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राजगृहकी मेरी यात्रा और अनुभव इतिहासमें राजगृहका स्थान
श्रद्धेय पं० जुगलकिशोर मुख्तारका अरसेसे यह विचार चल रहा था कि राजगृह चला जाय ओर वहाँ कुछ दिन ठहरा जाय तथा वहांकी स्थिति, स्थानों, भग्नावशेषों और इतिहास तथा पुरातत्त्व सम्बन्धी तथ्योंका अवलोकन किया जाय ।
राजगृहका इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्राट् विम्बसारके, जो जैनपरम्पराके दिगम्बर और श्वेताम्बर तथा बौद्ध साहित्य में राजा श्रेणिकके नामसे अनश्रत हैं और मगधसाम्राज्यके अधीश्वर एवं भगवान् महावीर की धर्म-सभाके प्रधान श्रोता माने गये हैं, मगधसाम्राज्यकी राजधानी इसी राजगहमें थी । यहाँ उनका किला अब भी परातत्त्व विभागके संरक्षणमें है और जिसकी खदायी होने वाली है। एक पुराना किला और है जो कृष्णके समकालीन जरासन्धका कहा जाता है। वैभार पर्वतके नीचे उधर तलहटीमें पर्वतकी शिला काट कर एक आस्थान बना है और उसके आगे एक लंबा चौड़ा मैदान है। ये दोनों स्थान राजा श्रेणिकके खजाने और बैठकके नामसे प्रसिद्ध है। तीसरे-चौथे पहाड़के मध्यवर्ती मैदानमें एक बहुत विशाल प्राचीन कुआँ भूगर्भसे निकाला गया है और जिसे मिट्टीसे पूर भी दिया गया है । इसके ऊपर टीन की छतरी लगा दी गई है । यह भी पुरातत्त्व-विभागके संरक्षणमें है। इसके आसपास कई पुराने कुएँ और वेदिकाएँ भी खुदाईमें निकली हैं । किंवदन्ती है कि रानी चेलना प्रतिदिन नये वस्त्रालंकारोंको पहिनकर पुराने वस्त्रालंकारोंको इस कुएं में डाला करती थीं। दूसरे और तीसरे पहाड़के मध्यमें गृद्धकूट पर्वत है, जो द्वितीय पहाडका ही अंश है
और जहाँ महात्मा बुद्धकी बैठकें बनी हुई है और जो बौद्धोंका तीर्थस्थान माना जाता है। इसे भी हम लोगोंने गौरसे देखा । पुराने मन्दिरोंके अवशेष भी पड़े हुए हैं । विपुलाचल कुछ चौड़ा है और वैभारगिरि चौड़ा तो कम है पर लम्बा अधिक है। सबसे पुरानी एक चौबीसी भी इसी पहाड़ पर बनी हुई है जो प्रायः खंडहरके रूपमें स्थित है और पुरातत्त्व विभागके संरक्षणमें है। अन्य पहाड़ोंके प्राचीन मन्दिर और खंडहर भी उसीके अधिकार में कहे जाते हैं। इसी वैभारगिरिके उत्तरमें सप्तपर्णी दो गुफाएँ हैं जिनमें ऋषि लोग रहते तलाये जाते हैं । गफाएँ लम्बी दर तक चली गई है। वास्तवमें ये गफाएँ सन्तोंके रहने के योग्य हैं। ज्ञान और ध्यानकी साधना इनमें की जा सकती है। परन्तु आजकल इनमें चमगीदड़ोंका वास है और उसके कारण इतनी बदबू है कि खड़ा नहीं हुआ जाता।
भगवान महावीरका सैकड़ों वार यहाँ राजगहमें समवसरण आया है और विपुलगिरि तथा वैभारगिरि पर ठहरा है। और वहींसे धर्मोपदेशकी गङ्गा बहाई है। महात्मा बुद्ध भी अपने संघ सहित यहाँ राजगृहमें अनेक वार आये हैं और उनके उपदेश हुए हैं । राजा श्रेणिकके अलावा कई बौद्ध और हिन्दू सम्राटोंकी भी राजगृहमें राजधानी रही है। इस तरह राजगह जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनों संस्कृतियोंके सङ्गम एवं समन्वयका पवित्र और प्राचीन ऐतिहासिक तीर्थ स्थान है, जो अपने अंचलमें अतीतके विपुल वैभव और गौरवको छिपाये हुए है और वर्तमानमें उसकी महत्ताको प्रकट कर रहा है।
