डालना ही उत्तम विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, क्षमा है। दूसरे शब्दों में क्रोध की स्थितियों में भी मन के संयम
को विकृत न होने देना उत्तम क्षमा है, जिस क्षमा से कायरता का बी० एस० एस० कॉलेज,
__बोध हो, आत्मा में दोनता का अनुभव हो, वह थर्म नहीं है, बल्कि बचरी, पीरो, भोजपुर, बिहार क्षमाभास है, दूषण है । मन पर विजय पाना बहुत बड़े साहसी और
वीर पुरुष का कार्य है । शक्ति के अभाव के कारण बदला न लेना क्षमा नहीं है । क्षमा के लिए जीव में निम्नलिखित भावों का होना अनिवार्य बताया गया है
(१) क्रोधोत्पन्न स्थिति में अपने में क्रोध का कारण ढूंढना, (२) क्रोध से होने वाले दोषों का चिन्तन करना,
(३) दूसरे के द्वारा अपमान किए जाने पर नासमझ समझकर बदले की भावना का परित्याग करना ।
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(४) दूसरे के क्रोध को अपने कर्म का परिणाम सत्य का अर्थ है-असत्य का परित्याग । सत्य का समझना एवं
अर्थ सुनृत बताया गया है। सुनृत का अर्थ है(५) क्षमा से उत्पन्न गुणों का विचार करना। वह सत्य जो प्रिय एवं हितकारी हो । उत्तराध्ययन इन सब भावों से सुशोभित क्षमा के द्वारा मन
सूत्र में क्रोध, लोभ, हास्य, भय एवं प्रमाद आदि ॐ) का संयम होता है, अहिंसा की भावना जागृत होती
इन झूठ बोलने के कारणों के मौजद रहने पर भी है । अतः जैनाचार्यों ने इसको उत्तम धर्म की संज्ञा
मन-वचन-काय तथा कृत-कारि प्रदान की है।
कभी भी झूठ न बोलकर सावधानीपूर्वक हितकारी, AL
सार्थक और प्रिय वचनों को ही बोलना सत्य कहा 12 (२) उत्तम मार्दव-मार्दव का अर्थ है-मृदुता, गया है। कोमलता, विनयभाव, मान का त्याग । कुल, रूप, जाति, ऐश्वर्य, विज्ञान, तप, बल और शरीर आदि
इसी प्रकार निरर्थक और अहितकर बोलाकी किचित् विशिष्टता के कारण आत्मस्वरूप को
गया वचन सत्य होने पर भी त्याज्य है। जैनधर्म
दर्शन में सत्य की पांच भावनाओं का उल्लेख किया न भूलना एवं इनका मदन चढ़ने देना ही उत्तम मार्दव है । अहंकार दोष है और स्वाभिमान गुण ।
गया है जो इस प्रकार हैअहंकार में दूसरे का तिरस्कार छिपा है और स्वा- (१) वाणी विवेक, (२) क्रोध त्याग, (३) लोभ भिमान में दूसरे के मान का सम्मान है। अतः त्याग (४) भय त्याग और (५) हास्य त्याग । अभिमान न करना एवं मन में हमेशा मृदुभाव (६) उत्तम संयम-संयम मानवीय जीवन का रखना उत्तम मार्दव के अन्तर्गत आता है। एक अति महत्वपूर्ण प्रत्यय है । सामान्य रूप से मन,
(३) उत्तम आर्जब--मन,वचन और काय की वचन और काय का नियमन करना अर्थात् विचार, कुटिलता को छोडना-उत्तम आर्जव कहलाता है वाणी, गति और स्थिति आदि में सावधानी करना जो विचार हृदय में स्थित है. वही वचन में रखता संयम है। गोम्मटसार में संयम का स्वरूप स्पष्ट है तथा वही बाहर फलता है अर्थात्-शरीर से भी करते हुए बताया गया हैतदनुसार कार्य किया जाता है, यह आर्जव है। व्रतप्तमितिकषायाणां दण्डानां तपेन्द्रियाणां पंचानाम् । दूसरे शब्दों में मायाचारी परिणामों को छोडकर धारणपालन निग्रहत्यागजण: संयमी भणितः ॥ शुद्ध हृदय से चरित्र का पालन करना उत्तम आर्जव अर्थात्-अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील (ब्रह्मधर्म है । जो मन में हो, वही वचन में और तदनु- चर्य),अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों का धारण करना सार ही शरीर की चेष्टा हो, जीवन व्यवहार में ईर्या भाषा एषणा आदान निक्षेपण उत्सर्ग इन एकरूपता हो । इस प्रकार मायाचार का त्याग, पांच समितियों का पालना, क्रोधादि चार कषायों ऋजुता और सरलता ही उत्तम आर्जव धर्म है। का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दण्ड का
