Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
10 जनवरी 2011 जिनवाणी - 352 लघुनाटिका
साधना के गुरुशिखर पर
___ डॉ. रमेश 'मयक'
-
.
___एक श्रमण गुरु की विशेषताओं को इस लघुनाटिका के माध्यम से लेखक ने भली भांति प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। युवक-युवतियों को श्रमण-जीवन की संक्षिप्त झाँकी इससे प्राप्त हो सहेगी।-सम्पादक
mathathahisti
a
ne
पात्र परिचय आचार्यप्रवर- वय से वृद्ध युवक- एक - दो - तीन - चार युवती- .. एक - दो
साध्वी- एक - दो मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश की हलचल होने लगती है। मंच की पीठिका श्वेत है। मध्य भागमें एक तख्त पर विराजमान दिव्य-व्यक्तित्व आचार्यप्रवर जो वय से वृद्ध हैं, श्वेत वस्त्र धारण किए हुए हैं। चित्त शान्त, तेजस्वी आभासे मण्डित है। युवक-युवती का प्रवेश होता है - युवक- आचार्यप्रवर को तिक्खुत्तो के पाठ से वन्दन! युवती- मत्थएण वन्दामि।
(दोनों बैठ जाते हैं) आचार्यप्रवर- दया पालो। धर्माराधन कैसा चल रहा है? युवक- गुरुदेव! धर्माराधन ठीक नहीं चल रहा है, मन अशान्त है। भाईसाहब असमय में ही चले गए। आचार्यप्रवर- दुःख का मूल है-वस्तु को अपना समझना या अपने को वस्तु समझना। अहंकार-ममकार तो
छोड़ना ही पड़ता है। युवती- परन्तु गुरुदेव अकाल-मरण। आचार्यप्रवर- स्थानांग सूत्र में आयुर्भेद (अकाल मरण) के सात कारण बताए हैं- राग, द्वेष, भय आदि भावों
की तीव्रता,शस्त्राघात, आहार की हीनाधिकता या निरोध, ज्वर-आतंक, रोग की तीव्रता, पर
का आघात, खड्डे में गिरना, सर्पदंश, श्वासोच्छ्वास का निरोध आदि। युवक- पर वेतो.......
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
| 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी
353 आचार्यप्रवर- अकाल मरण रक्त क्षय, हिमपात, वज्रपात, अग्नि, उल्कापात, जल प्रवाह, गिरि वृक्षादि के
गिरने से भी होता है। युवती- उन्हें तो हृदयाघात हुआ था। आचार्यप्रवर- मृत्यु आने के कई बहाने हैं। समझदारी इसी में है कि जन्म और मृत्यु के बीच के समय का
सदुपयोग हो। मानव-जीवन परम दुर्लभ है क्योंकि मानव भव में ही राग-द्वेष-मोह का क्षय किया जाना सम्भव है। अतः मृत्यु का शोक न कर आप लोग इस सच्चाई को जानकर उनके
प्रति उठने वाले मोह को कम करने का प्रयत्न करें। युवक-युवती-गृहस्थी के जीवन में आने वाले दुःख उसे तोड़ते हैं तो साथ में अध्यात्म से जोड़ते भी हैं। हम तो धर्मानुरागी हैं- धर्म की राह के राहगीर और आप पथप्रदर्शक ही नहीं, पथ अन्वेषक भी हैं।
गुरुदेव आपने दिया हमें ज्ञान
गुरुवर महान् गुणी विद्वान साधक को उन्नति पथ दिखलाने वाले
तलहटी से शिखर पर पहुंचाने वाले। (दो साध्वियों का प्रवेश होता है) साध्वी-एक- गुरु का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।
___ साधना के क्षेत्र में गुरु शिखर समान होता है। साध्वी-दो- गुरुवर प्रेरणा देते हैं, गुरुवर घड़ते हैं। गुरुवर जैसा घड़ने वाला कोई दूसरा नहीं होता है। गुरु के
प्रति श्रद्धा रखकर, जीवन में आचरण करने वाला सुख का अधिकारी बनता है। साध्वी-एक- गुरु जड़ को नहीं, चेतन को घड़ता है। जाग्रत कर अंतश्चेतना, अवगुणों को हटाता है। मन की
