Book Title: Sadhna aur Seva ka Saha Sambandh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/212186/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना और सेवा का सह-सम्बन्ध सामान्यतया साधना व्यक्तिगत और सेवा समाजगत है। दूसरे होता है। जैन दर्शन की मूलभूत अवधारणा सापेक्षवाद है। उसका यह शब्दों में साधना का सम्बन्ध व्यक्ति स्वयं से होता है, अत: वह वैयक्तिक स्पष्ट चिंतन है कि व्यक्ति के बिना समाज और समाज के बिना व्यक्ति होती है; जबकि सेवा का सम्बन्ध दूसरे व्यक्तियों से होता है, अत: सम्भव ही नहीं है। व्यक्ति समाज की कृति है उसका निर्माण समाज उसे समाजगत कहा जाता है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों की यह की कार्यशाला में ही होता है। हमारा वैयक्तिक विकास, भाषा, सभ्यता धारणा है कि साधना और सेवा एक-दूसरे से निरपेक्ष हैं। इनके बीच एवं संस्कार समाज का परिणाम है। पुन: समाज भी व्यक्तियों से ही किसी प्रकार का सह-सम्बन्ध नहीं है। किन्तु मेरी दृष्टि में साधना और निर्मित होता है। अत: व्यक्ति और समाज में हम अंग-अंगी सम्बन्ध सेवा को एक-दूसरे से निरपेक्ष मानना उचित नहीं है, वे एक-दूसरे देखते हैं, किन्तु यह सम्बन्ध ऐसा है जिसमें एक के अभाव में दूसरे की पूरक हैं, क्योंकि व्यक्ति अपने आप में केवल व्यक्ति ही नही है, की सत्ता ही नहीं रहती है। इस समस्त चर्चा से यही सिद्ध होता है वह समाज भी है। व्यक्ति के अभाव में समाज की परिकल्पना जिस कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे में अनुस्यूत हैं। एक के बिना दूसरे प्रकार आधारहीन है, उसी प्रकार समाज के अभाव में व्यक्ति विशेष की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यदि यह सत्य है तो हमें रूप में मानव का भी कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि न केवल मनुष्यों यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सेवा और साधना में में अपितु किसी सीमा तक पशुओं में भी एक सामाजिक परस्पर सह-सम्बन्ध है। आगे इस प्रश्न पर और अधिक गम्भीरता से व्यवस्था देखी जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका चर्चा करेंगे। है कि चीटी और मधुमक्खी जैसे क्षुद्र प्राणियों में भी एक सामाजिक साधना और सेवा के इस सह-सम्बन्ध की चर्चा में सर्वप्रथम व्यवस्था होती है। अत: यह सिद्ध है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे हमें यह निश्चित करना होगा कि साधना का प्रयोजन या उद्देश्य क्या से निरपेक्ष नहीं हैं। यदि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष हैं और है? यह तो स्पष्ट है कि साधना वह प्रक्रिया है जो साधक को साध्य उनके बीच कोई सह-सम्बन्ध है तो फिर हमें यह भी मानना होगा से जोड़ती है। वह साध्य और साधक के बीच एक योजक कड़ी है। कि साधना और सेवा भी परस्पर सापेक्ष हैं और उनके बीच भी एक साधना, साधन के क्रियान्वयन की एक प्रक्रिया है। अत: बिना साध्य सह-सम्बन्ध है। के उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है। साधना में साध्य ही प्रमुख जैन दर्शन में व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति का चित्रण करते हुए तत्त्व है। अत: सबसे पहले हमें यह निर्धारित करना होगा कि साधना स्पष्ट रूप से यह माना गया है कि पारस्परिक सहयोग प्राणीय प्रकृति का वह साध्य क्या है? जिसके लिए साधना की जाती है। दार्शनिक है। इस सन्दर्भ में जैन दार्शनिक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में एक सूत्र दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति