Book Title: Restoration of Original Language of Ardhamagadhi Text
Author(s): K R Chandra
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रेस्टोरेशन ओफ धी ओरिजिनल लेंग्वेज ओफ धी अर्धमागधी टेक्स्ट्स Restoration of the Original Language of Ardhamagadhi Texts एक परिचय के. आर. चन्द्रा 'अर्धमागधी ग्रंथोनी मूळभाषानी परिस्थापना' नामक मारा आ ग्रंथमा पहेला भागमां अर्धमागधी प्राकृत भाषामां रचायेलां जैन आगमोमां जे विषयवस्तु, शैली अने भाषिक दृष्टिए प्राचीनतम गणाय छे. ते आचारांगसूत्रना प्रथम श्रुतस्कंध (प्रथम भाग)मांथी दश शब्दो पसंद करीने तेमना जे जे पाठान्तरो ताडपत्रीय अने कागळनी हस्तप्रतोमा मळे छे. तेमनुं समालोचनात्मक अध्ययन करवामां आव्युं छे. ए दस शब्दो आ प्रमाणे छ : यथा, तथा, प्रवेदितम्, एकदा, एकः-एके, एकेषाम्, औपपादिक / औपपातिक, लोकम्, लोके, अने क्षेत्रज्ञ. दरेक शब्दना जुदा जुदा जे जे प्राकृत रूपान्तरो मळे छे ते आ प्रमाणे छे. यथाः अधा, अहा, जधा, जहा; तथाः तधा, तहा; प्रवेदितमः पवेदितं, पवेतितं, पवेतियं; एकदा: एकदा, एगदा, एगता, एगया; एकः-एके: एके, एगे; एकेषाम्ः एगेषाम्, एकेसिं, एगेसिं; औपपादिक / औपपातिकः उववाइए, उववाइते , उववातिए, उववादिए, उववादिते , उववातिए, ओववाइये, ओववातिए, अने ओववादि; लोकम्: लोकं, लोग, लोय; लोकेः, लोगस्सि लोकंसि, लोगंसि, लोयंसि, लोकम्मि, लोगमि, लोयंमि, अने क्षेत्रज्ञः खेत्तन, खेदन, खेतन, खेअन्न, खेयन्न, खेयण्ण, खेत्तण्ण, खित्तण्ण, खेदण्ण, अने खेअण्ण, आ बधां पाकृत रूपान्तरोने आधारे आपणे स्पष्ट समजी शकीए छीए के दरेक शब्दनां प्राकृत भाषाओमां जेटला विविध रूपो ध्वनिपरिवर्तनना नियमना आधारे बनी शके लगभग तेटला रूपो अर्धमागधी साहित्यनां प्राचीनमा प्राचीन अंशमां मळी आवे छे. भ, महावीरे जे मूळ उपदेशो आपेला तेनो संग्रह 'आचारांग'मां छे. एटले के आ ग्रंथमां भाषानुं स्वरूप जूनामां जूनुं होवू जोईए पण आपणे जोई शकीए के उपर बतावेल शब्दोनां बे, त्रण, चार, छ ज नही पण अग्यार अग्यार प्राकृत रूपो मळे छे. तो शुं आ बध रो एक ज काळमां एक ज स्थळे * प्रः शक : जैन विद्याविकास फंड, १९९४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) प्रचलित अथवा बीजी रीते कहीए तो भ महावीरनां उपदेशोने शब्दबन्ध तेमना गणधरोए आवा जातजातना प्रयोगो एक साथे एक ज ग्रंथमां कर्या हशे ? आधुनिक भाषाशास्त्रना औतिहासिक अने तुलनात्मक अध्यनना आधारे पुरवारय करी शकाय के मध्यम भारतीय आर्य भाषा भूमिकाना विविध स्तरो अने क्षेत्रोमां प्रचलित आ विविध रूपो छे. जैन धर्मनो प्रचार पूर्व भारतमांथी उत्तरभारत (मथुरा) अने पछी पश्चिम (गुजरात राजस्थान ) मां जेम जेम थतो गयो तेम तेम लोकभाषानो प्रभाव गुरु-शिष्य परंपराए मौखिक रूपे जळवायेला आगमशास्त्र उपर वधतो गयो अने छेक पांचमी सदीनी महाराष्ट्री प्राकृतभाषानो रंग ए प्राचीन प्राकृतने अंतिमवाचना - प्रमुख देवर्धिगणिना काळ सुधी लागतो गयो. परिणामे आजे जैन अर्धमागधी आगम ग्रंथोमां महाराष्ट्री प्राकृतनो वधारे प्रभाव जोवा