चंचलता को, मिटाकर दिखाता है। साध्वी-दो- गुरुदेव कारीगर है, पथ-प्रदर्शक है, सर्जक है, निर्माता है। गुरुदेव ने ही मुझे श्रमशील बनाया।
समभाव का साधक बनना सिखाया। मैंने सीखा-कषायों को शान्त करना। मेरा मन सबके प्रति
हित कामना से आप्लावित है। मेरा जीवन ज्ञानामृत की कृपा दृष्टि पाने हेतुरत है। युवक-युवती-हम सब गुरुदेव के अनुयायी हैं।
सर्वत्र गुरुदेव की महिमा छाई है। गुरुदेव से मिलता पावन दिशा बोध मन-वचन-काया को साधना से
जोड़ने का विनम्र अनुरोध। समवेत स्वर- हम सभी धर्मानुरागी प्रतिज्ञा करते हैं कि जीवन में धीरता, गम्भीरता, सहनशीलता लायेंगे।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
354
जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || वत्सलता, आत्मीयता सेवा-भावना को अपनायेंगे। दम्भ का प्रतिकार करके, मान पर प्रहार करके सच्चे मन से सेवा का आचार-विचार अपनायेंगे। गुरुदेव की जय! आचार्य श्री की जय! जय! जय!
दृश्य - दो पार्श्व में संगीत का स्वर धीरे-धीरे उभरता एवं तीव्र होता है, सुमधुर स्वर लहरी के साथ सुनाई देता हैगुरुदेव हुए गुणी विद्वान, गुरुदेव बारम्बार प्रणाम । पढ़कर विद्याज्ञान बढ़ाया, विनयशीलता गुण अपनाया। विद्या सागर सा श्रम करके, सबको दिया साधना ज्ञान॥
गुरुदेव हुए गुणी विद्वान ।। 1 ।। गौतम सी पायी ज्ञान पिपासा, श्रमण सी रही सदा जिज्ञासा। धैर्य दृढ़ता और उदारता से, गुरु शिखर बन किया उत्थान ।।
गुरुदेव हुए गुणी विद्वान ।। 2 ।। (धीरे-धीरे स्वर मंद होता है एवं थम जाता है) युवक-एक- मुझे गुरुदेव ने शील आचरण की शिक्षा दी।
शील रतन मोटो रतन, सब रतनों की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रहीशील में आन।। युवक-एक- शील के कारण माता को कुल की रक्षा करने वाली कहा गया है। युवक-एक
शील हमारे धर्म की आधार शिला है। शील संस्कारों का सुदृढ़ किला है। शील बुद्धि बढ़ाता, करता शक्ति-संचार
शीलव्रतधारी की महिमा अपरम्पार। साध्वी-एक- हम शीलव्रत की शिक्षा को अपनाएँ।
तपत्याग का आचरण करते चले जाएँ। मन पुष्पोद्यान समान प्रसन्न होगा।
संत-संगत से आत्मोत्थान का आगमन होगा। साध्वी-दो- शीलव्रत आचरण से दूर होगी
देश समाज की अनैतिकता। दुष्प्रवृतियों का अन्त होगा।सन्तों की वाणी से समाज सतत, दिशाबोध पाएगा; व्यसनों के कीटाणुओं से मुक्त जगत कहलाएगा।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
|| 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी
355 (युवक एक एवं युवती एक-मंच से प्रस्थान करते हैं तथा मंच पर युवक-दो एवं युवती
दो का आगमन होता है।) युवक-दो- गुरुदेव ने साधना का पथ बतलाया। साधना का पथ सर्वोत्तम है। यह सरल भी है और दुर्गम भी।
इस पथ पर चलकर साधक तहलटी से शिखर तक की उन्नति कर सकता है। गुरु शिखर पर
गूंजती घंटा-ध्वनि की तरह गुरुदेव की वाणी भी गुंजायमान है। गुरुदेव प्रेरक हैं और निर्माता हैं। युवती-दो- गुरुदेव की वचन वाणी साधना का उत्कृष्ट सोपान है। सौहार्द-भाव का संधान है। अहं विगलन