स्वरूपत: असीम या पूर्ण है, किन्तु उसकी यह दिया है- परस्परोपग्रहोजीवानाम्। (५/२०) अर्थात् एक-दूसरे का तार्किक पूर्णता किन्हीं सीमाओं में सिमट गई है। असीम होकर के हितसाधन करना प्राणियों की प्रकृति है। प्राणी-जगत् में यह एक भी उसने अपने को ससीम बना लिया है, जिस प्रकार मकड़ी स्वयं स्वाभाविक नियम है कि वे एक-दूसरे के सहयोग या सह-सम्बन्ध के ही अपना जाल बुनकर उसी घेरे में सीमित हो जाती है या बन्ध जाती बिना जीवित नहीं रह सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन का कार्य __ है, उसी प्रकार वैयक्तिक चेतना (आत्मा) भी आकांक्षाओं या ममत्व है-दूसरे के जीवित जीने में एक-दूसरे का सहयोगी बनना। जीवन के घेरे में अपने को सीमित कर बंधन में आ जाती है। वस्तुत: सभी एक-दूसरे के सहयोग से ही चलता है, अत: एक-दूसरे का सहयोग धर्मों और साधना-पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य है- व्यक्ति को ममत्व करना प्राणियों का स्वाभाविक धर्म है। के इस संकुचित घेरे से निकालकर पुन: उसे अपनी अनन्तता या पूर्णता कुछ विचारकों का यह सोचना है कि व्यक्ति स्वभावत: स्वार्थी प्रदान करना है। दूसरे शब्दों में कहें तो सम्पूर्ण धर्मों और साधना-पद्धतियों है, वह केवल अपना हित चाहता है, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा का उद्देश्य आकांक्षा एवं ममत्व के घेरे को तोड़कर अपने को पूर्णता है- यदि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं, तो हमें की दिशा में आगे ले जाना है। जिस व्यक्ति के ममत्व का घेरा जितना यह मानना होगा कि व्यक्ति के हित में ही समाज का हित और समाज संकुचित या सीमित होता है वह उतना ही क्षुद्र होता है। इस ममत्व के हित में ही व्यक्ति का हित समाया हुआ है। दूसरे शब्दों में के घेरे को तोड़ने का सहजतम उपाय है- इसे अधिक से अधिक सामाजिक-कल्याण और वैयक्तिक-कल्याण एक-दूसरे से पृथक् व्यापक बनाया जाए। जो व्यक्ति केवल अपने दैहिक हि-साधन का नहीं है। प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है, उसे निकृष्ट कोटि का व्यक्ति. कहते हैं। यदि व्यक्ति समाज का मूलभूत घटक है तो हमें यह मानना होगा ऐसे व्यक्ति स्वार्थी होते हैं। किन्तु जो व्यक्ति अपनी दैहिक वासनाओं कि समाज के कल्याण में व्यक्ति का कल्याण भी निहित है। व्यक्तियों से ऊपर उठकर परिवार या समाज के कल्याण की दिशा में प्रयत्न के अभाव में समाज का अस्तित्व नहीं है। समाज के नाम पर जो या पुरुषार्थ करता है उसे उतना ही महान् कहा जाता है। वैयक्तिक कुछ किया जाता है या होता है उसका सीधा लाभ तो व्यक्ति को ही हितों से पारिवारिक हित, पारिवारिक हितों से सामाजिक हित, सामाजिक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हितों से राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय हितों से मानवीय हित और मानवीय है, वही श्रेष्ठ है, क्योंकि वही मेरी आज्ञा का पालन करता है। इसका हितों से प्राणी-जगत् के हित श्रेष्ठ माने जाते हैं। जो व्यक्ति इनमें उच्च, तात्पर्य यह है कि वैयक्तिक जप, तप, पूजा और उपासना की अपेक्षा उच्चतर और उच्चतम की दिशा में जितना आगे बढ़ता है उसे उतना जैन धर्म में भी संघ-सेवा को अधिक महत्त्व दिया गया है। ही महान् कहा जाता है। उसमें संघ या समाज का स्थान प्रभु से भी अपर है, क्योंकि किसी व्यक्ति की महानता की कसौटी यही है कि वह कितने तीर्थकर भी प्रवचन के पूर्व 'नमो तित्थस्स' कह कर संघ को वंदन व्यापक हितों के लिए कार्य करता है। वही साधक श्रेष्ठतम समझा