(४) उत्तम शौच-सुचिता, पवित्रता, निर्लोभ त्याग करना तथा पाँच इन्द्रियों का जय, इसको वृत्ति, प्रलोभन में नहीं फंसना आदि उत्तम शौच संयम कहते हैं। धर्म माना गया है । लोभादि कषायों का परित्याग जैनाचार्यों ने संयम के निम्नलिखित १७ भेदों कर पाप वृत्तियों में मन न लगाना उत्तम शौच की चर्चा की है- पाँच अव्रतों (हिंसा,झूठ, चोरी, कहलाता है । अर्थात् यह पूर्ण निर्लोभता की स्थिति अब्रह्म और परिग्रह) का त्याग । पांच इन्द्रियों
(स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र और चक्ष ) का निग्रह, (५) उत्तम सत्य-भारतीय दर्शन के अनुसार चार कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) का तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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जय तथा मन, वचन एवं काय की प्रवृत्तियों का रस परित्याग, विविक्त शय्यासन एवं काय-क्लेश त्याग । कहीं-कहीं पर भिन्न-भिन्न तरह के संयम -इस प्रकार 'बाह्य' तप के छः भेद हैं। प्रायके १७ प्रकारों का उल्लेख भी मिलता है, यथा'- श्चिन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और पांच स्थावर और चार त्रस-इन नव के विषय में ध्यान-ये छः भेद आभ्यन्तर तप के हैं। इस तरह संयम, प्रेक्ष्य संयम, उपेक्ष्य संयम, अपद्ध य संयम, तप के कुल १२ भेद हो जाते हैं। इन बारहों प्रकार प्रमृज्य संयम, काय संयम, वाक संयम. मनःसंयम के तपों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैऔर उपकरण संयम । डॉ० सागरमल जैन के अनु- अनशन-सब प्रकार के आहारों का परित्याग सार जैन और गीता के आचार-दर्शन संयम के करना अनशन तप कहलाता है। इसके दो भेद हैं प्रत्यय को मुक्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। -इत्वरिक और यावत्कथित । संयम का अर्थ है-मर्यादित या नियमपूर्वक जीवन, अवमौदर्य-अपनी भूख से कम आहार ग्रहण संयम और मानव-जीवन ऐसे घुले-मिले तथ्य हैं कि करना अवमौदर्य तप या ऊनोदरी तप कहलाता उनसे परे सुव्यवस्थित जीवन की कल्पना नहीं की है। जा सकती।
वृति-परिसंख्यान -विविध वस्तुओं में कम ___यों सभी मर्यादाओं का पालन करना संयम लालच रखना वृत्ति-परिसंख्यान तप कहलाता है। नहीं है लेकिन मर्यादाओं का पालन स्वेच्छा से रसपरित्याग-घतादि विशेष पौष्टिक एवं मद्यादि किया जाता है तो उनके पीछे अव्यक्तरूप में संयम विकारी वस्तुओं का त्याग तथा मिष्टादि रसों का का भाव निहित रहता है। सामान्यतया वे ही मर्या- नियमन करना रस परित्याग तप कहलाता है। दाए संयम कहलाती हैं जिनके द्वारा व्यक्ति आत्म- विविक्त-शय्यासन-बाधा रहित एकान्त स्थान विकास और परमसाध्य की प्राप्ति करता है।
में वास करना विविक्त-शय्यासन तप कहलाता (७) उत्तम तप-मलिन वृत्तियों को निमल है। करने के उद्देश्य से अपेक्षित शक्ति की साधना के
कायक्लेश-ठण्ड, गर्मी, वर्षा आदि बाधाओं लिये किया जाने वाला आत्मदमन उत्तम तप है। को सहना एवं विविध आसनादि द्वारा कष्ट सहन दूसरे शब्दों में कर्मक्षय के लिये तथा समचित करने को काय-क्लेश तप कहा जाता है। आध्यात्मिक बल की साधना के लिए जीव को जिन प्रायश्चित्त-दोष की विशुद्धि के लिए जो क्रिया उपायों का सहारा लेना पड़ता है-वे सब तप की जाती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। इसके निम्नकहलाते हैं। इसके मुख्यतः दो भेद हैं-(१) बाह्य लिखित नो भेद किये हैं-(१) आलोचन (२) प्रतितप और (२) आभ्यन्तर तप । पुनः इन दोनों क्रमण (३) तदुभय (४) विवेक (५)व्युत्सर्ग (६) तप प्रकार के तपों के ६, ६ प्रकार बताये गये हैं, (७) छेद (८) परिहार (8) उपस्थापन ।11 यथा
विनय-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार की अनशनावमौदर्यव तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त
साधना में विशेष रूप से प्रवृत्त होना विनय तप कहशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ।"
लाता है। इसके भी यथाक्रम से चार भेद है-ज्ञान,
दर्शन, चारित्र और उपचार ।। प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्याना