का विज्ञान है। आत्मशोधन की प्रक्रिया में परिष्कार है। गुरुदेव का आभार है। युवक-दो- साधना पथ के कारण सात्त्विक जनों का सम्मान है। साधना पथ तप में प्रधान है। युवती-दो- गुरुदेव! धर्मवीर, दयावीर, दानवीर हैं। साध्वी-एक- साधना पथ तो जिनशासन का विधान है। साध्वी-दो- इसमें सम्यक्त्व की सुवास है। इसमें मुक्ति की प्यास है। धर्म की राह का अहसास है। साध्वी-एक- साधना के पथ से जाग्रत होता आत्म-विश्वास है। साधना के कारण अंधकार से होता प्रकाश
है।
साध्वी-दो- साधना का पथ जीवन में परिवर्तन लाता।
असत्य से सत्य के मार्ग पर ले जाता॥ मृत्यु से अमरत्व का बोध कराता।
अशान्ति से आनन्द लोक में पहुँचाता॥ युवक-युवती- साधक सेवा धर्म बड़ा गम्भीर,
पार कोई बिरला ही पावेगा। गुरुदेव आपकी वचनामृत वाणी से,
साधक गुरु शिखर सा बन जायेगा। साध्वी-एक- गुरुदेव-आप हस्ती हैं
सदा समाज ऋणी रहेगा समाज को आपने गति दी, शुद्ध मन-वचन-कर्म ज्ञान से
सदा समाज की प्रगति की साध्वी-दो- कल्याण रूप हो मंगल आप,
संत रूपके धारी थे। ज्ञानवन्त हुए गुरु शिखर से, इस युग के अवतारी थे॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
1356
| जिनवाणी
10 जनवरी 2011 समवेत स्वर- हम सब धर्मावलम्बी प्रतिज्ञा करते हैं कि
प्रतिपल साधना मय जीवन बनायेंगे। गुरुदेव के वचनों को आत्मसात् कर दिखायेंगे। मिट सके सभी का इस भव से भ्रमण ऐसा उत्तम आचरण का कीर्तिमान बनायेंगे। (एक पल का अन्तराल) जिन्होंने स्वयं को साधना से सक्षम बनाया, फिर जगत को कल्याण हेतु साधना का पथ बताया। उनकी शिक्षा ज्योति को घर-घर फैलायेंगे। धर्म-साधना की सुरभि से दिग्दिगंत महकायेंगे। (एक पल का अन्तराल) हम श्रमण-जीवन की महत्ता को प्रकाश में लायेंगे। साधना के गुरु शिखर पर विराजमान गुरुदेव की जय! आचार्य श्री की जय! जय!
दृश्य तीन नेपथ्य में स्वर धीरे-धीरे उभरता है, तीव्र होता है, सुमधुर स्वर लहरी के साथ स्पष्ट सुनाई देता
धन्य-धन्य प्रभुतोहे, वन्दना हमारी है। आचार्य श्री ज्ञानवन्त, गुणवन्त जग हितकारी है। सौम्यता झलकाने वाले ज्ञान-गंगा बहाने वाले जिनके आप्त वचनों पर मुग्ध होते नर नारी हैं। धन्य-धन्य प्रभुतोहे, वन्दना हमारी है॥1॥ आगमों का गहरा ज्ञान संघकी थामे रहे कमान भाव से निष्काम हुए जो, गुरु तपस्वी सेवाव्रत धारी हैं। धन्य-धन्य प्रभु तोहे, वन्दना हमारी है।।2।।
(धीरे-धीरे स्वर मंद होता है एवं थम जाता है।) साध्वियों का समवेत स्वर- हम साध्वियां हैं। श्रमण हैं। हम श्रमशील हैं, समभाव की साधक हैं। साध्वी-एक- श्रमण का जीवन संयम और विरक्ति का प्रतीक होता है। श्रमण बाह्य वस्तुओं के स्वामित्व का
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
|| 10 जनवरी 2011 ||
| जिनवाणी अधिकार त्याग कर दीक्षा अंगीकार करता है। साध्वी-दो- अपार ऐश्वर्य और अतुलित सम्पत्ति को भी श्रमण तृणवत् त्याग देता है। उसके मानस में मोह