करता है। संघ के हितों की उपेक्षा करना सबसे बड़ा अपराध माना जाता है जो अपने जीवन को सम्पूर्ण प्राणी-जगत् के हित के लिए गया था। जब आचार्य भद्रबाहु ने अपनी ध्यान-साधना में विध्न आयेगा, समर्पित कर देता है। इस प्रकार साधना का अर्थ हुआ लोकमंगल यह समझ कर अध्ययन करवाने से इन्कार किया तो संघ ने उनसे या विश्वमंगल के लिए अपने आप को समर्पित कर देना। साधना वैयक्तिक यह प्रश्न किया था कि संघहित और आपकी वैयक्तिक साधना में कौन हितों से उपर उठकर प्राणी-जगत् के हित के लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ श्रेष्ठ है? अन्ततोगत्वा उन्हें संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी। यही करना है, तो वह सेवा से पृथक् नहीं है। बात प्रकारान्तर से हिन्दू धर्म में भी कही गई है। उसमें कहा गया कोई भी धर्म या साधना-पद्धति ऐसी नहीं है जो व्यक्ति को अपने है कि वे व्यक्ति जो दूसरों की सेवा छोड़कर केवल प्रभु का नाम स्मरण वैयक्तिक हितों या वैयक्तिक कल्याण तक सीमित रहने को कहती है। करते रहते हैं, वे भगवान् के सच्चे उपासक नहीं हैं। धर्म का अर्थ भी लोकमंगल की साधना ही है। गोस्वामी तुलसीदास इस प्रकार समस्त चर्चा से यह फलित होता है कि सेवा ही ने धर्म की परिभाषा करते हुए स्पष्ट रूप से कहा है सच्चा धर्म है और यही सच्ची साधना है। यही कारण है कि जैन परहित सरिस धरम नहि भाई। धर्म में तप के जो विभिन्न प्रकार बताए गए हैं उनमें वैयावृत्य सेवा पर पीड़ा समनहिंअधमाई।। को एक महत्त्वपूर्ण आभ्यन्तर तप माना गया है। तप में सेवा का अन्तर्भाव तुलसीदास जी द्वारा प्रतिपादित इसी तथ्य को प्राचीन आचार्यों यही सूचित करता है कि सेवा और साधना अभिन्न है। मात्र यही नहीं ने “परोपकाराय पुण्याय, पापाय पर पीडनम्' अर्थात् परोपकार करना जैन परम्परा में तीर्थकर पद, जो साधना का सर्वोच्च साध्य है, की पुण्य या धर्म है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है कहकर परिभाषित प्राप्ति के लिए जिन १६ या २० उपायों की चर्चा की गयी है उसमें किया था। पुण्य-पाप या धर्म-अधर्म के बीच यदि कोई सर्वमान्य सेवा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। विभाजक रेखा है तो वह व्यक्ति की लोकमंगल की या परहित की गीता में भी लोकमंगल को भूतयज्ञ प्राणियों की सेवा का नाम भावना ही है जो दूसरों के हितों के लिए या समाज-कल्याण के लिए देकर यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। इस प्रकार जो यज्ञ पहले वैयक्तिक अपने हितों का समर्पण करना जानता है, वही नैतिक है, वही धार्मिक हितों की पूर्ति के लिए किए जाते थे, उन्हें गीता ने मानव सेवा से है और वही पुण्यात्मा है। लोकमंगल की साधना को जीवन का एक जोड़कर एक महत्त्वपूर्ण क्रान्ति की थी। उच्च आदर्श माना गया था, यही कारण था कि भगवान् बुद्ध ने अपने धर्म का अर्थ दायित्व या कर्तव्य का परिपालन भी है। कर्तव्यों शिष्यों को यह उपदेश दिया- “चरत्थ भिक्खवे चारिक्कं बहुजनहिताय या दायित्वों को दो भागों में विभाजित किया जाता है— एक वे जो बहुजनसुखाय' अर्थात् हे भिक्षुओं! बहुजनों के हित के लिए और स्वयं के प्रति होते हैं और दूसरे वे जो दूसरे के प्रति होते हैं। यह बहुजनों के सुख के लिए प्रयत्न करो। न केवल जैन धर्म, बौद्ध धर्म ठीक है कि व्यक्ति को अपने जीवन रक्षण और अस्तित्व के लिए या हिन्दू धर्म की अपितु इस्लाम और ईसाई धर्म की भी मूलभूत शिक्षा भी कुछ करना होता है किन्तु इसके साथ-साथ ही परिवार, समाज, लोकमंगल या सामाजिक हित-साधन ही रही है। इससे यही सिद्ध राष्ट्र