Book Title: Sagarotpatti
Author(s): Suryamal Maharaj
Publisher: Naubatrai Badaliya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Foddddddloddod सागरोत्पत्ति ॥ श्री॥ OOOOOOOOOOOOOOOOOOOO. पूर्वाचार्य विरचित तपागच्छ विवेचनाका संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद। अनुवादक - खरतरगच्छीय - यति श्री सूर्यमलजी महाराज। प्रकाशक श्रीयुत नौबतराय बदलिया। मन्त्री–जैन प्राचीन इतिहास प्रचारक समिति ३१, बांसतल्ला गली, बड़ाबाजार, कलकत्ता। सन् १९२६ ई० वीर सं० २४५५ २आना ME090991 9-0000000000002 For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपसंहार | माननीय महोदयो बहुत दिनोंसे जैन समाजमें तपागच्छीय विषयको ले कर नाना प्रकारका वादविवाद फैला हुआ है । परन्तु शोकका विषय है कि अद्यावधि इस समाजके किसीभी माननीय सज्जनने इस वादविवादको इति श्री करनेकी प्राणपण से चेष्टा नहीं की है। परन्तु, विवादको और भो प्रज्वलित करनाही अपना पाण्डित्य तथा वीरत्व समझा है। इस प्रकार अग्निमें घृताहुति प्रदान करनेवाली कहावत चरितार्थ कर शान्ति स्थापित जैन समाज में पुनः उत्पात खड़ा करके जनतामें विद्रोह फैलाने की पूर्ण चेष्टा की गई हैं। समझमें नहीं आता कि जैन समाजको विद्रोहावस्था में देख कर इन रजनीके लालों को क्या आनन्द प्राप्त होता है ? चार शताब्दि पूर्ण धर्म सागर नामक किसी एक अन्य व्यक्तिने खण्डनात्मक साहित्य प्रकाशित करके शान्ति स्थापित जैन समाज में प्रज्वलित विरोधाग्नि फैलाने की पूर्ण चेष्टा की थी। परन्तु उस समय किसी सुयोग्य व्यक्तिने इस दुराग्रही धर्म सागरके खण्डनात्मक साहित्यको जल शरण कराया और समाज में पुनः शान्ति स्थापित की। खण्डनात्मक साहित्य प्रकाशित करनेके प्रायश्चित स्वरुप उस ( धर्मसागरको) तपागच्छसे बहिष्कृत भी कर दिया गया । For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आज भी उसी की परम्परानुगत पीताम्बर आनन्द सागर नामधारी उसी विवाद को पुनः जैन समाजमें प्रकाशित कर अपनी योग्यता तथा पाण्डित्य का परिचय देकर सुशुप्तावस्था के समुद्र के आनन्दमें मग्न हो रहा है । आपने (क) इर्या पथिकी षट् . त्रि शिका (स्व) नवपद लघुवृति तथा (ग) नवपद बृहद्वृति नामक तीन ग्रन्थोंको प्रकाशित कराया है। परन्तु शोकका विषय है कि अद्यावधि तपागच्छीय सम्प्रदाय वालों से किसी भी सजनने उनके इस कुत्सितकार्य की समालोचना नहीं की है। इस से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि समस्त तपागच्छीय सम्प्रदाय आनन्द सागर के इस कुतसित कार्य में सहानुभूति प्रकट करता है। इन्ही कई कारणोंसे मुझे इन ग्रन्थों के प्रतिकूल ( विरुद्ध ) आवाज़ उठानी पड़ी। इस कार्य को पूतिके लिये मुझे अनेकों ऐसे प्राचीन ग्रन्थोंका अनुसन्धान करना पड़ा है जिसमें तपागच्छीय सम्प्रदायकी पूर्ण खण्डनात्मक आलोचना करनेकी सामग्री एकत्रित की गई है। इस अवसर पर मैं अपनी हार्दिक अभिलाषा पाठकोंके सामने प्रगट कर देना उचित समझता हूँ कि अनवरत परिश्रम करके प्राचीन खंडनात्मकग्रन्थों का अनुसन्धान करने पर भी मैं नहीं चाहता था कि इन ग्रन्थो को प्रकाशित कराऊ। इसीलिये, मैने आगमोदय समिति जैन कान्फरेन्स. अानन्दजी कल्याणजी के कार्यकर्ता गण श्री वल्लभ विजय जी तथा कान्ति बिजय जी आदि साधुवर्ग For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचार पत्रों द्वारा इन ग्रन्थोंके प्रकाशित करने की सूचना भी दे दी है तथा इनके खडनात्मक ग्रन्थोंका सैकड़ों स्थानों तथा नगरो से बहिष्कार भी कराया है। परन्तु, आज तक तपागच्छवाले कानमें तेल डाले अपनी डफली अलगही बजा रहे हैं। अतएव, मुझे लाचार होकर "आनन्द सागरके व्याकरण की पोल" नामक एक लघुपुस्तिका निकालनी पड़ी। पाठकगणों को तपागच्छोय संघ की परम्परा तथा इनके घर घरमें विद्रोह का नमूना और इनके वाह्याडम्बर का आदर्श प्रदर्शित करनेके लिए मैंने फिर भी "सागरोत्पत्तिकी पोल नामक प्राचीन पुस्तकका अनु. वादकर प्रकाशित करानेका प्रयत्न किया हैं। यह पुस्तक पाठक बृन्दों को दर्पणवत साफ़ २ प्रत्यक्षीभूत (प्रकाशित) करा देगी कि तपागच्छयाले किस प्रकार अपने योग्य एवं पूज्य पुरुषों का पूर्व से ही आदर सत्कार अपशब्दों ( गालियों ) तथा लान्छनाओंसे करते आ रहे हैं। अर्थात् अपशब्दोच्चारण इनकी वंश परम्पराका अभ्यास हैं । यदि आजकल इनके मुखसे किसी आचार्य के प्रति अपशब्द ( गालियां ) निकलते हैं तो कोई बड़ी आश्चर्य की बात नहीं हैं। __ सारांश यह है कि मैंने इस प्राचीन ग्रन्य का हिन्दो रुपान्तर करने का साहस काल दो कारणोंसे किया है। प्रथम, तपागच्छोय संघ तथा सागर शाखाके अनुरक्त भक्त, अमावस्याके चन्द्रवत् देदीप्यमान, मूकबाचस्पति श्रोसागरानन्दजोको सूचित करना For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है कि अब भी वे इस बृद्धावस्था में सुमार्गका अनुसरण कर यावत्जीवन जैन समाज की कुछ सेवा कर शान्ति स्थापित करें और यशके पात्र वने। अन्यथा, उनके द्वेषाग्निरूपी ज्वरको शान्त करनेके लिये मेरे पास प्राचीन ग्रन्थों से प्राप्त सामग्री रूपी कुनैन की गोलियां भरी पड़ी हैं। तुरन्त ही उनका ज्वर शान्त कर दिया जायगा और उनके कुकृत्योंके कारण उन्हे गच्छले वहिष्कृत कर देनेकी भी नौवत आ जायगी। द्वितोयतः पाठक तथा जनतासे अनुरोध करना है कि वे इस पुस्तकको ध्यान पूर्वक, दत्त वित्त, होकर पढ़े और सागरियों कि गुरु परम्परासे भिज्ञ होकर और उनके कुकृत्योंको समझ कर उनके चङ्गली से सवेदा वचने की चेष्टा करते रहे। ___ इन्ही दो कारणोंसे मैंने इस पुस्तको लिखा है। तथा पाठ कवृन्द को इससे कुछ भी फायदा होता हुआ सनगा तो पुन: उनको सेवामें तीसरा पुष्य शीघ्रही भेंट चढ़ाऊंगा। सूर्यमल यति । For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सागरोत्पत्ति जिनां श्री पार्श्वनाथश्च पार्श्व यक्षेन सेवितम् । नत्वा तपा मतोन्यत्तिः सम्मग्रीत्या मयोच्यते ॥१ भो भो चांडालिका लोके यथा दृष्ट' यथा श्रुतम् । तथैव लिख्यते चात्र मम दोषो न दीयताम् ॥२ पुरा किला अवश्चैत्य वासीवे मठधारकः मणिरत्ना भिधा चार्यः स्तम्भनाख्यौं पुरे वरे ॥३ एकदा मणिरत्नेन जगच्चन्द्रा भिधोर्भकः । त्रिशतै रूप्पकः कृतो विजाति विधवात्मनः ॥४ शिष्यत्व मगमत्तस्य सततं यतिभिः समम् । राटिं करोति: दुर्मेधा शिक्षितोपि न मुञ्चति ॥५ खिन्नेन मणिरत्नेन स्वगणात्सबहिष्कृतः क्रोधाध्मातो गण त्यक्त्वा हंपदेन विनिर्ययो॥६ स्वगुरून दूषयं श्वान्यान् वक्वृत्ति पधारयन् । निन्दकत्वात्स सर्वेषां धिकपात्र दुर्जनोऽजनि ७ तेनाथो च्छिष्ट चाण्डालो सेविता गत्य सावदत् । भोयावत्वप्रकुर्वीथाः तव शिष्याश्व वा यदा ।।८ सन्मार्ग निन्दनं लोके उन्मार्गस्य प्रवर्तनम् । सत्संघ खण्डनचैव तव सिद्धिर्भविष्यति ॥ ६ इति तस्मै वरंदन्त्वा साजगाम तत : परम् । चांडाली मत्त सम्पन्नः सप्रसिद्धिंगतो भृशम् ॥१० For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चांडालीक प्रभावेण स्तम्भने कतिचिजनान । व्युग्रन मूखीश्च पक्षेऽस्मिन् कृत्वा सूरिर्वभूवह ॥११ कदाचिद्गुर्जरे देशे शिष्यैः सह जगामसः । उत्सूत्र कथयन्नास्ते स्वमतस्याभि वृद्धये ॥१२ तत्रत्य गमचन्द्रादि संघेनाहूय कीर्तितः । वादकतु सभामध्ये तथापि नागतः खलः ॥१३ शिक्षा संघस्य दुर्बुद्धिः नजग्राह ततः परम् । ताड़ितोऽपि न नत्याज स्वीयंमूढो दुराग्रहम् ॥६४ वहिष्कृतं करिष्यामः शीघ्रमस्मादिमंखलम् । इति वार्ता ततः श्रुत्वा भयभोतोऽभवत्तदा ॥१५ स्वतुल्यं गुरु द्रोग्धारं वालचन्द्र विचार्यसः । सम> निशि संघते द्रुतं रात्रौपलायितः ॥१६ समारुह्यौष्ट्रिकयानं शोघ्र सस्तम्भने गतः । पत्तनादहमित्येवं लोकानां पुरतो वदत् ॥१७ तदानीं कल्पिता लोका ज्ञात्वातद्वचनं ततः । जनरूचे भवामत्र त्वेकाकीकथमागत ॥१८ सम्भाव्योपद्रव कश्चि दौट्रिके न समागतः । गुजरादह मित्येव लोकानां पुरतोवदत् ॥१६ तद्वाक्यं कल्पितं लोका ज्ञात्वा प्रोचुस्तदा ततः । औष्ट्रिकोयं भवेदस्य शिष्य वा औष्ट्रिकामता ॥२० जगञ्चन्द्रोथ तच्छिष्या तद्वता ग्रथिता इव । कद्ध वा राटि प्रचस्क्रुतैः तपा संतापदायतः ॥२१ For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औष्ट्रिकेनापियुक्तते तपौष्टिक पदांकिताः । तत आरम्य नाम्नाते तपा गच्छीय संघकाः ॥२२ तपधातुस्तु संतापे तापयन्ति जनान् यतः। परूष्यवचनैनित्य मतस्त्विमें तपा:स्मृताः ॥२३ वाह्यक्रियां दर्शयन्तो मोहयन्तो जगज्जनान् । तपोभूता अटन्तीनि तपोटा: प्रकीर्तिताः ॥२४ सेवितोच्छिस्ट चांडाली देवो प्राप्त वरेणते। क्रोधाग्नि ध्मात चिन्तत्वा त्लोके चांडालिका मताः ॥२५ अज्ञान तपसा युक्ताः क्रोधादण लोचनाः। औष्ट्रिके न प्रसिद्धत्वा देतेत्वौष्ट्रिक तापसाः ॥२६ गते बहुतिथे काले तपस्या करणाद्वयं । तपा इति प्रसिद्धास्मः कथ्यन्ते तस्य शिष्यकैः ॥२७ देवेन्द्र क्षेम काादि सुरिभिस्तस्य शिष्यकैः । तपा नामेति नाळेखि ग्रन्थेस्व रचित कचित् ॥२८ अतो बुधानु जानन्तु तपानाम्नोनि रुक्तिकम् । अलेखा च्छिष्य वर्गाणां ता नम्नि विवादताम् ॥२६ पाक्षिका दिषु वाच्याथ मत्कृतापूज्य संस्तुतिाः । त्वयेति वाल चन्द्रण वचः पालायनक्षण'ऽ ॥३० तदानी वालचन्द्रस्तुतिभी रक्षितो रहः । परन्तु गुरुवाक्यं तत् पालयामास नो यदा ॥३१ मृतश्च व्यन्तरो भूत्वा गुर्वाज्ञाया अपाल नात् । सतत्संघ मुपद्रोतु प्रवृतोथ दिने दिने ॥३२ For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४ ) ज्ञात्वा व्यति करतस्य ते नाथ पाक्षिका दिए । स्नातस्था सकलार्हतत् स्थापितं विघ्न शान्तये || ३ ३ अद्यापि तद्मये नैव भणन्ति पाक्षिका दिषु । स्नातस्या कलाक' चाण्डालिक मतानुगाः ॥ ३४ ततोनु प्रथिता लोके तद्दिनोस्तत् कृतास्तुतिः । तन्मते द्विना नैव पाक्षिका दिषु कल्पते ॥ ३५ अथैकदा जगच्छन्द्रः चित्रकूटे पुरे गतः । सन्ति दिगम्बराचाय्र्याः विद्याश्रुत बलोजि ताः ॥ ३६ किञ्चिज्जत्व मदालीढः तत्रापि मत्पुष्टये । जगच्छन्द्रः समन्तैश्च विवादायतूपस्थितः ॥ ३७ पराजितो भवेच्छिष्यः स्वथवा स्मिन्पुरेऽखिले । गर्दभेतं समारोप्य भ्रामयेदभवत्पणः ॥ ३८ विवादे जायमानेथ विदुषामग्रत स्तदा । अचेल सत्कल्पेन प्रश्नोंत्तर विचारणे ॥ ३६ पराभूतो जगच्छन्द्रः तैं दिगम्बर सूरिभिः । तथापि ना भवच्छिष्यः दुर्मतिस्तु तदा ततः ॥ ४० श्वेताम्वरीय संघेन तत्रत्येन तपौनिकः । वराकः संघवाह्यत्वात् निन्दत्वादुपेक्षितः । ४१ दिगम्बरीय संघेन ततश्चा रोप्य गद्दभे । विदुषामनुमत्याच भ्रामितो सौ पुरे खिले ॥ ४२ जगच्छन्द्राय विद्वद्भिः गर्दा भो विरुदोददे । ततः श्याम मुखो भूय गतो सौ स्तम्भने पुरे ॥ ४३ For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वात्मोत्कर्ष स्वभक्तान। दर्शयन्स ननई वै। जित्वा दिगम्बरान प्राप्तो विरुदो गर्द भो मया ॥ ४४ जानन्तोऽपि वयः सत्य मन्यन्ते तन्मतानुगा। स्वमातुर्गर्भदोषेण मिथ्या भाषीत्व जायत ॥ ४५ स्वात्मना खिन्न मनसा समोपं स्त्र गुरोर्ययो। परं दुनियत्वान्सः गुरूणापिन रक्षितः ॥ ४६ ततः श्च वस्तु पालेन समं मैत्रींचकारसः। विधवा गर्भ जातेन वस्तु पालेन सज्जनाः ॥ ४७ व्यवहारन्न कुर्वन्ति षणिजा शङ्करेणते । वस्तु पालं क्शेकृत्य तद्दत्त दान द्रव्यतः ॥ ४२ अन्यान बहून् वशे कृत्य स्थापया मास संघकम् । ततो दशा विशेत्येव वणिक जाति द्विधाभवत् ॥ ४६ नदा महा बिरोधोभूत् वणिगजातौ परस्परम् । जगच्छन्द्राय लोकोथ शांकर विरुदं ददौ ॥ ५० तथापि स्व स्वभावेन काकबन्नहि मुश्चति । श्री चैत्रवाल गच्छीयो विहरं स्तत्र त्वागत; ॥५१ क्रियावान् श्रुत सम्पन्नों देवभद्राख्य पाठकः ॥ ५२ तद्विरुदापनोंदार्थं संगृहीत्वोपसं पदम् ॥ ५३ शिष्यत्वमगम तस्य बस्तु पालो परोधतः । गुर्वावल्यां कृतायाञ्च मुनिसुन्दर सूरिणा ॥ ५४ प्रोक्तातेन गृहिताचोपसम्पत्तत्समीपतः ॥ ५५ अथ चैत्र पुरे वीर प्रतिष्ठा कृद्धनेश्वरः। चैत्रगच्छ भवत्सरि तस्मात्चैत्र गणि भवति ॥५७ For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालाद्भुवन चन्द्राह्वः तत्र जज्ञो गुरुगुणी। शुद्ध संयम धी स्तस्य देवभद्रश्च वाचकः ॥ ५७ श्रीदेव भद्राविधवच केन्द्रात जातो जगच्छन्द्र गुरू प्रबुद्धः । अथोप सम्पद्विधिना प्रपद्य सतद्वितीयो धुरमस्यदधौ ॥ ५८ विजयेन्द्राख्य देवेन्द्रौ द्वौशिष्योच बभूवतुः । आभ्यां द्वाभ्याञ्च शिष्याभ्यांबहवः साय कृताः ॥ ५६ श्री वृहत्कल्प टीकाया प्रशस्तौ कथितास्त्रयः । देव भद्रस्य शिष्यास्ते श्रीक्षेम कीर्ति सूरयः ॥ ६० श्री जैन शासन नभस्तल तिग्म रश्मिः श्रीपद्म चन्द्र कुल पद्म प्रसिद्ध नामास स्वज्योतिराब त दिगम्बरो दुबरो भूत् श्रीमान धनेश्वर गुरुः प्रथितोहि लोके ॥ ६१ श्री मच्चैत्र पुरैक मण्डन महा वीर प्रतिष्ठा करः तस्माच्चैत्रपुर प्रबोध तरणिः श्री चैत्र गच्छो भवत् तत्र भुवने, सूरि गुरवः भू भूषण' भासुराः ज्यौति संवृतज्ञान युत सुधियः सन्मार्ग संचाल का ॥६२ ज्योतिः सद्गुण रत्न रोहण गिरिः कालेन नीताइमे एषां सद्गुरुरेव शास्त्र कुशलः श्री देवभद्रो गुरुः शुद्धः स यमवान् चरित्र कुशल ख्यातोयतिः सद्गुणी तैरेबाथ समस्त ज्ञानि यतयः संधारस्वके निर्मिताः ॥६३ तस्याथ मिष्याः प्रथिताहि लोके त्रयो वभबुर्जित काम दोषाः आद्यो जगच्चन्द्र प्रसिद्ध नामाः देवेन्द्र सरिस्त्वपरोथ जातः ।। ६४ For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७ ) तृतीय एषां विजयेन्दु सूरिः येषां यशोभिघवली कृतादिक एषां प्रतिष्ठा बिजयोथ कीर्तिः श्रीः संयमः सद्गुण ज्योतिरुग्रग्रम् ॥ ६५ तेजोथ विद्या जगति प्रसिद्धा एभ्यश्च देवाः प्रददुः स्वतेज: स्थैर्य श्वमेरुर्जलधिर्ग भीरं रुपञ्चभानुः क्षमतां क्षितिर्वै ॥ ६६ यैरप्रमत्तश्शुभ मन्त्र जापैः, वैतालमाधाय कृतं स्ववश्यम् । अतुल्य कल्याण मयोत्तमार्थः सत्पुरुषः सत्व मयस्त्व साधि ॥ ६७ तेषां प्रसिद्धो बिजयेन्दु सूरिः, बभूव लोके प्रथितो महत्मा । यद्दत्त हस्ताय करावलम्बाः, शिष्यास्त्रयो विभ्रति गच्छ भारम् ॥ ६८ · श्री बज्र सेनो यति पद्म चन्द्रः श्री क्षेम कीर्तिस्तु तृतीय एषाम् । सविज्ञ वय बृत्ति कल्प ग्रन्थ चकार 'लोकस्य हिताय सूरिः ॥६६ श्री विक्रमान्नेत्र कृशानु वह्नि, क्षितिमिते वर्ष मयेऽद्ध ज्येष्ठ शुक्ले दशम्यां करपयुक्त, मानौ वारे कृतस्तेन सवृत्तिकल्पः ॥ ७० देवेन्द्र सरिणाप्येवं विद्यमानेन तत्क्षणो । श्री धर्म रत्न टीकायाः प्रशस्तौ जल्पितं पुनः ॥ ७१ जातः क्रमाचं त्रक बालगच्छ ः श्रीचन्द्रसूरिभुर्वना दिरेषः For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) समस्त संसार हिताय यस्य, तेजोथ लोकेतुदित वभूव ॥७२ 'बिनेयकस्तस्य शमैक वृत्तिः, श्री देवभद्रो गणिरेष पूज्यः। । सस्वर्ण वर्णो विदितोनुलोके, यतिमहात्मा शुविशुद्धोताः ॥ ७३ तत्पाद पद्माळून शुद्धचेताः, सुशुद्धवोधाजित संग दोषा। जन्ति लोकेथ जगत्प्रसिद्धा श्री श्री जगञ्चन्द्र यतिप्रवोरा ॥ ४ तेषां विनेयौ यति पूज्यवय्यौं, देवेन्द्रसरि प्रथमश्च तत्र । श्री चन्द्र सूरिविजयादिनामा, द्वौपूज्यवण प्रथितौहि लोके ॥७५ स्वान्ययोरुपकाराय. श्री महेवेन्द्र सूरिणा । धर्मरत्नस्य टीकेयं सुखबोधा विनिर्ममे ॥ ७६ श्री क्षेमकीर्ति सूरिभिः कथयित्वा परस्परं । दर्शयद्भिर्यतीशैस्तैः विद्यमाने श्वतत्क्षणे ॥ ७७ श्री चैत्र वाल गच्छीयो जगच्चन्द्रः प्रकीर्तितः ! गुरुस्तुदेवभद्राख्यो, वाचकोन्योन कीर्तितः ॥ ७८ मुनिः सुन्दर सूरिभिः, पश्चात्यौः स रिभिः पुनः । स्वकल्पित पटा वल्या मित्यां लिखित मस्तिव ॥ ७६ मुनीन्द्र गच्छे जनिता, यतीशाः देवेन्द्र सूरिबिजयेन्दुस रिः। श्री देवभद्रश्च किलामी भूषा, स्वरूप रूपा यतिपूज्य वर्यः ॥ ८० श्री देवभद्रो गणिराज राज्ये मान बहन् लोक प्रसिद्धकीतिः। सविज्ञ वय' सपरिच्छदस्सः गुरु जगच्चंद्र यति सभेजे ॥ ८१ अत्र पश्चान्त्यकालोनः सूरिभि स्तुतपा गणः। जगच्चंद्रो गुरुदेव भद्रादीनां प्रकलपितः ॥ १२ पुनस्त रेव कथ्यते नगचंद्राख्य सूरयः । उपस पद्गृही त्वात, देव भद्रस्यशिष्यकाः ।। ८३ For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६) पुनस्तैगुरुराख्यातो जगच्चंद्रो यतीश्वरः । प्रोक्तः कथ भवेच्छिष्य उपसम्पत् प्रदायकः ॥ ८४ कश्चित्पुनः प्रजल्याक रित्युक्त व चकारसः । जगच्चंद्रः क्रियोद्धारं देव भद्रोप देशतः ॥ ८५ यथा ब्रह्मा द्विजः पूज्यः द्विजः पूज्याश्च ब्रह्मणा । तथा चास्तु गुरोशिष्ये शिष्यस्यास्तु गुरोवपि ॥ ८६. श्री चैत्रबाल गच्छीयं देव भद्र गुरु पुनः । निह्न बन्तेहि पाश्चान्त्याः जगच्चंद्रस्य शिष्यका ॥ ८७ कि' सत्यं किमसत्यंवा, परं पूर्व' न निर्णितम् । निर्णयस्तु बुधैः कार्य्यः सत्या सत्य विवेकिभिः ॥ ८८. अथ प्रान्ते जगच्चंद्रः सूरिः स्वशिष्य वर्ग कम् । गुरु भ्रात्र देवेन्द्राय समर्प्य सोगमद्दिवम् ॥ ८६ शिष्या गुरु' यति तत्र देवेन्द्र' भेजिरे पुनः । स्वर्गे गते देवेन्द्र बिजयेन्दुञ्च भेजिरे ॥ ६० तान् सम्यक् पालयामास बिजन्दु स्तथापिव' | जगच्चंद्रस्य शिष्यावै नानुगच्छन्तिवश्यताम् ॥ ६१ Į ततः कांश्चिद्यतीन वृद्धान् स्व वशे कृत्यते तथा । मदोन्मत्ताः पृथग् भूताः बिजयेन्दो सुरेदलात् ॥ ६२ देवेन्द्र सूरि पट्टतु स्थितोधर्म रुचिर्यतिः । स सूरिधमघोषाख्यो जगन्मान्यः प्रियो भवत् ॥ ६३ ततो निस्कासिता गच्छात् स्थापयित्वा स्वगच्छक । बिजयेन्यु सूरिं सर्वे निन्दन्तिस्म शठाइव ॥ ६४ स्व कल्पित पटावल्यां तस्य निन्दात्मकं वचः । • For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) निजात्मोत्कर्ष कृद्धाक्यं व्यलेखित मदोद्धतः ॥ ६५ विजयेन्दोः सूरेस्तत्र वृद्धशाखा ततः परम् । लघुशाखा जगच्चन्द्र शिष्याणां साभतव् तदा ॥ ९६ स्व कल्पित पटावल्या देवेन्द्र सरितो भवत् । लघु शाखेति यैः प्रोक्ता तत्सत्य सत्यवादिनाम ॥ ६७ प्रशस्तौ स्वोक्त शास्त्रादौ कृतास्तुतिः परस्परम् । देवेन्द्रक्षेमकीर्त्यादि सूरिभिस्तु विचार्य्यताम् ॥ १८ परं कुत्रापि निन्दातः युष्मद्वाल्लिखिता नहि। युष्मद्वाचाहितत्पश्चात् भेदो विज्ञायते यतः ॥ ६E अथ स्वमत रक्षायै स्वात्यदुर्गति दायकाः । उग्र स्वभाविनो मन्त्रा धर्म घोषेण साधिताः ॥१०० स्तम्भना कर्ष विद्वषोच्चाट कर्षण मारकाः। मंत्रा-संसाधितास्तेन धर्मघोषेण यत्नतः ॥ १०१ श्री चैत्र बालगच्छीयः सधः सतापितश्चतैः । संघ संताप कारित्वात् तपासघः प्रकीर्तितः ॥ १०२ सतबर्गः क्रमाज्जातो यानबाही परिग्रहीं। तथापिस्व यंतित्यहि लोके प्रख्याप यत्यसौ ॥ १०३ बीरात्परं परायाताः बयंौ पट्ट धारकाः । नान्ये चैत्य गणाः सर्वे बदन्तस्तेन लज्जिता ॥ १०४ निष्काशिता गणाधीशै रिति कारणत श्चते। धर्म घोष समाश्रित्य कृतवन्तः परं पराम् ॥ १०५ तमेव गुरुमा श्रित्य धर्मघोषादि सूरथः । For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११) तत् कालीनो जगच्चन्द्रः गुरुतुल्यो बभूवह । यत्यू द्योतन सूरीणाम् संतानीयो महामतिः ॥ १०६ क्रियावान् मणिरताख्यः कश्चित्सूरिख भवह । यतः चात्र क नामानो दृश्यन्तेवहयोजनाः ॥ १०७ स्वकल्पित पटावल्या लिलुखुः स्वपरं पराम् १०८ पाठको देव भद्रोऽपि देवेन्द्र बिजयेन्दुको। जगच्चंन्द्र स्पतस्यांते शिष्यन्द्रवेन प्रकल्पिताः १०६ यतस्तत समयेसूरे रुघोलन यतेकिल । सतानी यास्तु सर्वेपि सबिनोग्न बिहारिणा: ११० क्रियावतश्च सवेऽपि श्रयतेते कथननु । अन्यपाश्व हितच्छिष्पा गृहणा युरुप सम्पदम् १११ उपसम्पद गृहीतृत्वात् जगच्चन्द्रस्य शिष्यकः नास्ति किन्त्वपरस्यैव मणिरत्नस्प कल्पचित् ११२ चैत्रवाल गणात्प्राप्य दीक्षां तत् संघकं पुनः । अस्यैव मणिरत्नस्य शिष्यश्चेसत्कथन्नु सः परिवारान् बिहायास्य कथमन्यानु पाश्रत ११३ विनिन्धहीना चारश्व बभूवुर धमा: खला: ११४ किश्व तेषां परिवाराः पूज्याव स्तुति वन्दन : स्वकल्पित पट्टावल्यां युष्माभिः स्वीकृता कथम् ११५ निन्दा प्रशंसा वा तस्य विरुद्धा नहि सम्भवेत् । अतोस्य शिष्यो नै वास्ति जगच्चन्द्रो विबुध्यताम २१६ अथवा गुरूणात्यक्तः त्यागे ग्राहेच सम्भवेत् । परन्तु गुरुत्यक्त क कोबिदो मन्यते यतिम ११७ असत्यस्तुति कर्तारो ययम सत्यवादिनः । गुरुज्झितानां मन्दानां कथ पूजा प्रचारिता ११८ अतोयंचंत्यवासीवा कम्चितन्नाम धारकः । तमाश्रित्यचपाश्चात्य : कल्पितेय परम्परा ११६ For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) यादिवा झॉझण श्रेष्ठिकृतो शत्र जयेजिरौ। द्वादशोजनैर्दीर्घा, हैमरूप्पपयोध्वजा ॥ १२० ॥ प्रायास्यतिच देवेन्द्रः, सूरिरत्र महायतिः। सं दास्यति च व्याख्यान, मित्यादि कल्पितं पुनः ॥ १२१ ॥ तथा प्रहलादनेस्थाने यमणा षोड़ शिकानिशा। एनत्सत्यमसत्यं तद, सर्व कल्पित येववत् ॥ १२२ ॥ सं वद् बाणेभ पाणीन्दु, वर्षेराज्ञः तपाभिधः । तपसावि रुदः प्राप्तः जगचन्द्र ण पर्ष दि ॥ १२३ ॥ यच्चालेख्यनु मानेन, मुनिसुन्दरमरिणा। गुर्वावल्यानृपैदन्तः, विरुदः सोपिकल्पितः ॥ १२४ ॥ दोक्षोप संपदा चाय्याः नैव वर्षेत्रसंस्थिताः । जगचन्द्र न जानन्ति, तत्क्षणे तद्विचार्यताम् ॥ १२५॥ यदि यूयं न जानीथ, कथ्यन्तांतन बद्र गुरोः। पक्षोपासश्च वर्षश्व, तिथिर्वातद्विनिणये ॥ १२६ ॥ विरुदस्तुनृयैदेत्तः, इति सर्वञ्च कल्पितम्। संशोध्य सर्वं वक्तव्य, मन्यथा वचनं वृथा ॥ १२७ ॥ देवेन्द्र सूरि शिष्षेण, विद्यानन्देन कथ्य ते । तत्सर्वं कल्पितंज्ञात्वा, निर्णयस्तु विधीयताम् ॥ १२ ॥ वैश्विमूरिपदे संवत्, गुणदन्तेन्दु वत्सरः। त्वदीमैश्व पुनः संवत्, वेद खाग्नीन्दु वत्सरः ॥ १२६॥ For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) कैश्चि देवेन्द्र पटे सः, कैश्चिन्नैवतु गण्यते । परस्परं विरुद्धत्वात्, कल्पितेयं परंपराः ॥ १३० ॥ विज्ञायतेहि पाश्चात्यैः, माक कालोनैः कदापिनो । एवं तपाख्य डिंभस्यो, स्पात्तिः कीर्तितामया ॥ १३१ ॥ कालक्रयेण संयाताः, बहुशाखा अनेकशः। अहंयुत्वाचते सर्वे, विवदन्ते परस्परम् ॥ १३२ ॥ विरुदं लभमानास्ते, सेनायां कुभटा इव । तथाहि देव मूरेस्तु, शाखानूष्ट्रा धसेड़िया ॥ १३३ ॥ तपा प्रवर्तकचास्या, विजयो देवयुग्यतिः । सागरिका प्रपञ्चेन, यतिभिः कलहोमहान् ॥ १३४॥ जातस्तस्य सूरेगच्छे, स्वीथैश्च यतिभिः समम् । ततो शिष्यगणेनाथ, शंखला बन्ध पूर्वकम् ॥ १३५॥ वन्धयित्योष्ट्र लाङ्ग ले, विमदः सपतिःकृतः ॥ १३६ ॥ दण्डे षोडश साहस्त्र रुप्यके यवनस्तदा। गृहीते सविमुक्तस्तु शाखात स्ट्र घसेड़िया ॥१३७॥ पुनर्तु का सणीख्याता तथा पीताम्बराभवत् । तस्याः क्रपश्चइत्येवै सशिष्याः सूरयस्ततः ॥१३॥ विभ्यतोति विलोनास्ते रात्रौ यात्रांपचक्रिरे । संगता राजपुरेते कलहः समजायत ॥१३॥ सागरिकैर्महांस्तत्र विज्ञमा राजपुरुषाः । THHTHHAL For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) तन्ति शम्याथ भीतास्ते विलीनाभक्त सद्मनि ॥ १४०॥ गुप्तहत्या विनिष्क्रान्ता पीताम्वर धराश्चवे । रात्रौ प्रच्छन्नास्तेयाताः ततो लुक्कासणीमता ॥ १४१ ॥ शाखा पोताम्वराचारन्या पीतवस्त्र' स्पधारणात् । व्यतीते कलहेचापि पोतं वस्त्रं नतत्यजुः ॥ १४२ ॥ बोधिता विजयेनापि देवयुक् सूरिणाचते । क्रू ध्वातेन गणास्वीयाः निष्काश्यव हिरुज्झिताः ॥ १४३॥ खरमत्रादि दानेन ते सर्वे तिरस्कृताः । ततस्तेषां च सर्वे निन्द चक्र श्च सर्वतः ॥ १४४ ॥ स्वात्मोत्कर्षं दर्शयन्तो धर्त्ता भूर्खाश्चमानिनः । वयन्तु साधवः सर्वे महाव्रतधराः किल || १४५|| निरवद्य कार्य्यकारित्वाद त्यागिनो निष्परिग्रहाः । एते तु यतयो नित्यं द्रव्य संग्रह कारकाः ॥ १४६ ॥ रथादियानथातारः तथेमे सपरिग्रहाः । सर्वेषामग्रतस्तेच स्वात्मोत्कर्ष प्रचक्रिरे ॥ १४७॥ गुरोर्निन्दां यतर्तिन्दों नित्यं सर्वे प्रचक्रिरे । शाखासासागरीयाख्या परावा गोर खो दिया || १४८ ॥ काको लुकतपाख्याता धर्मसागर निवान् । तथा ये नीच जातोया तेषां संघ प्रवेशनम् || १४ || ऋषिर्मेधातिथिः कश्चित् दुर्जनः कलहप्रियः । For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५ ) बहिः कृतोमतात्तस्मात् के नापि हेतु ना स च ॥ १५० ॥ तदा विजयदानाऽरूप सुरेशिष्य वभूवह । धर्म सागर नामाभूत् सोपिसर्वै बिरोधकृत् ॥ १५१ ॥ यतिभिः कलहंचक्रे गुर्वाज्ञायां विरोधकः । एवनष्टा वभूव स्वस्व विरोधकाः || १५२|| स्वमूलं खण्ड पनेते, तपा शाखाः कुयुक्तितः । जिनाज्ञा पाल कान् गच्छन्, ऋत्वा शाखा मपोसयत् । १५३| यतयः शुद्ध भावास्ते, स्वेच्छा चारेण द्वषिताः । मषोत्त्रादि दानेन श्रन्य शाखा मदूषयन् ॥ १५४ ॥ उत्सूत्र' कथयन्तस्ते, वारिताश्च पुनः पुनः । सूरिविजय दानेन, नोत्सूत्रादि प्ररूपणात्ः ॥ १५५ ॥ चकर्म परत्वेन, लोभ ग्रस्तेन चेतसा । उत्सूत्रकरणान्तूनं, विरामं न प्रचक्रिरे ॥ १५६ ॥ धर्म सागर कुद्गन्धान्, यः कश्चि दवाचयिष्यति । जिनाज्ञाभञ्जकः साथः गुरु द्रोही भविष्यति ॥ १५७ ॥ पण संघाय दत्वातान् ग्रन्थान् रेतैव कल्पितान् । जलमग्नां चतान् हत्वा ततः शान्तिं बुजेत्सुधोः ॥ १५८ ॥ जुननंदासनेग्रामे मूरि गुर्जरेतदा । संभ्रामितः समारोप्य रासभेधर्म सागरः || १५ || स्वगणान्निः सृतोमूखः गृहीतो यवनैशकैः । For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शवस्य गर्तकारोपे नियुक्तस्तक्षणोनसः ॥१६॥ तदिनाघवनः कश्चिन म्रियेत पदितंशवम् ।। खनित्वा गर्त मध्येतं स्थापयन्ति तदर्भकाः ॥१६॥ तत प्रारभ्य शाखसा धर्म सागरकस्पवै ।। गोर खोदिया प्रसिद्धातः तपायुक्ता ततो भवद ॥१६॥ रासभीया परंनाय रासभारोपणाचसा । तथापिते दुराचार नोमुञ्चति कदाचन ॥१६॥ ततश्व स्वगुरोनिन्दा कुर्वाणो धर्मसागरः। स्वानुरूपैःसयंस्वीयै डिम्भैरुज्जयिनोगतः ॥१६॥ सोथ तत्रसमं मैत्र्यं वाम मार्गिकापालिकैः । मांस पद्याशि मिश्चक्रे मन्त्राराधनपेवसः ॥१६॥ तत श्च कालिका मन्त्रा जपिताश्च प्रसाधिताः। कालिकायाः प्रभावे न मारणोच्चाटनादिषुकम् १६६ ॥ सिद्धि प्राप्याथ लोकेसः क्र ग्मन्त्राभि जापतः। सिद्धो बभव साकं विरोधंच चकारसः १६७ ॥ ततः कापालिकैः प्रोक्तः काकोलूक तपा ततः । त्यक्तस्स सर्व संघन दुष्टश्चैष दुराग्रही १६८ ॥ स्वंहीर विजयं पुत्र स्थापयित्वास्व पट्टके। विजयदानोथ मूरिर्वं स्वगतः शुद्ध संयमी १६६ ॥ अ त्वायं भेदयामास तद्गणं धर्मसागरः। For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७ ) मारणोच्चाटनैः कश्चिद धर्षयामास तद गणाम् १७० ॥ मीतोभूततत्बतीकारा शक्तोहीरयतीश्वरः । बलादाक्रम माणाय तस्मै क्रुद्धेन सूरिणा १७१ ॥ ततस्तेन प्रदत्तोहि रासभी विरूदोथवै । ततोपिन सभी तो मूढघो में सागर १७२ ॥ दुर्बुद्धे स्वस्थतं सर्व दुराचारंदुरा क्रमम् । मन्त्राभिचारं संवीप होरसूरि स्सहायवान् १७३ गणान्निष्काशयामास ततोथधर्म सागरम् । करोति कुधिपासून निषिद्धा सत्पुरूरणम् १७४ ॥ अनुकुर्वन्ति तस्यैव शिष्याः पुत्राः कुबुद्धयः १७५ ॥ एवं युद्धे प्रवृतेथ काले याते शमं गते । स्वगणे पुनरानीताः स्वपत्या सागरा खलाः १७६ ॥ तथापि यतिभिः साद्ध कुर्वन्ति कलहञ्चते । परत्वस्यैवपक्षस्य रतांमूरिः करोति १७७ ॥ केचित् यतय त्यकत्वा कलहादन्य संघकै । सूरिं संस्थापयामासु रुच्चकै स्नेस्तु बानिताः १७८ ॥ तत आनन्द सूय्परिषः तपाभूद्देव सूरितः । पश्चाततः पृथगभूता सागराः अधमाः खलाः १७६ ॥ देव सूरि तपा तस्माज्जाता शास्त्राथ सागरात् । तपा ऋषि मती याख्या सागरीया पराभिधा १८० ॥ For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) त्रयोदश मिला शाखा सागरीया प्रकाश्यते । सापिन संगता ज्ञ या परस्पर विरोधिका १८१ ॥ देवसेन यतीन्द्रेण कथितं शास्त्र सम्पतम् । स्त्रीणां प्रवज्या नैवास्ति सागरैसा निरूप्यते १८२॥ एवमुत्सत्र करणात सर्वदा ऽसन्नि रूपणात् । गुरों निन्दा परत्वेन सागरीया नशस्यते १८३ ॥ विजयान्निस्सृता सेयं सागरीया विलक्षणा । स्वमूलं खण्ड यित्वासा स्वात्मोकर्ष चिकी ति १८४ ॥ पस्याः कालोनवादेशः नवा शुद्धा परंपरा। नाचरो धर्म युक्तोऽस्ति साकथं मोनमृच्छति १८५॥ यस्याः प्रवर्तकाः सर्वे परस्पर विनिन्दकाः । परान स्वीयान् यतीन् सर्वे निन्दतोधर्म गर्हिताः १८६ ॥ स्वकल्पित पटावल्यां लिखित्वाते परस्परम् । निन्दा कृत्वा परेषांइश्व स्वात्योत्कर्ष प्रक्रिरे १८७ ॥ वादीन्द्र कुम्भचन्द्रस्तु श्री राधन पुरे बरे। म्लेच्छ राजा भिमानंस भक्त्वा संस्थाप्प तोरणम् ॥ १८ ॥ ध्वजा मारोप्पतत्र व सागरी यान् जिगापसः। तेनैव सागरी यास्तु शिक्षिता वहुयात्रतः ।। १८६ ॥ उपाकरोच्च तान् सर्वान् ग्रन्थाधारात्पुवोधयन् । यदुवाचायतत्सर्वं तदाधारण तत्वतः ॥२८० ॥ For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( * ) सागराणां च ग्रन्थाद्वै तपा गच्छेविवेचना । तत्व ज्ञानाय सर्वेषां सागराणां निरूपिता ॥ १३१ ॥ न रागतो द्वेषतएव सम्यक् यर्थंतत्वस्य विवेचनार्थ । सम्पादिता सूर्य्यमलेन साध्वी संक्षम्यतांयत्रत्र टिस्त्र जाताः । १६२ वाणानिन्दचन्द्र दे मार्गमासे सितेत्वियम् । समाप्तिमगमत्तत्र तपागच्छविवेचना ॥ १६३॥ इति श्री सूर्य्यमलयति विरचिता तपाअच्छा विवेचना समाप्ति सगमत् । For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) सागरोत्पत्ति पार्श्व यक्षसे सेवित श्री जिन पार्श्वनाथजी को नमस्कारकर मैं सम्यग्भकारसे तपामतकी एवंसागरोंकी उत्पतिका वर्णन करता हूँ॥१॥हे चाण्डालिक मतावलम्बियों ! मैंने जिस प्रकार देखा और सुना है तद्वत मैं उसका उल्लेख करता हूँ। इसमें मेरा कुछ दोष नहीं है ॥२॥ प्राचीन कालमें, श्रेष्ठ स्तम्भनपुर निवासी चैसवासी, मठधारी, पणी रत्न नामक एक प्राचार्य था ॥ ३॥ इसने, एक समय, विधवाका पुत्र तथा विजातीय जगत चन्द्र नायक एक बालक को तीन सौ ३००) रुपये पर खरीदा ॥ ४ ॥ इस बालकने उस की शिष्यता स्वीकार करली। परन्तु; शिक्षादेने पर भी इसने अपनी आदत न छोड़ी। गुरुओं से सर्वदा कलह करता रहा ॥५॥ यह देख दुःखित हो कर श्री पणिरत्न जीने उसे अपने गणसे अलग कर दिया। वह भो क्रोधित हो कर अहङ्कार से, गणका परियाग कर चल दिया ॥६॥ ___ यह दुष्ट अपने गुरू और दूसरों को दूषित करके, बकवृति धारण कर सवकी निन्दा करने के कारण, धिक्कारका पात्र वना। इसके बाद उसने उच्छिष्ट चाण्डालोको सेवा की। देवी प्रसन्न होकर प्रगट हुई और उसने जगत चन्द्रको वरदान For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२१) दिया कि जब तक वह अथवा उसका शिष्य सन्मार्ग की निन्दा करेगा और उन्मार्ग का प्रवर्तन तथा सत्सङ्गका खण्डन करेगा तब तक उसके मतकी वृद्धि होगी। इस प्रकार वर प्रदान कर भगवतो देवो लोप (अन्तर्ध्यान ) हो गई । श्री जगत चन्द्र इस प्रकार चण्डाली मतमें प्रवृत्त हो अधिकतर प्रसिद्ध हो गए। तत्पश्चात् जगतचन्द्रनी श्रीचाण्डाली देवीके प्रभावसे स्तम्भन क्रियो द्वारा अनेकों मूों को अपने पक्षमें सम्मिलित करके मूरि वन कर किसी समय (गुजरात) देशमें अपने शिष्यों के साथ गए। इन्होंने उक्तसूत्र का उच्चारण कर अपने मत की वृद्धिके लिए प्रयत्न किया। गुजरातवासी राम चन्द्रादि संघोंने श्री जगत चन्द्रजा को सभा के मध्यमें वादविवाद करने के लिए आह्वान किया। परन्तु इन्होंने सभा में पदार्पणा न किया। उस दुर्बुद्वि ने संघ की भी शिक्षा ग्रहण न की और मार खाने पर भी उसने अपना दुराग्रह न छोड़ा । संघसे वहिस्कृत हो जानेको धपकी वाली बात सुन कर वह बहुत भयभीत हुआ। अतएव स्वतुल्य गुरुद्रोही श्री वाल चन्द्र को उसी संघ के किसो यतिको सौंपकर उसने शोघ्रतासे अपनो राह ली अर्थात् रात्रिकोही भाग गया। जनताके समक्ष उसने घोषित किया कि ऊंटपर चढ़कर वह अतिशीघ्रता पूर्वक पत्तनपुर से स्तम्भन पुरमें पाया है। जन For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) ताने इसकी बातों को कल्पित समझ कर पूछा कि उसके अकेले पानेका क्या कारण है ? उसने कहा कि कुछ उपद्रव की सम्भावनासे वह ऊंट सवारी द्वारा गुजर से आया है। जनताने इस बातको कल्पित समझ कर उन्हें औष्ट्रिक ( ऊंटसे आया हुया) और उपाधिही से उनके शिष्य भी ओष्ट्रिक कहलाए। तत्पश्चात् श्री जगतचन्द्रने अपने शिष्य और भक्तोंको एकत्रित कर क्रोध पूर्वक सबसे कलह करना शुरू किया। अतएव, इन्हें पुनः तपोष्टिक नायक एक नई पदवी मिली। तप धातु सन्ताप अर्थ में होती है। पुरुष बचनों द्वारा चकि वे मनुष्यों को सताते थे अतएव उनकी शाखा का नाम तपा पड़ा। वाह्य क्रिया प्रदर्शित करने वाले जनताको मुग्ध करनेवाले आडम्बरसे तपस्खी का रूप धारण कर विहार करनेवाले मनुष्यों को तपोटा कहते हैं । अतः इनकी शाखा का नाम तपोंटा भी पड़ा श्रो उच्चिष्टचाण्डालीदेवी की सेवा द्वारा प्राप्त वरों से अहङ्कारो और क्रोधोन्पत्त हो नेके कारण चाण्डालिक भो कहे गये। अज्ञान द्वारा नीच तपस्या करनेसे तथा ऊंट पर सवारी करने के कारण उन क्रोध से लाल नेत्र वालों का भौष्ट्रिक नाम भी पड़ा। कुछ समय बीतने पर उनके शिष्योंने घोषित किया कि तपस्या करने के कारण वे लोग तपा कहे जाते हैं। परन्तु है For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) उनके शिष्य देवेन्द्र, क्षेम, कीरयादि द्वारा प्रणित ग्रन्थोंमें उनका तपा नाम कहीं नहीं पाया जाता । इससे सिद्ध होता है कि पूर्व शिष्यों का कथन सर्वथा असत्य है अन्यथा अपने ग्रन्थोंमें तपा नाम उन्होने अवश्य अङ्कित किया होता । अतएव विद्वान मण्डली तपा नामकी निरुक्ति तथा शिष्यों द्वारा अलंकृत तपा के विषय में परिज्ञान करेगी। अर्थात् तपा पदवी को कल्पित ही स्वीकार करेगी। श्री जगत चन्द्रजोने भागते समय श्री बालचन्द्रजीसे कहा था कि पाक्षिकादि प्रतिक्रपणों में वह उनकी की हुई उनके पूज्यों को स्तुति करेगा। परन्तु श्री बालचन्द्र ने कुछ यतियों द्वारा गुप्तभावसे रक्षित होकर भी अपने गुरु-वाक्योंका पालन नहीं किया । अतः परकर वह व्यन्तर देव हुआ और प्रतिदिन उसने संघमें उपद्रव पचाना प्रारम्भ किया इस दुष्टको व्यति कर देख उन्होंने पाक्षिकादि प्रतिक्रमणामें स्नोतस्य तथा सकलाईतको विघ्न शान्तिके लिए स्थापनाकी। उसी भयसे आजतक चाण्डालिक मतानुयायियोंने इस पद्धतिको जारी (प्रचलित) रक्खा है। तभीसे उनकी की हुई स्तुतिका पाठकरना संसार में प्रसिद्ध हुआ। क्योंकि चाण्डालिक पतानुसार उनके बिना पातिक प्रतिक्रमण हो ही नहीं सकता। ___एक समय श्री जगतचन्द्र चित्रकूटमें गया। वहां विद्या For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४ ) श्रुत बलसे प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य