व्याप्त नहीं होता। श्रमण भाव से निर्मल होता अंतःकरण है। साध्वी-एक- श्रमण का शरीर भी अध्यात्म-साधना का एक अनिवार्य साधन है। श्रमण न्यूनतम
आवश्यकताओं पर जीवन निर्वाह करता है। साध्वी-दो- श्रमण उपार्जन नहीं करता, संयम अपनाता है। साध्वी-एक- अणगार श्रमण नौ प्रकार के बाह्य संयोग से- क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी,
दास, कुप्य से मुक्त रहता है और शाश्वत मुक्ति तलाशता है। साध्वी-दो- चौदह प्रकार के आभ्यन्तर संयोग से भी मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसंक वेद, हास्य, रति,
अरति, भय, शोक, जगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ से मुक्त रहता है। श्रमण धर्म की राह के
पथिक हैं। साध्वी-एक- श्रमण के लिए पिण्ड,शय्या, वस्त्र तथा पात्र न्यूनतम आवश्यकताओं के उपकरण माने जाते हैं। साध्वी-दो- श्रमण के वस्त्र धारण के तीन प्रयोजन-लज्जा निवारण, जन घृणा निवारण और शीतादि
प्राकृतिक प्रहार से सुरक्षा है। साध्वी-एक- श्रमण के लिए बहत्तर हाथ और श्रमणी के लिए तिरावने हाथ वस्त्र उपयोग का विधान है। साध्वी-दो- श्रमणों के लिए मुख वस्त्रिका, रजोहरण, पात्र, चोल पट्टक, वस्त्र, कम्बल, आसन, पाद
प्रोंछन, शय्या, बिछाने के लिए घास-पुआल, फलक, पात्र बन्ध, पात्र स्थापन, पटल, पात्र
केसरिका, रजस्त्राण आदि उपकरण होते हैं। साध्वी-एक- श्रमण की भिक्षा प्रणाली विशिष्ट कोटि की होती है। यह तपश्चर्या का एक रूप है-गोचरी। साध्वी-दो- - श्रमण रसना-तुष्टि अथवा स्वाद के लिए आहार ग्रहण नहीं करते। साध्वी-एक- श्रमण के आहार ग्रहण करने के कारणों में क्षुधा वेदना सहन न होना, वैय्यावृत्त्य, ईर्या शोधन,
संयम-पालन, जीव-रक्षा एवं धर्म-चिन्तन प्रमुख हैं। साध्वी-दो- श्रमण के आहार-त्याग के कारणों में रोगव्याधि, संयम-त्याग का उपसर्ग, ब्रह्मचर्य रक्षा,
जीव-रक्षा, तपस्या, शरीर त्याग का अवसर आदि प्रमुख होते हैं। साध्वी-एक- श्रमण की दिनचर्या सामाचारी में विश्लेषित होती है। वह स्वाध्याय से ज्ञान चक्षुओं को
अनावृत्त करता है। साध्वी-दो- स्थानांग सूत्र में सामाचारी का स्वरूप आवश्यिकी, नैषधिकी, आपृच्छना, छन्दना,
इच्छाकार, मिथ्याकार, तथेतिकार, अभ्युत्थान एवं उपसंपदा है। (एक पल का अन्तराल, मंच पर सभी युवक-युवतियों (पात्रों) का प्रवेश होता है।)
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
358
जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || युवक-एक- धार्मिक आस्थाभाव रखने वाले सहयात्रियों में श्रमण जीवन एक पवित्र जीवन है। इसमें
__ स्वाध्याय का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्ञान के अनुरूप आचरण ही दुःख मुक्ति का मार्ग है। युवक-दो- श्रमण दिन एवं रात्रि को दो-दो कालों में विभाजित कर दिन में स्वाध्याय एवं ध्यान करते हैं। युवक-तीन- रात्रि में भी स्वाध्याय एवं ध्यान कर ज्ञानवान हो उत्कर्ष को पाते हैं, दिन में भिक्षा एवं रात्रि में
निद्रा भी दिनचर्या का भाग है। युवक-चार- श्रमण-जीवन जागृति का प्रतीक है। युवती-एक- श्रमणत्व आत्म-शुद्धि और प्रशम सुख-प्राप्ति का पथ है। जो विकारों से रहित होते हैं, वे पूज्य