या मानवता के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य होते हैं। व्यक्ति के होता है कि सेवा और साधना दो पृथक्-पृथक् तथ्य नहीं हैं। सेवा स्वयं के प्रति जो दायित्व हैं वे ही दूसरे की दृष्टि से उसके अधिकार में साधना और साधना में सेवा समाहित है। यही कारण था कि वर्तमान कहे जाते हैं और दूसरों के प्रति उसके जो दायित्व हैं वे उसके कर्तव्य युग में महात्मा गांधी ने भी दरिद्रनारायण की सेवा को ही सबसे बड़ा कहे जाते हैं। वैसे तो अधिकार और कर्तव्य परस्पर सापेक्ष ही है। धर्म या कर्तव्य कहा। जो मेरा अधिकार है वह दूसरों के लिए मेरे प्रति कर्तव्य हैं और जो जो लोग साधना को जप, तप, पूजा, उपासना या नाम स्मरण दूसरों के अधिकार हैं वे ही मेरे लिए उनके प्रति कर्तव्य हैं। दूसरों तक सीमित मान लेते हैं, वे वस्तुत: एक भ्रान्ति में ही हैं। यह प्रश्न के प्रति अपने कर्तव्यों का परिपालन ही सेवा है। जब यह सेवा बिना प्रत्येक धर्म साधना-पद्धति में उठा है कि वैयक्तिक साधना अर्थात् जप, प्रतिफल की आकांक्षा के की जाती है तो सही साधना बन जाती है। तप, ध्यान तथा प्रभु की पूजा-उपासना और सेवा में कौन श्रेष्ठ है? इस प्रकार सेवा और साधना अलग-अलग तथ्य नहीं रह जाते हैं। जैन परम्परा में भगवान् महावीर से यह पूछा गया कि एक व्यक्ति आपकी सेवा साधना हैं और साधना धर्म हैं। अत: सेवा, साधना और धर्म पूजा-उपासना या नाम स्मरण में लगा हुआ है और दूसरा व्यक्ति ग्लान एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। एवं रोगी की सेवा में लगा हुआ हैं, इनमें कौन श्रेष्ठ है? प्रत्युत्तर सामान्यतया साधना का लक्ष्य मुक्ति माना जाता है और मुक्ति में भगवान महावीर ने कहा था कि जो रोगी या ग्लान की सेवा करता वैयक्तिक होती है। अत: कुछ विचारक सेवा और साधना में किसी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना और सेवा का सह-सम्बन्ध ५०७ प्रकार के सह-सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करते हैं, उनके अनुसार वैयक्तिक समाप्त होकर उन्हें निर्वाण की प्राप्ति न हो। जैन परम्परा में भी तीर्थंकर मुक्ति के लिए किया गया प्रयत्न ही साधना है और ऐसी साधना का को लोककल्याण का आदर्श माना गया है। उसमें कहा गया है कि सेवा से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु भारतीय चिन्तकों ने इस प्रकार समस्त लोक की पीड़ा को जानकर तीर्थंकर धर्मचक्र का प्रवर्तन करते की वैयक्तिक मुक्ति को उचित नहीं माना है। है। यह स्पष्ट है कि कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् तीर्थकर के लिए जब तक वैयक्तिकता या 'मैं' है, अहंकार है और जब तक अहंकार कुछ भी करना शेष नहीं रहता है, वे कृत-कल्प होते हैं फिर भी लोकमंगल है, मुक्ति सम्भव नहीं है। जब तक 'मैं' या 'मेरा' है, राग है और के लिए ही वे धर्मचक्र का प्रवर्तन कर अपना शेष जीवन लोकहित राग मुक्ति का बाधक है। वस्तुत: भारतीय दर्शनों में साधना का परिपाक में समर्पित कर देते हैं। यह भारतीय दर्शन और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि के विकास में माना गया है। उद्गार है। इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव ही दीन और दुःखीजनों गीता में कहा गया है कि जो सभी प्राणियों को आत्मा के रूप में को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील बने रहने की अभिलाषा देखता है वही सच्चे अर्थ में द्रष्टा है और वही साधक है। जब व्यक्ति करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है। के जीवन में इस आत्मवत