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यहाँके कुण्ड और उनका महत्त्व
यहाँके लगभग २६ कुंडोंने राजगृहकी महत्ताको और बढ़ा दिया है । दूर-दूरसे यात्री और चर्म रोगादिके रोगी इनमें स्नान करनेके लिये रोजाना हजारोंकी तादाद में आते रहते हैं। सर्यकुण्ड, ब्रह्मकुण्ड और सप्तधाराओंका जल हमेशा गर्म रहता है और बारह महीना चालू रहते हैं । इनमें स्नान करनेसे वस्तुतः थकान, शारीरिक क्लान्ति और चर्मरोग दूर होते हए देखे गये हैं। लकवासे ग्रस्त एक रोगीका लकवा दो तीन महीना इनमें स्नान करने से दूर हो गया। कलकत्ताके सेठ प्रेमसुख जी को एक अङ्गमें लकवा हो गया। वे भी वहाँ ठहरे हैं और उनमें स्नान करते हैं । पूछनेसे मालूल हुआ कि उन्हें कुछ आराम है । हम लोगोंने भी कई दिन स्नान किया और प्रत्यक्ष फल यह मिला कि थकान नहीं रहती थी-शरीरमें फरती आजाती थी। राजगृहके उपाध्याय-पण्डे
कुण्डोंपर जब हमने वहाँके सैकड़ों उपाध्यायों और पण्डोंका परिचय प्राप्त किया तो हमें ब्राह्मणकूलोत्पन्न इन्द्रभूति और उनके विद्वान् पाँचसौ शिष्योंकी स्मति हो आई और प्राचीन जैन साहित्यमें उल्लिखित उस घटनामें विश्वासको दृढ़ता प्राप्त हुई, जिसमें बतलाया है कि वैदिक महाविद्वान् गौतम इन्द्रभूति अपने पाँचसौ शिष्योंके साथ भगवान महावीरके उपदेशसे प्रभावित होकर जैनधर्म में दीक्षित हो गया था और उनका प्रधान गणधर हुआ था। आज भी वहाँ सैकड़ों ब्राह्मण 'उपाध्याय' नामसे व्यवहृत होते हैं । परन्तु आज वे नाममात्रके उपाध्याय हैं और यह देख कर तो बड़ा दुःख हुआ कि उन्होंने कुण्डोंपर या अन्यत्र यात्रियोंसे दो-दो, चार-चार पैसे माँगना ही अपनी वृत्ति-आजीविका बना रखी है। इससे उनका बहुत ही नैतिक पतन जान पड़ा। यहाँके उपाध्यायोंको चाहिए कि वे अपने पूर्वजोंकी कृतियों और कीत्तिको ध्यानमें लायें और अपनेको नैतिक पतनसे बचायें। श्वेताम्बर जैनधर्मशाला और मन्दिर
यहाँ श्वेताम्बरोंकी ओरसे एक विशाल धर्मशाला बनी हुई है, जिसमें दिगम्बर धर्मशालाकी अपेक्षा यात्रियोंको अधिक आराम है। स्वच्छता और सफाई प्रायः अच्छी है । पाखानोंकी व्यवस्था अच्छी है-यंत्रद्वारा मल-मत्रको बहा दिया जाता है. इससे बदब या गन्दगी नहीं होती। यात्रियोंके लिये भोजनके वास्ते कच्ची और पक्की रसोईका एक ढाबा खोल रखा है. जिसमें पाँच वक्त तकका भोजन फ्री है और शेष समयके लिये यात्री आठ आने प्रति बेला शुल्क देकर भोजन कर सकता है और आटे, दाल, लकड़ीकी चितासे मुक्त रहकर अपना धर्मसाधन कर सकता है। भोजन ताजा और स्वच्छ मिलता है। मैनेजर बा० कन्हैयालालजी मिलनसार सज्जन व्यक्ति हैं। इन्हींने हमें धर्मशाला आदिकी सब व्यवस्थासे परिचय कराया। श्वेताम्बरोंके अधिकारमें जो मन्दिर है वह पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंका था। अब वह पारस्परिक समझौतेके द्वारा उनके अधिकार में चला गया है । चार जगह दर्शन हैं । देखने योग्य है । बा० छोटेलालजीके साथ १३ दिन