वयावृत्य-सत्पुरुषों के दुःख-दों को दूर न्युत्त रम ।10
करने के लिए सेवा आदि करना वैयावृत्य तप कह___ अर्थात्---अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, लाता है। इसके भी दस भेद बतलाए गए हैं१६६
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आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, निग्रह के भाव का भी अन्तर्भाव होता है। वस्तुतः । संघ, साधु और समनोज्ञ की वैयावृत्य ।
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य वीर्य की रक्षा करना है। वीर्य स्वाध्याय-उचित समय एवं परिस्थितियों में की रक्षा करने के लिए बहत बड़े संयम की आवअध्ययन करने को स्वाध्याय तप कहते हैं। जैना- श्यकता पड़ती है, अतः जैनाचार्यों ने इसे उत्तम तप चार्यों ने इसके निम्नलिखित पाँच भेदों की कल्पना कहा है। इसका आवश्यक रूप से जीवन में आचकी है-(१) वाचना (२) प्रच्छना (३) अनुप्रेक्षा रण करने के लिए पाँच महाव्रतों में स्थान दिया | (४) आम्नाय (५) धर्मोपदेश ।
गया है तथा दश धर्मों में इसे उत्तम धर्म की संज्ञा व्युत्सर्ग-गृह, धनादि बाह्य उपाधियों तथा दी गई है। कुंदकुंदाचार्य ने ब्रह्मचर्य को उत्तम धर्म क्रोधादि अंतरंग उपाधियों का त्याग करना
मानकर इसका निम्नलिखित स्वरूप स्पष्ट किया तप कहलाता है । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से इसके भी दो भेद माने गए हैं।
सव्वंग पेच्छतो इत्थीणं तासु भुयदि दुव्भावम् । (८) उत्तम त्याग-दान देना, त्याग की
सो ब्रह्मचर्य भाव सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ॥12 भूमिका पर आना, शक्त्यानुसार भूखों की भोजन, अर्थात् जो स्त्रियों के सारे सुन्दर अंगों को देख रोगी को औषधि, अज्ञान निवृत्ति के लिए ज्ञान के कर उनमें रागरूप दुर्भाव करना छोड़ देता है, वही साधन जुटाना और प्राणीमात्र को अभय देना, दुर्द्ध र ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करता है। देश और समाज के लिए तन-मन आदि का त्याग
पद्मनन्दि पंचबिशतिका में कहा गया हैआदि उत्तम त्याग के अन्तर्गत माना जाता है । समस्त पर-द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और
आत्मा ब्रह्म विविक्त बोधनिलयो च तत्र चर्मपर, स्वांगा भोगों से उदासीन रहकर सत्पुरुषों की सेवा करना
संग-विवजितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्य मुनेः 113 ही उत्तम त्याग माना गया है । लाभ, पूजा और
अर्थात् ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप ख्याति आदि से किया जाने वाला त्याग या दान
आत्मा है। उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मउत्तम त्याग नहीं है।
चर्य है। जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी (8) उत्तम आकिंचन्य-आंतरिक विभाव तथा
सम्बन्ध में निर्ममत्व हो चुका है, उसी को ब्रह्मचर्य ) वाह्य पदार्थों में ममत्व का त्याग उत्तम आकिंचन्य
होता है। कहलाता है। धन-धान्य आदि बाह्य परिग्रह तथा जैनाचार्यों के अनुसार ब्रह्मचर्य के नव अंग हैंशरीर में यह मेरा नहीं है,आत्मा का धन तो उसके (१) स्त्रियों का संसर्ग न करना (२) स्त्री कथा न चैतन्य आदि गुण हैं। 'नास्ति मे किंचन' मेरा कुछ करना, (३) स्त्रियों के स्थान का सेवन न करना, नहीं है, आदि भावनायें आकिंचन्य हैं।
(1) स्त्रियों के मनोहर अंगों को न देखना, न ध्यान भौतिकता से हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि देना, (५) कामोद्दीपक भोजन न करना, (६) प्राप्त करना आकिचन्य धर्म है। दसरे शब्दों में आहार-पान मात्रा से अधिक न करना, (७) पूर्वकिसी भी वस्तु में ममत्व बुद्धि न रखना उत्तम कृत कामक्रीड़ा का स्मरण न करना, (८) स्त्रियों के आकिंचत्य है।