रहते थे। अभिमान पूर्वक स्व-पतकी पुष्टिके लिये वह उनसे विवाद करनेके लिए खड़ा हुमा और प्रण किया प्रजेताको विजेता को शिष्यता स्वीकार करना होगा। अन्य था, उसे गर्दभ (गदहा) पर चढ़ा कर गांव की परिक्रमा कराई जायगी। पण्डितों के समक्ष वाद बिबाद में, दिगम्बरियों के प्रश्नोत्तरके विचारमें हार कर भी जगतचन्द्रने उनकी शिष्यता स्वीकार न की। श्वेताम्बरीय सङ्घने तपौष्ट्रिक और तुद्र बालक तथा निन्दक समझ अपने सङ्घसे वहिस्कृत कर दिया । परन्तु, दिगम्बरोय सङ्घवालोंने पण्डितों की राय से उसे गर्दभ पर चढ़ा कर गांवका परिभ्रमण कराया और हंसी के बतौर जगत्चन्द्र को वह गर्दभ विरुद ( उपहार ) में दे दिया। कालामुख हो स्तम्भन पुरमें जाकर अपने भक्तोंके सामने अपनो उत्कर्षता दिखाते हुए उसने गर्जना शुरू किया । उसने कहा कि दिगम्बरियों को पराजित कर उसने गर्दभ विरुद पोया है। इस बातको सत्यताको जानते हुए भो, उनके भक्तों ने उनका आदर किया । ___ जगत्चन्द्र अपनी पाताके गर्भ दोषसे पिथ्यावादी एवं प्रपञ्ची था। वह हृदयसे उदास होकर अपने गुरुके सन्निकट गया : गुरुने उसे दुश्चरित्र जान उसको रक्षा न को। तत्पश्चात, उसने वस्तुपाल नामक एक वणिकसे मैत्री करली । For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) यह भी एक विधवाका लड़का था। अतः सज्जन द्वन्द उससे व्यवहार नहीं करते थे। जगत्चन्द्रने अपने अनुकूल वस्तु पालको समझ उसे बसीभूत किया और उसके दिए हुए इन्योंसे औरों को भी वसीभूत करके उसने एक सङ्घकी स्थापना की। तभीसे वणिकोंमें दशा और बोला नामक दो जातियों की स्थापना हुई । बणिक जातियों में प्रति बिरोध जारो हुआ । जनताने जगत्चन्द्रको वर्ण शंकर की पदवी दी परन्तु उसने काकवत् स्वभाव के कारण तो भी अपने दुराग्रहका परिसाग न किया। किसो समय चित्रबाल गच्छीय क्रिया कुशल श्रुततम्पन्न उपाध्याय देव भद्रजीका वहां पदार्पण हुआ। बस्तुपाल की अनुमतिसे, अपना कलङ्क मिटाने के लिये जगत्चन्द्रजीने इनसे उप सम्पद अर्थात् दीक्षा ले इनको शिष्यता स्वीकार करली । अर्थात् इनका शिष्य हो गया। मुनि सुन्दर मरिने गुरुवलीमें कहा है कि जगतचन्द्रने देवभद्रसे उपसम्पदा दीक्षा ली थी। मुनि सुन्दर सूरिका पाठ किसी समय चैत्र पुरमें महावीरजोको प्रतिष्ठा करनेवाले चन्द्रगच्छमें धनेश्वर सूरि हुए। तभी से चैत्र बाल गच्छ हुआ। कुछ दिनोंके बाद गणी श्री भुवनचन्दजी हुए। उनसे शुद्ध For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) संय्यम लेते वाले उपाध्याय देवफदपजी को उत्पति हुई । श्री देवभदजोसे जगत्चन्दजी हुए उन्होंने उपसम्पदा विधिसे उन के भारको बहन किया। श्री विजयचन्दजी देवभदजी इनके दो शिष्य हुए । इनसे और भो मृरि हुए। श्री वृहत्कल्पको टोका प्रशस्ति में लिखा है कि श्रीदेव भदजीके तीन शिष्य थे। उनके नाप क्रमशः (क) श्री क्षेप कीर्ति मूरिजो(ख)जैन शासन रूपो आकाशके सूर्य समान पद्गन्तर जी और(ग) कृत पदम जो थे। अपनी ज्योतिसे दिगदिव्याप्त श्रीमान् धनेश्वरसूरिजी इनके गुरु थे चैत्रपुरके भूषणा खरूप तथा मूर्य रूप प्रबोधक श्री महावीरजोकी प्रतिष्ठाकारक श्री भुवनेन्द्र सूरिजो श्री चैत्रवाल गच्छमें इनके गुरू हुए। ___ कुछ समय बाद इनसे प्रकाश स्वरूप श्री गुणा रत्न जो तथा श्री रोहणोजो की उत्पत्ति हुई। कामक्रोधादि शत्र ओंके जेता, शद्ध. संयमी, सच्चरित्र, सद्गुणो तया शास्त्र कुशलो श्री देवभद्रजो इनके गुरु हुए । इनके तीन प्रसिद्ध शिष्य थे। जिनके नाम क्रमशः (अ) श्री जगत्चन्द्रजी (प्रा) देवेन्द्रसूरि भी तया (इ) श्री विजयेन्द्र मुरिजो थे। दिगंत इनको उज्वल कीर्तिसे धवलित होगया। इनकी प्रतिष्ठा, विजय-कीर्ति, संयम, सद्गुण, ज्योति तथा प्रखर विद्वत्ता जगत प्रसिद्ध थो। इनके महत्व में इनके गुणांस मुग्ध होकर सभी देवताओंने For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (:२७ ) इन्हें निम्नांकित शक्तियां प्रदान कीः- पेरुसी स्थिरता, समुद्र सी अगाधता पृथ्वीसी सहन-शक्ति, सोपसी शीतलता और सूर्य सास्खलित तेज। इन्होंने शुभ मंत्रोंद्वारा पैतालको आधीन कर उत्तय सत्पुरुषकी साधनाकी। इनमें सबसे प्रसिद्ध महात्मा श्री बिजयेन्द्र मूरि हुए । इनके हस्तावलम्बनसे (१) श्री बब्रसेन मूरि एवं, पदमचंद यति तथा (ग) श्री क्षेमकीति मूरि नामक तीन शिष्य हुए। विज्ञवर श्री क्षेप कीर्तिजीने लोकोषकारार्थ वृति कल्प नापक ग्रन्ध बनाया । ___ वृति कल्प ग्रन्थका निर्माण श्री विक्रम सम्बत् १३३२ ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, रविवार हस्त नक्षत्रमें हुआ था। उस समय श्री देवेन्द्र सरि जी भी विद्यमान थे। पुनः श्री धर्मरत्नकी टीका की प्रशस्तिमें लिखा है कि चैत्रबाल गच्छ में क्रमशः श्री भुवनचन्द्र जी हुए । इनका तेज समस्त संसार का हितैषी हुओ। शान्त वृति, विनेता पूज्य श्री देवभद्र गणिराज जी उनके शिष्य हुए। स्वर्ण वर्ण, शुद्ध, तेजशील महात्मा यति, लोक प्रसिद्ध हुए। इनके चरण कमलकी सेवा द्वारा शुद्ध चित्त, शुभवोध, काम क्रोध विजयी जगत प्रसिद्ध श्राजगच्चन्द्र सरिजीकी जय हो! जगत सिद्ध, यति पूज्य श्रेष्ठ (क) देवेन्द्रसरि तथा श्रो बिजयचन्द्र सरि नामक इनके दा शिष्य थे। श्री देवेन्द्र For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) सरिजीने प्रात्पीय परकीय उपकारार्थ श्री धर्म रब की टोका सुखवोधके लिए प्रकाशित को। श्री देवेन्द्र रि आदिने अपने २ ग्रन्थोंमें अपनो २ गुरु परम्परा लिखो जो उस समय विद्यमान थे। इन्होंने श्री चैत्रवाल गच्छोय श्री जग चन्द्रजी को तथा इनके गुरुदेव भद्रनी उपाय्याय को इसीसे बताया। मुनि सुन्दर सूरिजी ने अपनी कल्पित पटावलिमें इस प्रकार लिखा है कि समस्त जगत भूषणवत श्री मुनिन्द्र गच्छमें श्री (क) श्री देवेन्द्र सूरि (ख) श्री विजयेन्द्र -सूरि (ग) श्री देवभद्र सूरिजो पैदा हुए। लोक प्रसिद्ध कीर्तिवान् श्री देवभद्रजी, गणीके राज्यमें असधिक सम्मानित हुए इसने विद्वान, सपरिच्छद श्री जगद चन्द्र जी को गुरू बनाया और सेवा की। ___ इस लेखमें पाश्चात्य कालीन सूरियों ने श्री जगञ्चन्द्र जी को श्री देवभद्रादिकोंका गुरू नियुक्त किया है। दूसरी जगह लिखा है कि श्री देवभद्र जो से दीक्षा लेकर यति हुए थे। श्रादेवभद्रजीके उपदेशसे श्री जगच्चन्द जीने क्रियोद्धार किया। जिस प्रकार ब्राह्मणोके ब्रह्म पूज्य हैं और ब्राह्मण । तदनुसार गुरू पूज्य शिष्य और शिष्य पूज्य गुरू हुए। हो For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) सकता है कि जगच्चन्द्र जो के शिष्योंने श्री चैत्रवाल गच्छीय देवभद्र गुरू नाम छिपालिया हो उससे इनको गुरू परम्परा नहो मिलती। अब इसको अनिश्चित पर पूर्व को कथावलिको सन्मु. ख रख पाठक स्वयं ही विचार करें-निर्णय करें सत्य