हो जाते हैं। युवती-दो- यह सुख आत्मिक है, लौकिक नहीं।
(एक पल का अन्तराल) युवक-एक- श्रमण का लक्ष्य परम अनन्त सुख है। युवती-एक- श्रमण की साधना-अनन्त और वास्तविक सुख प्राप्ति के लिए है। युवती-दो- श्रमण की यात्रा निरापद भी नहीं है। युवक-एक- श्रमण के साधना मार्ग में शूल भी हैं और फूल भी हैं। धर्म की राह चरित्रवान् बनाती है। युवक-दो- सहनशीलता से संवेदनशीलता बढ़ती है। युवक-तीन- धर्म का प्रत्येक चरण जीव के लिए हितकारी होता है। धर्म की राह संस्कारवान बनाती है। युवक-चार- श्रमण दीक्षा की पाठशाला एकान्त एवं दीक्षा का पाठ मौन है। धर्म की राह मुक्ति का माध्यम है। युवती-एक- धर्म आत्मसाक्षी से होता है। युवती-दो- प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करनी चाहिए। साध्वी-एक- वीतराग वाणी समग्र है। साध्वी-दी- गुरुदेव ने हमें प्रेरित किया और जिनेश्वर वाणी को हम तक पहुँचाया है। हम सब गुरुदेव के
__ आभारी हैं। साध्वी-एक- गुरुदेव ने अपने उद्बोधन में बताया-“मानव! आ जाओ। तुम भी मेरी तरह राग-द्वेष पर विजय
प्राप्त करके जिन बन जाओ। तुम भी इस मार्ग पर चलोगे, पुरुषार्थ करोगे तो कर्म का आवरण
टूटेगा और तुम भी जिन बन जाओगे।" साध्वी-दो- गुरुदेव ने हमें प्रेरित किया
पर-निन्दा का त्याग करने के लिए। अपने अन्तर्मन को टटोलने के लिए। जो बीत गया है उसकी चिन्ता न करना।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________ 359 | 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी जो शेष रहा जीवन घट, उसमें अमृत भरना॥ युवक-एक- गुरुदेव का बड़ा उपकार है, हमें सन्मार्ग दिखलाते हैं। प्रतिफल की नहीं करते आस, पग-पग पर फर्ज निभाते हैं। युवक-दो- हम धर्म की राह पर चलते, महावीर पथ का अनुसरण करते। गुरुदेव ने धर्मवचनों को सुनाया, साधना के शिखर तक पहुँचाया। युवक-तीन- जाजरी नदी तट पर पीपाड़ ग्राम में जन्म लिया। युवक-चार- निमाज ग्राम में देह त्याग किया। साध्वी-एक- आओ निमाज को पावापुरी सा मान दिलाएं। साध्वी-दो- आओ महावीर की हस्ती को शीश नवाएँ। युवती-एक- गुरुदेव की वाणी मानव मात्र के लिए कल्याणी। युवती-दो- आओ मिलकर गाएं अन्तर्मन में प्रकाश जगायेंगे मोहपाश बंधन कट जायेंगे। काम-क्रोधमद लोभ को त्याग जीवन सफलतम बनायेंगे॥ सभी युवकों का समवेत स्वर भेद ज्ञान की पैनी धार से गुरुदेव ने, काट दिए जग के पाश। मोह मिथ्या की गाँठ गलाकर, अन्तर किया प्रकाश॥ समवेत स्वर- “आज गुरुदेव की वाणी हमारी अध्यात्म-चेतना को झंकृत करती है। यह झंकार गुरु शिखर सम अहसास है। यह उद्घोष है- हम पतित से पावन हो सकते हैं। हमें स्वाध्याय और श्रमण को जीवन का अंग बनाना चाहिए। स्वाध्याय से हमारे विचारों का शोधन होगा और मनोमालिन्य दूर होगा।" (एक पल का अन्तराल) धर्म की राह पर चलने वाले, साधना के गुरु शिखर पर पहुँचाने वाले गुरुदेव की जय!जय!जय! -बी-8, मीरा नगर, चित्तौड़गढ़-312001 (राज.) फोन: 01472-246479, 9461189254 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only