शब्द, रूप व सौभाग्य की सराहना न करना और (१०)उत्तम ब्रह्मचर्य-अध्यात्म-मार्ग में ब्रह्माचर्य (६) इन्द्रिय सुखों की अभिलाषा न करना। को सर्वप्रधान माना जाता है क्योंकि ब्रह्म में रम उपर्युक्त दस धर्म आत्मा के लिए कल्याणणता वास्तविक ब्रह्मचर्य है । इसके अन्तर्गत क्रोधादि कारक माने गये हैं तथा उनके साथ 'उत्तम' विशे
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________________ षण का प्रयोग इष्ट प्रयोजन की निवृत्ति के अर्थ में आज दुनिया मे सौ में निन्यानवे अपराधी घट-६ किया गया है।14 नाओं का कारण अर्थ या काम होता है / अदना-सी ___ ख्याति और पूजा आदि की भावना की निवृत्ति बात पर कौड़ी तक का मूल्य नहीं रखने वाली के अर्थ में उत्तम विशेषण दिया गया है / 15 अर्थात् चीजों के लिए भी लोग हिंसा पर उतारू हो जाते , ख्याति पूजादि के अभिप्राय से ग्रहण की गई क्षमादि हैं, मनुष्य ही मनुष्य की जान का ग्राहक बन गया उत्तम नहीं है। है। इन मलिन वत्तियों का विनाश आज भी उत्तम ___ जहाँ तक सामाजिक चरित्र के नैतिक उत्थान तप और ब्रह्मचर्य नामक धर्म से किया जा में जैन धर्म के उपर्युक्त दस लक्षणों की प्रासंगिक सकता है। | उपयोगिता का प्रश्न है, इस बात से कोई इन्कार समाज में व्याप्त भखमरी, रोग, अज्ञान की नहीं कर सकता कि धर्म का एक पहलू सामाजिक निवत्ति उत्तम त्याग के द्वारा ही सम्भव है। वास्तचरित्र के नैतिक उत्थान भी रहा है। सामाजिक विक आनन्द शारीरिक सुखों में या भौतिक सुविनैतिकता के मूल्य जब-जब विस्थापित हए हैं, शासनालों धाओं के अनन्त साधनों को एकत्रित करने में नहीं अमानवीय व्यवहारों की प्रचुरता बढ़ी है तब-तब मिलता। इसकी प्राप्ति मोहमाया के बीच सम्भव उसे धर्म के द्वारा ही मर्यादित किया गया है। नहीं है। भोगतृप्ति राह के प्रत्येक पोड़ पर मनुष्य आज भी जैन धर्म के दसों लक्षणों की उपयोगिता ठगा जाता है। शाश्वत आनन्द की प्राप्ति भौति ज्यों की त्यों बनी हुई है, क्योंकि आज समाज में कता से हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिपात करने - आतंकवाद, बलात्कार, चोरी, डकैती, लूटपाट तथा किसी वस्तु में ममत्व बुद्धि न रखते हुए उत्तम ON आदि दुर्गुणों से नैतिक मूल्यों का प्रायः ह्रास हो आकिंचन्य धर्म-पालन करने में ही है। गया है जिसकी पुनर्स्थापना जैन धर्माचरण से ही सम्भव है। टिप्पण-सन्दर्भ __ आज के मनुष्य क्रोधी, दम्भी, घमंडी, झूठ 1. जैन दर्शन--डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ-२३६ बोलने वाले हो गये हैं। क्षमाधर्म के द्वारा क्रोध को 2. महापुराण-२३७ बहुत हद तक समाप्त किया जा सकता है। क्रोध 3. तत्त्वार्थ सूत्र-६/६ O) के शमन से समाज के बहुत से दोष स्वतः निराश्रित 4. उत्तराध्ययन सूत्र-२५/२४ हो जाते हैं। अहिंसा की भावना जागृत होती है 5. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा-४६५ तथा समाज में कोढ़ के रूप में व्याप्त आतंकवाद 6. पं० सुखलाल संघवी-त० सू० टीका, पृष्ठ 305 स्वतः समाप्त हो जाता है। अभिमान का त्याग 7. वही कर उत्तम मार्दव धर्म के द्वारा आसानी से समाज 8. देखें जैन धर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. में मृदुता कोमलता विनम्रता आदि भावों का प्रसार 61-65 | किया जा सकता है। आज समाज में दोहरे व्यक्ति- 6. तत्त्वार्थ-सूत्र 6/16 त्व जीने वालों की संख्या बढ़ रही है जिससे समाज 10. तत्त्वार्थ सूत्र-६/२० में शंका एवं सन्देह का बोलवाला होता जा रहा 11. तत्त्वार्थ सूत्र-६/२२ | है। एक-दूसरे पर विश्वास करना अत्यन्त कठिन 12. बारस अणुवेक्खा-८० हो गया है / इस दोष का निरसन आर्जव धर्म से ही 13. प० वि०-१२/२ सम्भव है। इसी प्रकार समाज में बढ़ती हुई लोभ 14. सर्वार्थसिद्धि-६/६ प्रवृत्ति, असत्य भाषण, असंयम का परिहार क्रमशः 15. चारित्र सार-५८/१ शौच, सत्य और संयम से ही सम्भव है। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private Personal use only