कोन है और असत्य कौन ? तत्पश्चात्, जगचन्द्रजो ने स्वशिष्य वृन्दोंको स्वगुरू भाई श्री देवेन्द्र सूरिजी के हवाले किया और स्वगंगापो हुए। शिष्य पण्ड नो, देवेन्द्र जो यति को गुरूमान सेवा करने लगा। श्री देवेन्द्रनो के स्वगा रोहनके बाद इन्होंने श्री विन येन्द्रजा को सेवा को। श्री विजयेन्द्र सरिके सम्मान पूर्वक पालन करनेपर भो शिष्योंने उनको प्राधोनना स्वीकार न को। तत्पश्चात्, शिष्योंने भेदान्पत हो वृद्ध २ पतियोंको । स्वाधीनता स्वीकार कर विजयेन्द्र सूरिके गच्छका परित्याग किया। श्री देवेन्द्र सरिके पट्ट पर श्री वर्म रूचि जी ने गद्दा पाई। ये धर्म घोष नापसे जगत् मान्य ओर सर्व प्रिय हुए। इसके बाद उस गच्छसे अलग हो, स्वगक्छ की स्थापना कर इन्होंन श्री विजयेन्द्र सूरि को शठवत् उस शिष्य पण्डला महोद्धत हो स्वकल्पित पहाबलीमें त्री विनयेन्द्र जो की निन्दात्मक तथा आत्मोत्कर्ष सापक आलोचना For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३० ) की। तंपके प्रभावसे विजयेन्द्र सूरिको वृहदशाखा हुई और जगचन्द्र के शिष्योंकी लघु । पुनः इन्होंने स्वकल्पित पट्टाबल में लिखा है कि देवेन्द्र सूरिकी लघु शाखा हुई । जगचंद्रके शिष्योंकी नहीं। क्या सत्यवादियों के लिये यही सत्य है ? देवेन्द्र, क्षेम, कीर्त्यादि सूरियोंने शास्त्रोंमें केवल प्रशंसा को है । उन्होंने आप सदृश किसी भी स्थानपर किसीकी निन्दा नहीं की है। आपके कथनों में केवल भेदी प्रदीप्त होता है। मिल्लत नहीं । धर्मघोष जी ने अपने मत की रक्षाके लिये अन्य दुर्गति मदायक, उग्र स्वभाविक मंत्रोंका आराधना की । इन्होंने बहुत प्रयत्न से मारा, मोहन, उच्चाटन तथा वशो करणादि मंत्रोंकी साधना की । इन्हीं मन्त्रोद्वारा इन्होने चैत्र वाल गच्छीय संघ को संतप्त किया । संघको संतापित करने से ही इनका ( इनलोगोंका) नाम तपागच्छ पड़ा । यानवाही तथा परिग्रही होने पर भी इनके वर्गों ने अपने यतित्व को संसार में प्रसिद्ध किया । परम्परासे महावीर स्वामी द्वारा हमने हो पट्टावलि प्राप्त की है चैत्रगण वालेनि नहीं। इस प्रकार घोषित करने में वे जरा भी लज्जित नहीं होते। क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १ ) जिनको गरु परम्परा ही कल्पित है, जो किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता वह पट्टाधिकारी किस प्रकार हो सकता है ? इसका पाठक गण ही विचार करें। गणधीशोंसे बहिष्कृत हो, धर्म घोष जो के आश्रयमें रह कर इन्होंने अपनी परम्पराको उलटो सिद्धि की। उसी समय जगच्चन्द्र जी गुरू तुल्य हुए और वह श्री उद्योतन मुरिजीके स्थानापन्न हुए। मालम होता है उसी समय क्रियाथान कोई मणि रत्न नामक सूरि हुए। इसमें सन्देह करनेकी कोई गुञ्जाइस नहीं। क्योंकि एक नामके अनेकों व्यक्ति हो सकते हैं। धर्म घोषादिक सूरियों ने उसो मणि रत्न जो को लेकर अपनी गुरू परम्परा लिखो है। जगच्चन्द्र जो के स्वर्गरोहण पश्वात्, उपाध्याय देवभद्रजी देवेन्द्र जी तथा विजयेन्द्र जी भो शिष्य माने गए हैं। उसो समय उद्योतन सरि के संतान स्थानीय संविग्न उग्र विहारो यति हुए क्यों कि सभी क्रिया कुशली सुने जाते हैं। अतः वे दूसरे दीक्षा किस प्रकार ग्रहण कर सकते हैं ? दीक्षा ग्रहण करने से जिनचन्द्र जी इन्हीं के शिष्य हो जाते हैं, सो हो नहीं सकता। वे किसी दूसरे मणि रत्न के शिष्य होंगे। यदि इन्हें इसी मणि रल जी का शिष्य माना जाय तो भी युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उनके परिवारों को परित्याग कर दूसरेको गुरु स्वीकार करना युक्ति For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३२) प्रवाल गच्छसे सभी शिक्षा प्राप्त कर उन्हीं की मन्दा करनेसे वे ससारमैं होना चारी और अधर्मी हुए। इतना होने पर भी अपलोगों ने अपनी पट्टावाल में उनकी प्रशंसा (स्तुति कर उन्हें पूजनीय धनाया है। इस बातको आप लोगों ने भी स्वीकार किया है। परन्तु, निन्दा और प्रशंसा दोनो किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? अतः सिद्ध हुमा कि जगच्चन्द्र जी इनके शिष्य न थे। गुरुको ग्रहण में प्रशंसा त्याग हो सकता है कि अथच, निन्दा किया हो तो इस प्रकारके गुरु निन्दको को कौन पण्डित यति मानने के लिए बाध्य हो सकता है ? के हुए असत्य स्तुति कर्ता और आप असत्य वादी। इस अवस्थामें प्रोपलोगों में इनकी पूजा किस तरह प्रसिद्ध हुई। चैत्रवासी कोई दूसरा ही होगा जिससे काल्पत गुरू परम्परा बनाई गई होगी। क्योंकि इससे दूसरे की मिन्दा स्तुति सम्भवित होती है। मांझण श्रेष्टकी बनाई हुई शत्रु जया गिरिपर बारह योजन लम्बी सोना चांदीकी बनी हुई एक ध्वजा है। वहाँ महात्मा देवेन्द्र सरि यतिजीका आगमन और व्याख्यान होगा। इसी प्रकार प्रहलादन स्थानपर यमणा षोड़शिका रात्रिका ब्रत हुआ, इत्यादि ये समी बातें कपोल कल्पित सिद्ध होती है। तपस्या करनेसे (प्रसन्नहो) सम्वत् १२८५ वर्षमें विद्यमान राजाने सपा नामक उपाधि प्रदान की है, मुनि सुन्दरसरि. द्वारा उपरोक कथाका लिखा जाना त्याति सभी बातें कल्पित ही सिद्ध होती है। कारण इसका यह For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३३: ) है कि दीक्षो, तथा प्राचार्य सभी एक समय साबित नहीं हो सकते । उस सयय जगश्चन्द्रजीको कोई जानता भी न. था। पाठक इसकी सत्यता स्वयं विचारले । यदि आपको विदितहो तो कृपया साफ २ बतानेका कष्ट उठावें कि किस पक्ष, मास, तिथि, दिन और वर्षमें ये सभी घटनायें घटित हुई। राजाओंसे विरुद किस समय प्राप्त हुआ ।ये सभी वातें कपोल कल्पित सिद्ध होती हैं । आप इसका ठीक २ उता, अन्यथा आपकी समी याने झूठी मानी जायगी। ___ कोई मनुष्य देबेन्द्र सूरिके शिष्य विद्यानन्दजी का सम्वत् मानता है तो दूसरा देवेन्द्रजीके पद मिलनेका समय एक सम्वत १३२३ वै क्रम वर्ष बतलाता है तो दूसरा सम्वत् १३०५ वैक्रमवर्ष इस प्रकार परस्पर विरुद्धता पाई जाती है। अतएव ये सभी वातें कपोल कल्पित सिद्ध होती है। पश्चात् कालीन सूरियोंने भले ही इसकी सत्यता स्वीकार की हो। परन्तु पूर्वकालिक निदान इसे कदापि स्वीकार नहीं कर सकते। .. .. इस प्रकार तपा शाखाके शिष्योंकी उत्पति बताई है कालक्रम से इनकी अनेकों शाखाये हो गई। सेनामें विरुद्ध प्रास करने वाले कुभटके सद्दश अहंकारी होने के कारण ये सब आपस में पादा-विवाद किया करते हैं। इस प्रकार देव सरिजीसे ऊंट घसेड़िया शाखा हुई । इन तपा गच्छके प्रवर्तक विजयदेवजी हुए । उंट घसेडिया शाखाकी कथा निम्नाडिन्त रित्यानुसार बताई गई है: For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४ ) - किसी समय सागरिक शाखावालोंके प्रपञ्चसे यतियों के साथ महान् कलह उपथित हुआ। इसका प्रभाव अपने यतियों पर भी पड़ा। तत्पश्चात् यवन नरेशने इन्हें सृखलासे उंटकी पुच्छ में वांधकर इनका मदचर किया और सोलह हजार रुपया दण्ड स्वरूप प्राप्त करनेपर उन्हें मुक्त किया। तभोसे ऊंटघसेड़िया नामक इनकी शाखा हुई। इसके बाद लुकासणी एवं पिताम्बरा नामक दो शाखायें उपस्थित हुई जिनका अध्यक्ष विजय सरिजीका शिष्य हुआ। इसकी कथा इस प्रकार बताई जाती है: सागरिकों के भयसे छिपकर ये लोग प्रायः रातमें यात्रा कि या करते थे।