मळे छे. एटले ज तो आगमप्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजीने पण कहेवुं पड्युं के आगमोनी भाषा खीचडी थई गई छे. अने जैन आगमोना सुज्ञात अध्येता पं. श्री बेचरभाईनी दृष्टिए पण आगमोमां अत्यारे भाषानुं जे स्वरूप मळे छे मूळ स्वरूप नथी. काळक्रम तेमज स्थाळांतर आ बन्नेना कारणे लहियाओ अने उपदेशकोनी उपर ते वखतनी चालु बोलचालनी भाषामां घेरी असर पडेली जणाय छे. छतां हस्तप्रतोमां जळवायेला केटलाक पाठो उपरथी कोईपण भाषाविदने जणाई आवशे के क्युं रूप प्राचीन छे अने क्युं रूप पछीना काळनुं छे. अत्यार सुधी आगमोनुं जे सम्पादन थयुं छे. तेमां (१) जे जे पाठ पाचीन ताडपत्रीय प्रतोमां मळतो होय अने (२) जे अधिक प्रतोमां मळतो होय अने (३) जे टीकाकार-सम्मत होय ते पाठ लेवानो आग्रह रह्यो छे. पण एमां भाषिक दृष्टिनो बिलकुल अभाव जणाय छे. आ ग्रंथमां में प्रस्तुत करेली सामग्री परथी जणाई आवशे. के कागळनी 'जे' संज्ञक प्रतमां प्राचीन पाठ मळे छे. ज्यारे 'सं' संज्ञक प्राचीनतम ताडपत्री प्रतिमां अनेक स्थल अवाचीन पाठो मळे छे. कोई पण प्रतमां (ताडपत्र के कागळनी) एक ज शब्दनां एक सरखा रूप मळतां ज नथी तेथी जणाई आवे छे के हस्तप्रतोनी नकलो करती वखते स्वच्छंदता प्रवर्ती छे अने मूळ भाषानां साचा स्वरूपनो पछीना लहियाओने ख्याल होय पण क्यांथी ? अर्धमागधी भाषानां मौलिक लक्षणो शुं छे ए विषेनो कोई व्याकरण ग्रंथ ज न मळतो होय अथवा तो कोई पण जग्याए एना विषेनी विशद चर्चा ज न थयी होय तो संपादको पण शुं करी शके, Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (62) शेनो आधार लईने तेओ संपादन करे ? अद्यपर्यन्त जेटला संस्करणो आगम ग्रंथोना प्रकाशित थया छे ते बधामां पाठोथी एकरूपता जोवा मळती नथी. आ प्रकारनी विचारणा अने तपास उपरथी एम कहेवा, थाय छे के दरेक आगम ग्रंथनी जेटली हस्तप्रतो मळती होय तेमाथी बधा ज पाठान्तरो नोंधवा जोईए अने तेना आधारे भाषानां प्राचीन स्वरूप साथे जे जे पाठो मेळ खाता होय ते ते पाठोने स्वीकारीने जैन आगमसाहित्यनुं फरीथी संपादन करवू जोईए. आवो प्रयास करवो अत्यंत आवश्यक छे. मारा अध्ययन अनुसार जे दश शब्दोनी मे ग्रंथमां चर्चा करी छे तेमनुं प्राचीन स्वरूप नीचे प्रमाणे होवानुं कही शकाय छे : 1. यथाः अधा, 2 तथाः तधा, 3. प्रवेदितम्: पवेदितं 4. एकदाः एकदा 5 एकः, एके-एके 6. एकेषाम्ः एकेसि 7. औपपादिक: ओपपादिय, औपपातिक ओपपातिय, 8. लोकम्: लोकं. 9. लोके: लोकस्सि. 10. क्षेत्रज्ञ: खेतन्न. ग्रंथना बीजा भागमा आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषितानि, उतराध्ययन, दसवैकालिक सूत्र अने आचा., सूत्रकृ., उत्तरा नी संस्कृत वृतिओमाथी केटलाक शब्दो म.जै.वि.ना संस्करणोमांथी तेमना पाठान्तरो साथे नोंधावामां आव्या छे जेओ विषे पण आज समालोचनात्मक अध्ययन करी शकाय. आ चर्चानो निष्कर्ष ए छे के आग्रंथोनी हस्तप्रतोमा मळतां बधां प्राचीनगम पाठांतरोनुं संकलन करीने जैन आगमोनुं भाषिक दृष्टिए फरीथी संपादन करवू ए एक अत्यंत आवश्यक कार्य छे. * * * For Private Personal Use Only