कई बातोंपर विचार-विमर्श करनेके लिये बा० छोटेलालजी कलकत्ता ता० ५ मार्चको राजगृह आ गये थे और वे ता० १८ तक साथ रहे । आप काफी समयसे अस्वस्थ चले आ रहे हैं-इलाज भी काफी करा चके हैं, लेकिन कोई स्थायी आराम नहीं हुआ। यद्यपि मेरी आपसे दो-तीन वार पहले भेंट हो चुकी थी। परन्तु न तो उन भेंटोंसे आपका परिचय मिल पाया था और न अन्य प्रकारसे मिला था । परन्तु अबकी बार उनके निकट सम्पर्कमें रह कर उनके व्यक्तित्व, कर्मण्यता, प्रभाव और विचारकताका आश्चर्यजनक परिचय
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मिला । बाबू साहबको मैं एक सफल व्यापारी और रईसके अतिरिक्त कुछ नहीं जानता था, पर मैंने उन्हें व्यक्तित्वशाली, चिन्ताशील और कर्मण्य पहले पाया-पीछे व्यापारी और रईस। आप अपनी तारीफसे बहत्त दूर रहते हैं और चुपचाप काम करना प्रसन्द करते हैं। आप जिस उत्तरदायित्वको लेते हैं उसे पूर्णतया निभाते हैं । आपको इससे बड़ी घणा है जो अपने उत्तरदायित्वको पूरा नहीं करते । आपके हृदयमें जैन संस्कृतिके प्रचारकी बड़ी तीव्र लगन है। आप आधुनिक ढंगसे उसका अधिकाधिक प्रचार करने के लिए उत्सुक हैं। जिन बड़े-बड़े व्यक्तियोंसे, विद्वानोंसे और शासकोंसे अच्छे-अच्छोंकी मित्रता नहीं हो पाती उन सबके साथ आपको मित्रता-दोस्ताना और परिचय जान कर मैं बहुत आश्चर्यान्वित हुआ। सेठ पद्मराजजी रानीवाले और अर्जुनलालजी सेठीके सम्बन्धकी कई ऐसी बातें आपने बतलाईं, जो जैन इतिहासकी दृष्टि से संकलनीय हैं । आपके एकहरे दुर्बल शरीरको देख कर सहसा आपका व्यक्तित्व और चिन्ताशीलता मालूम नहीं होती, ज्यों-ज्यों आपके सम्पर्क में आया जाये त्यों-त्यों वे मालूम होते जाते हैं। वस्तुतः समाजको उनका कम परिचय मिला है। यदि वे सचमुचमें प्रकट रूपमें समाजके सामने आते और अपने नामको अप्रकट न रखते तो वे सबसे अधिक प्रसिद्ध और यशस्वी बनते । अपनी भावना यही है कि वे शीघ्र स्वस्थ हों और उनका संकल्पित वीरशासनसंघका कार्य यथाशीध्र प्रारम्भ हो । राजगृहके कुछ शेष स्थान
बर्मी बौद्धोंका भी यहाँ एक विशाल मन्दिर बना हआ हैं । आज कल एक वर्मी पुङ्गी महाराज उसमें मौजूद हैं और उन्हींकी देखरेख में यह मन्दिर है । जापानियोंकी ओरसे भी बौद्धोंका एक मन्दिर बन रहा था, किन्तु जापानसे लड़ाई छिड़ जानेके कारण उसे रोक दिया गया था और अब तक रुका पड़ा है। मुसलमानोंने भी राजगृहमें अपना तीर्थ बना रखा है । विपुलाचलसे निकले हुए दो कुण्डोंपर उनका अधिकार है । एक मस्जिद भी बनी हुई है । मुस्लिम यात्रियोंके ठहरने के लिये भी वहीं स्थान बना हुआ है और कई मुस्लिम वासिंदाके रूपमें यहाँ रहते हुए देखे जाते हैं। कुछ मुस्लिम दुकानदार भी यहाँ रहा करते हैं। सिक्खोंके भी मन्दिर और पुस्तकालय आदि यहाँ है । कुंडोंके पास उनका एक विस्तृत चबूतरा भी है । ब्रह्मकुंडके पास एक कुंड ऐसा बतलाया गया जो हर तीसरे वर्ष पड़ने वाले लौंडके महीनेमें ही चालू रहता है और फिर बन्द हो जाता है । परन्तु उसका सम्बन्ध मनुष्य कृत कलासे जान पड़ता है। राजगृहकी जमींदारी प्रायः मुस्लिम नवाबके पास है, जिसमेंसे रुपयामें प्रायः चार आना (एक चौथाई) जमीदारी सेठ साहू शान्तिप्रसादजी डालमियानगरने नवाबसे खरीद ली है। यह जानकर खुशी हुई कि जमीदारीके इस हिस्सेको आपने दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र राजगृहके लिये ही खरीदा है। उनके हिस्सेकी जमीनमें सर्वत्र S. P. Jain के नामसे चिन्ह लगे हुए हैं, जिससे आपको जमीनका पार्थक्य मालूम हो जाता है। और भी कुछ लोगोंने नवाबसे छोटे खरीद लिए हैं। राजगृहमें खाद्य सामग्री तेज तो मिलती है। किन्तु बेईमानी बहुत चलती है। गेहुंओंको अलगसे खरीद कर पिसानेपर भी उसमें चौकर बहुत मिला हुआ रहता था। आटा हमें तो कभी अच्छा मिलकर नहीं दिया। बा० छोटेलालजीने तो उसे छोड़ ही दिया था। क्षेत्रके मुनीम और आदमियोंसे हमें यद्यपि अच्छी मदद मिली, लेकिन दूसरे यात्रियोंके लिये उनका हमें प्रमाद जान पड़ा है। यदि वे जिस कार्यके लिये नियुक्त हैं उसे आत्मीयताके साथ करें तो यात्रियोंको उनसे पूरी सदद और सहानुभूति मिल सकती है। आशा है वे अपने कर्तव्यको समझ निष्प्रमाद होकर अपने उत्तरदायित्वको पूरा करेंगे । आरा और बनारस
राजगृहमें २० दिन रह कर ता० १८ मार्चको वहाँ से आरा आये। वहाँ जैन सिद्धान्तभवनके अध्यक्ष पं० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्यके मेहमान रहे । स्टेशनपर आपने प्रिय पं० गुलाबचन्द्रजी जैन, मैनेजर
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________________ जैन बाला विश्रामको हमें लेनेके लिये भेज दिया था। आरामें स्व० वा० देवकुमारजी रईस द्वारा स्थापित जैनसिद्धान्त-भवन और श्रीमती विदुषी पण्डिता चन्दाबाईजी द्वारा संस्थापित जैन बाला विश्राम तथा वहाँ प्रतिष्ठित श्री 1008 बाहुबलिस्वामीकी विशाल खड्गासन मूर्ति वस्तुतः जैन भारतकी आदर्श वस्तुएँ हैं। आरा आनेवालोंको जैनमन्दिरोंके अलावा इन्हें अवश्य हो देखना चाहिये। भवन और विश्राम दोनों ही समाजकी अच्छी विभूति हैं / यहाँ स्व० श्रीहरिप्रसादजी जैन रईसकी और से कालेज, लायब्ररी आदि कई संस्थाएँ चल रही हैं / आरासे चलकर बनारस आये और अपने चिरपरिचित स्याद्वादमहागिद्यालयमें ठहरे / संयोगसे विद्यालयके सुयोग्य मंत्री सौजन्यमति बा० सुमतिलालजीसे भेंट हो गई। आपके मन्त्रित्वकालमें विद्यालयने बहत उन्नति की है। कई वर्षसे आप गवर्नमेंट सविससे रिटायर्ड हैं और समाजसेवा एवं धर्मोपासनामें ही अपना समय व्यतीत करते हैं / आपका धार्मिक प्रेम प्रशंसनीय हैं / यहाँ अपने गुरुजनों और मित्रोंके सम्पर्कमें दो दिन रहकर बड़े आनन्दका अभूभव किया। स्याद्वादमहाविद्यालयके अतिरिक्त यहाँकी विद्वत्परिषद्, जयधवला कार्यालय और भारतीय ज्ञानपीठ प्रति ज्ञानगोष्ठियाँ जैनसमाज और साहित्यके लिए क्रियाशीलताका सन्देश देती हैं। इनके द्वारा जो कार्य हो रहा है वह वस्तुतः समाजके लिये शुभ चिह्न है / मैं तो समझता हूँ कि समाज में जो कुछ हरा-भरा दिख रहा है वह मख्यतया स्याद्वादमहाविद्यालयकी ही देन है और जो उसमें क्रियाशीलता दिख रही है वह उक्त संस्थाओंके संचालकोंकी चीज है / आशा है इन संस्थाओंसे समाज और साहित्यके लिए उत्तरोत्तर अच्छी गति मिलती रहेगी। ___ इस प्रकार राजगृहकी यात्राके साथ आरा और बनारसकी भी यात्रा हो गई और ता० 24 मार्चको सुबह साढ़े दस बजे यहाँ यरसावा हमलोग सानन्द सकुशल वापिस आ गये / -486 -