दृष्टि का विकास होता है तो दूसरों की भवेयमुपजीव्योऽहं, यावतसर्वे न निर्वृता। पीड़ा भी उसे अपनी पीड़ा लगने लगती है। इस प्रकार दुःख कातरता वस्तुत: मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नही है। इस सम्बन्ध को साधना की उच्चतम स्थिति माना गया है। रामकृष्ण परमहंस जैसे में विनोबा भावे के उद्गार विचारणीय हैंउच्चकोटि के साधकों के लिए यह कहा जाता है कि उन्हें दूसरे की जो समझता है कि मोक्ष अकेला हथियाने वस्तु है, पीड़ा अपनी पीड़ा लगती थी। जो साधक साधना की इस उच्चतम वह उसके हाथ से निकल आता है 'मैं' के आते, स्थिति में पहुँच जाता है और दूसरों की पीड़ा को भी अपनी पीड़ा ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य, समझने लगता है, उसके लिए वैयक्तिक मुक्ति का कोई अर्थ नहीं रह ही गलत है। 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है, जाता है। श्रीमद्भागवत् के सप्तम स्कन्ध में प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से अध्यात्म और विज्ञान, पृ० ७१ कहा है कि : इसी प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति है। 'मैं' अथवा प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः। अहं भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि में, समाज मौन चरनिंतविजने न तु परार्थ निष्ठाः। में लीन कर देना होता है। आचार्य शान्तिदेव लिखते हैंनेतान् विहाय कृपणां विमुमुक्षुरेकः।। सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थ च मे मनः। प्रायः कुछ मुनिगण अपनी मुक्ति के लिए वन में अपनी चर्या त्यक्तवयं चेन्मया सर्व वर सत्वेषु दीसतां।।' करते हैं और मौन धारण करते हैं, लेकिन उनमें परार्थनिष्ठा नहीं है। इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी मैं तो दु:खीजनों को छोड़कर अकेला मुक्त होना भी नहीं है, गलत है। मोक्ष वस्तुत: दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के चाहता हूँ। अधिकांश दुःख मानवीय संवेगों के कारण ही हैं। अत: मुक्ति, ईर्ष्या, जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों को पीड़ा से कराहता देखकर केवल द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों से मुक्ति पाने में है और इस रूप अपनी मुक्ति की कामना करता है वह निकृष्ट कोटि का है। अरे! और में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख, तो क्या स्वयं परमात्मा भी दूसरों की पीड़ाओं को दूर करने के लिए अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता ही संसार में जन्म धारण करते हैं। हिन्दू परम्परा में जो अवतार की और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। अवधारणा है, उसमें अवतार का उद्देश्य यही माना गया है कि वे कुछ लोग अहिंसा की अवधारणा को स्वीकार करके भी उसकी सत्पुरुषों के परित्राण के लिए ही जन्म धारण करते हैं। जब परमात्मा मात्र नकारात्मक अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि अहिंसा भी दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पता देखकर उसकी पीड़ा का अर्थ दूसरों को पीड़ा नहीं देने तक ही सीमित है, जो दूसरों के को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं, तो फिर केवल अपनी मुक्ति दुःख और पीड़ाओं को दूर करने का दायित्व-बोध कराने का भान की कामना करने वाला साधक उच्चकोटि का साधक कैसे हो सकता कराता है। वस्तुतः व्यक्ति में जब तक दूसरों के दुःख और पीड़ा को है? बौद्ध परम्परा में आचार्य शान्तिरक्षित ने बोधिचर्यावतार में कहा अपने दुःख और पीड़ा