किसी समय वे सभी राजपुरमें एकत्रित हुए और परस्पर कलह शुरू हुआ। तत्पाश्वात्. सागरिको ने राजपुरके कर्म चारियोंके निकट फरियाद की । इससे भयभीत हो कुछ लागोंने स्व-भक्तोंके घरोंमें शरण पाई अर्थात् छिप गए और कुछ लोग पिताम्वर वस्त्र धारण कर छिपे २ गत्रिमें ही भाग खड़े हुए। कलह बीतने पर श्री विजयदेवजोके समझानेसे भो इन्होंने अपने पीत वस्त्रोंका त्याग नहीं किया। अतएव, इनकी शाखायें लुकासणी तथा पिताम्बरा नामसे पुकारी गई। ये, खर-मूत्रादि की छीटों से तिरस्कृत कर अपने गच्छसे अलग कर दिए गए। इससे क्र द्ध हो वे इस गक्छ को निन्दा करने लगे । उनका कहना था कि हम लोग महाव्रतधारो साधु हैं । सर्वदो ही दोष हीन कार्य करनेसे त्यागी और अपरिग्रही हैं। ये सर्वदा द्रव्य-संग्रही For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं। रथ और घोड़की सवारी किया करते हैं । बाएव, ये सप. रिग्रही हैं । इस प्रकार इन्होंने सबसे अपनी प्रशंसा और गुरु तथा यतियोंकी निन्दा की। तबसे सागरिका शाखा अलग हुई। इन्होंने धर्म सागरजी से छिपाकर अपने कर्मानुसार गोर खोदिया, काका, उलूक और तपादि शाखाओंका निर्माण किया। नीच जातियों भी इन शाखाओंमें प्रविष्ट हो सकती थीं। मेधातिथि नामक कोई दुर्जन था। किसी कारणवश वह उस गच्छसे बाहर कर दिया गया। वह विजयदान सरिजीका शिष्य हुआ। कुछ दिनोंके वाद उसका नाम धर्मसागर पड़ा। वह सब का विरोधी तथा गुर्वाज्ञा उलङ्घनकारी हुआ। जिनाज्ञा पालक गच्छोंको परित्याग कर इसने कूयुक्तिसे अपने मूलका खण्डन करके तपा नामक शाखाका निर्माण किया । स्वेच्छाचारसे, इस ने, व्यर्थही उत्सूत्रादि बनाने के दोषसे दूसरे गच्छोंको दूषितकर बिजय शाखाको भी दूषित किया। विजयदान सूरिजीके मना करने पर भी लोभग्रस्त हो इसने उत्सूत्रादिका बनाना बन्द न किया। धर्म सागर-रचित ग्रन्थों का जो पाठ करते हैं अथवा सुनते हैं। उन्हें जिनाज्ञा-भङ्गका दोष लगता है और वे गुरु द्रोही कहे जाते हैं। उचित तो यह होता कि उन ग्रन्थों को जलमें डुबो देते। तभी शान्ति प्राप्ति हो सकती थी। किसी समय गुजरातके बन्दासन ग्राममें किसी सरिने इन्हे गधेपर चढ़बाकर ग्रामकी प्रदक्षिणा करवाई। ज्यों हो अपने गण का परित्याग कर ये भागे जा रहे थे। ल्हो यवन नपति द्वारा For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३६ ) पकड़े गए और कब ( गोर) खोदनेके काममें प्रवृत्त किये गये तब से किसी भी मृतक मुसलमान के लिये कबर खोदना हो इनका काम था। तभी से धर्मसागर की शाखा गोर खोदिया नामसे पुकारी जानेलगी। पश्चात् तपा शब्द जोड़ दिया गया। रासभ पर चढ़नेसे रासमियां शाखा हुई। इतना होने पर भी इसने अपना दुराचरा न छोड़ा। तत्पश्चात् गुरु निन्दक धर्म सागर स्वानुकूल आत्मीय शिष्योंके साथ उज्जैन चला गया। वहाँ उसने मौसमद्याहारी बाम मार्गियोंसे तथा कापालिकोंसे मैत्री कर मन्त्राराधन किया। कालिकाके प्रभावसे मारण, उच्चाटनादि मन्त्रोंको सिद्ध कर, कर-मन्त्रों द्वारा बाममागियों से भी उसने कलह ठानी। अतएव बाममागियोंने उसे काक, उलक और तपादि पदबियों से विभूषित किया । ____ कुछ दिनोंके पश्चात्, शुद्ध संयमी विजय दान सूरिजी अपने पुत्र हीरविजय जी को गद्दी देकर स्वर्गबासी हुए । यह सुन धर्म सागरने इनके गण को फोड़ कर (विलय) मारणोच्चाटनादि मंत्रों से इन्हें दुःख दिया। हीर विजयजो प्रतिकार करने में असमर्थ थे। अतएव उन्हें इन अत्याचारों को सहना पड़ा। रासभ-रासमो के शाक्रमण सदृश इसका आक्रमण देख हीर वियजीने इन्हें रासभी पदवी दी। समय पाकर हीर विजयजी ने समर्थ होकर इसके दुराचार, दुराक्रमण तथा मन्त्राभिचार को देख इसे गच्छसे वहिश्कृत कर दिया। उस मुर्खने क द्ध हो दुवुद्धिसे अपने मूर्खा शिष्यों सहित निषिद्ध, असत् निरूपण करना शुरू किया। For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३७ ) " कुछ समयके बाद कलह शान्त होनेपर हीर विजयसूरिजोने, धर्मसागर को अपने गच्छमें मिला लिया। परन्तु यतियोंके साथ कलह करना इसने न छोड़ा । हीर विजय सूरिजीने भी इसका पक्ष ग्रहण किया। इस पक्षपातको देखकर कई यतियोंने इनके संघको परित्याग कर किसी अन्य सरिके आश्रयमें दूसरा संघ स्थापित किया और पूज्य हुए। तबसे देव सरिसे आनन्द सरितपा शाखा हुई। कुछ दिनोंके बाद सागरों ने हीर विजय सूरिके गणको भी परित्याग कर दिया। तबसे देव सरितपा ऋषिमत तपा और सांगर तपा नामक भिन्न २ शाखाएं हो गई। सागरिया शाखा तेरह प्रकार की बताई गई है। परन्तु वे भी पारस्परिक विरोध के कारण संगत युक्त नहीं हैं। देव सूरिजी ने स्त्री को दीक्षा धारण करना शास्त्रसंगत कहा है। परन्तु सागरियों ने उसका विरोध किया है। इस प्रकार सर्वदा उत्सत्र अमत-वस्तु-निरूपण तथा गुरू-निन्दा करने के कारण सागरिया शाखा अच्छी नहीं कही जाती। विजय शाखोत्पन्न यह विलक्षण सांगरिया शाखा स्व-मूल-खण्डन कर आत्मोत्कर्ष करना चाहती है। जिस शाखा का न कोई देश है न कोल न शुद्ध परम्परा है न धर्म-युत आवार विचार । इस अवस्था में यह शाखा किस प्रकार मान (आदर ) पाने को अधिकारिणी हो सकती है। इस शाखा का प्रवर्तक आत्मीय परकीय यतियोंका निन्दक धर्म सागर था। अत: उसधर्म निन्दक ने स्वकृत पट्टावलिमें परस्पर निन्दा कर अपना उत्कर्ष बढ़ाया है। श्री राधन पुरमें वादीन्द्र कुम्भ चन्द्र For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३८ ) जी सरिने म्लेच्छ राजका मानमर्दनकर तथा ध्वजा तोरण स्थापित कर सागरीय शाखा को पराजित किया था। इन्होंने यन्न पूर्वक सागरियों को शिक्षित बनाने का प्रयत्न किया है। इनके उपका - रार्थ श्री वादीन्द्र कुम्भचन्द्र सूरिजीके ग्रन्थावलोकन कर कथनकी विवेचना कर उसके संग्रह मूलाधार पर सागरियो' का ग्रन्थावलोकन कर और शुद्ध युक्ति के आधार पर सबको यथार्थ तत्व समझने के लिए मैंने इस पुस्तक को लिखने का प्रयत्न किया है । किप्ती रागद्वषसे नहीं किन्तु सागरी शाखाका यथार्थ तत्व जाननेके लिये ही मैंने इस पुस्तक को लिखनेका प्रयत्न किया है अतएव इसकी त्रुटियो'को पण्डित वर क्षमा करेंगे। "समाप्त" नोट इस पुस्तकके अनुसन्धान करने में अथवा लिखने में जिन २ महाशयों से प्रत्यक्षा--प्रत्यक्ष में सहायता मिली है उनका मैं सर्वदा कृतज्ञ हूं। For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For 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