मानकर उसके निराकरण का प्रयत्न नहीं होता है कि दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पते देखकर केवल अपने है तब तक करुणा का परम विकास सम्भव नहीं है। व्यक्ति दूसरे को निर्वाह की कामना करना कहाँ तक उचित है। अरे! दूसरों के दुःखों दुःख और पीड़ा में तड़पता देखकर उसके निराकरण का कोई प्रयत्न को दूर करने में जो सुख मिलता है वह क्या कम है जो केवल स्वयं नहीं करता है तो यह कहना कठिन है कि उसके हृदय में करुणा का की विमुक्ति की कामना की जाए। विकास हुआ है। और जब तक करुणा का विकास नहीं होता तब बौद्ध परम्परा के महायान् सम्प्रदाय में बोधिसत्व का आदर्श सभी तक अहिंसा का परिपालन सम्भव नहीं है। के दुःखों की विमुक्ति होता है। वह अपने वैयक्तिक निर्वाण को भी परम कारुणिक व्यक्ति ही अहिंसक हो सकता है। जिनका हृदय अस्वीकार कर देता है, जब तक संसार के सभी प्राणियों के दुःख दूसरों को दुःख और पीड़ा में तड़पता देखकर भी निष्क्रिय बना रहे Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उसे हम किस अर्थ में अहिंसक कहेंगे। मंगल कामना हैसमाज को एक आगिक संरचना माना गया है। शरीर में हम सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु / सर्वे सन्तु निरामयाः। स्वाभाविक रूप से यह प्रक्रिया देखते हैं कि किसी अंग की पीड़ा सर्वे भद्राणि पश्यतु। मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्।। को देखकर दूसरा अंग उसकी सहायता के लिए तत्काल आगे आता लोकमंगल की उसकी सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य है। जब शरीर का कोई भी अंग दूसरे अंग की पीड़ा में निष्क्रिय नहीं शान्तिदेव के शिक्षा समुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है। अतः मैं रहता तो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि समाज रूपी शरीर में उसकी हिन्दी में अनुदित निम्न पंक्तियों से अपने इस लेख का समापन व्यक्ति रूपी अंग दूसरे अंग की पीड़ा में निष्क्रिय बना रहे। अतः हमें करना चाहूँगा। यह मानकर चलना होगा कि अहिंसा मात्र नकारात्मक नहीं है, उसमें इस दु:खमय नरलोक में, करुणा और सेवा का सकारात्मक पहलू भी है। यदि हम अहिंसा को जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं; साधना का आवश्यक अंग मानते हैं तो हमें सेवा को भी साधना के जितने बहुधन्धी विवेक विहीन है। एक अंग के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा और इससे यही सिद्ध जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदी है, होता है कि सेवा और साधना में एक सम्बन्ध है। सेवा के अभाव वे मुक्त हो निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, में साधना सम्भव नहीं है। पुन: जहाँ सेवा है वहाँ साधना है वस्तुतः छुटे दलन के फनद से, वे व्यक्ति ही महान् साधक हैं जो लोकमंगल के लिए अपने को हो ऐसा जग में, दुःख से विचले न कोई, समर्पित कर देते हैं। उनका निष्काम समपर्ण-भाव साधना का सर्वोकृष्ट वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई, रूप है। असन्मार्ग धरे न कोई, अन्त में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, पूर्णतया लोकमंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र सबका ही परम कल्याण। सन्दर्भ: अध्यात्म और विज्ञान, विनोबा भावे, पृ०७१। 1. बोधिचर्यावतार, संपा०- श्री परशुराम शर्मा, प्रका० मिथिला 3. बोधिचार्यावतार, संपा०- श्री परशुराम शर्मा, प्रका०- मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, 1960, 3/21 / विद्यापीठ, दरभंगा, 1960, 3/11 /