Book Title: Rajasthan ka Ek Prachin Tirtha Javar
Author(s): Ramvallabh Somani
Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का एक प्राचीन तीर्थ जावर - श्री रामवल्लभ सोमानी, जयपुर जावर उदयपुर से डूंगरपुर के मार्ग से टीडी से १० कि० मी० दूर है। प्राचीन काल से ही यह स्थान जस्ते की खानों के लिये प्रसिद्ध रहा है । वि० सं० ७०३ के सामोली के शिलालेख के अनुसार वसंतगढ़ निवासी श्रेष्ठी जैतक व्यापार हेतु इस क्षेत्र में आया था । उस समय यहां जस्ता एवं चांदी बड़ी मात्रा में खानों से निकलती थी । इसीलिये यह क्षेत्र मेवाड़ के राजाओं के हाथ से छीनकर कुछ समय कल्याणपुर के गुहिलोत शासकों एवं बागड़ के अधीन भी रहा । मध्यकाल में महाराणा लाखा ने इसे जीताया। उसके लिए मेवाड़ के शिलालेखों में योगिनीपुर जावर को जीतने का लिखा है । वि० सं० १४६२ के एक ताम्रपत्र के अनुसार महाराणा लाखा ने देवी के मंदिर के निमित्त २ टंका दिये थे । महाराणा लाखा के ही राज्य का उल्लेख वि० सं० १४६४ की मलयगिरि की सप्तति टीका की प्रशस्ति के श्लोक १२ में है। इस प्रशस्ति में एक महत्त्वपूर्ण सूचना यह भी है कि १ लेखक की कृति हिस्ट्री ऑफ मेवाड़, पृ० ११२ । २ श्रेष्ठी कान्हा ने वीर विहार नामक जैन मंदिर बनवाया था । यह परिवार देलवाड़ा (मेवाड़ ) का रहने वाला था एवं व्यापार हेतु डूंगरपुर एवं जावर में भी रहता था । वीर - विहार में खरतरगच्छ की पिप्पलिका शाखा एवं जिनभद्रसूरि की मुख्य शाखा के साधुओं के भी अप्रका शित लेख हैं जिनका उल्लेख आगे किया जा रहा है। यहां का मुख्य मंदिर शांति जिनालय है । यह अब भग्न है। इसका निर्माण वि. सं० १४७८ में श्रेष्ठी धनपाल ने किया है, जिसके लिये शिलालेख में 'श्री शत्रुजय-गरनार अर्बुद जीरापल्ली चित्रकूटादि तीर्थ यात्रा कृता श्री संघ मुख्य' लिखा है । यह शिलालेख लम्वा एवं ऐतहासिक मह व का है। इसमें प्रारम्भ में 'संवत् १४७८ वर्ष पौष शु० ५ राजाधिराज श्री मोकलदेव विजयराज्यो' शब्द है । इससे इस बात की पुष्टि होती है कि यह उस समय मेवाड़ राज्य में सम्मिलित था । इसकी प्रतिष्ठा तपागच्छ के सोमसुन्दर सूरि ने की थी । सोम सौभाग्य काव्य में दिये गये वर्णन के अनुसार सोमसुन्दर सूरि मेवाड़ में देलवाड़ा एवं चित्तौड़ कई बार पधारे थे । गोड़वाड़ जिनमें राणकपुर भी सम्मिलित है इनका कार्य क्षेत्र था । जावर के इस लेख में तपागच्छ के मुख्य साधुओं के नाम हैं जो इस प्रतिष्ठा के समय वहां उपस्थित थे । यथा - मुनि सुन्दर, जयचंद्र, भुवन सुन्दर, जिन सुन्दर, जिनकीर्त्ति विशाल राज रत्नशेखर उदयनन्दि, महोपाध्याय सत्यशेखर, सुरसुन्दर, सोमदेव आदि । इतने मुख्य साधुओं के एक साथ होने से पता चलता है कि यह प्रतिष्ठा काफी विशाल स्तर पर हुई थी । इस मंदिर का वर्णन कवि लावण्य समय विरचित सुमति साधु सूरि विवाहलो में किया गया है। इसमें लिखा है कि नगर के मध्य अत्यन्त सुन्दर शांतिजिन विहार है ( नगर विचिहिं अति रुअ डलउ शांति जिणंद बिहार रे ) । श्रेष्ठी कान्हा द्वारा वि० सं० १४८६ में देवकुलिका बनाई गई थी जिसका सूत्रधार सहदेव था । इसी एल० डी० इन्स्टिट्यूट, अहमदाबाद द्वारा हस्तलिखित ग्रंथों की सूची भाग ४ के अंत में पृ० ६२ पर दी गई प्रशस्ति । ३ विजयधर्म सूरि, जैन लेख संग्रह, भाग १, सं० १४३ । ४ एन्यूअल रिपोर्ट आन इंडियन एपिग्राफी, वर्ष ५६-५७, सं० ५१७ । ६० ] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि के एक अन्य लेख में इसी मंदिर में जिन सागर श्राद्धवरैविहारा।' खरतरगच्छ के कुछ साधु वि० सं० सूरि का नाम दिया है।" ये लेख मूल रूप से मैं देख नहीं १४६२ में आये थे। इनके नाम हैं क्षमामूर्ति, विवेकहंस, सका हूँ किन्तु संभवतः किसी खरतरगच्छ से सम्बन्धित उदयशील, मेरु कुंजर आदि। वि० सं० १४६४ का एक अन्य मंदिर के ये लेख रहे होंगे। जिनभद्रसूरिजी ने जावर में लेख एक खंडित मंदिर के स्तम्भ पर है। लेख बहुत घिस खरतरगच्छ का मंदिर बनवाया था संभवतः ये लेख उसी गया है। इसमें "वि० सं० १४६४ माघ सुदि १३ महावीर मंदिर के खंडहर के हों। चैत्ये . खरतरगच्छे जिनसागर सूरिभिः' पाठ पढ़ा जाता वि० सं० १४७८ के बाद खरतरगच्छ के कई लेख है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर की प्रतिमा की यहाँ से मिले हैं। वि० सं० १४८६ के लेख में श्री कान्हा प्रतिष्ठा उस समय की गई थी। मूर्ति पर भी लेख है श्रष्ठी द्वारा बनाये वीर विहार में सुपार्श्वनाथ देवक लिका और एक अन्य लघु लेख में श्री जिनकुंजर सूरिभिः नाम की प्रतिष्ठा श्री जिनसागर सूरि (पिप्पलिका शाखा, दिया हुआ है। वि० सं० १४६५ के एक लेख में धर्मघोष खरतरगच्छ) द्वारा कराये जाने का उल्लेख है । लेख इस प्रकार गच्छ के हरिकलश आदि के नाम हैं। वि० सं० ज्येष्ठ है-'संवत् १४८६ फा० श०३ दिने ऊकेश जातीय सा० शु० ५ के एक लेख में रामचन्द्र सूरि का नाम है। पद्मा भार्या पदमादे पुत्र गोइद भार्या गउरदे सुत एक उन्नतिशील नगर होने के कारण बागड़ और सा० आंबा सा० सांगण, सह ऐव, सन्मध्ये सहदेव भायों मेवाड़ के शासकों के मध्य यह विवाद का विषय बना हुआ पोई पुत्र श्रीधर ईसर पुत्री राजि प्रभृति कुटुम्ब पुतेन भं० था। महाराणा कंभा ने इसे जीता था। इसके लेखों कान्हा कारित प्रासारे स्व श्रयोथं श्री सुपाश्व जिनयुत देव में जावर को जीतने का उल्लेख है ( योगिनी पुरम कलिका कारिता प्रतिष्ठिताश्रीखरतरगच्छाधीशेन श्री जिन- जेयमप्यसों योगिनी चरण किंकरो नपः ) राजस्थानी सागर।' इसी मंदिर में वि० सं० १५०४ का एक लेख की गीतगोविन्द की टीका की प्रशस्ति में 'योगिनी भणीये और है। इसमें खरतरगच्छ के जिनभद्रसूर के आम्नाय महामाया तेहनो प्रामाद पाम्बो योगिनीपर जावर पाठ के साधओं के नाम हैं। मूल लेख इस प्रकार है -'संवत् मथा के लिये प्रयुक्त हआ है। ऐमा लगत है कि १५०४ वर्षे कात्तिक वदी १३ दिने श्री जापुर नगरे श्री महाराणा के अन्तिम दिनों में मालवे के सुल्तान मोहम्मद खरतरगच्छे श्री जिनभद्रसू रिगच्छाधिराजादेशे भं० कान्हेन खिलजी ने ज'वर पर आक्रमण कर यहाँ के देवी के मंदिर कारित श्री वीर-विहारे प० भानुप्रभग ण, समयप्रभगणि को नष्ट कर दिया था। अतः कंभा ने इसे वापस सोमधीर मुनिः अहर्निसं (श) श्री वीर चरणं प्रणमति जीर्णोद्ध र कराया। यहाँ के जैन मंदिरों का भी महत्त्व बहुभक्त्या सूत्रधारी लोंका महावीर चरणाय नमः। अत्यधिक था। वि० सं० १५.०८ में नाडोल में तपागच्छ जिनभद्रसूर ने जावर में मंदिर बनाने के लिए संभ- के रत्नशेखर सूर ने श्रेष्ठी जगसी परिवार द्वारा एक वतः किमी श्रेष्ठी को निर्देश दिये थे। इमका स्पष्ट विशाल प्रतिष्ठा समारोह कराया था। इस अवसर पर प्रतिउल्लेख वि० सं० १४६७ के संभवनाथ मंदिर, जैसलमेर के ष्ठित प्रतिमायें चोपानेर, चित्रकूट, जावर, कायंद्रा, इस लेख में है। यथा 'श्री उज्जयंताचल चित्रकूट मांडव्य नागदा ओसिया, नागोर कंभलगढ़ अदि स्थानों पर भेजी पूर्जावर मुख्यकेषु स्थानेषु येषामुपदेश वाक्या निर्मा पिताः थी। इस प्रकार से भेजी गई प्रतिमाओं में कुंभलगढ़ ५ उपरोक्त, सं० ५.२२। जैन लेख संग्रह, भाग ३ ( पूरणचंद नाहर द्वारा सम्पादित ), लेख सं० २.३० ! ७ लेखक की कृति जेन इन्स्क्रिप्शन्स आफ राजस्थान, पृ० १३१ । ८ उपरोक्त । ९ लेखक की कृति महाराणा कुम्भा, पृ०६८। १° जिन विजय, जैन लेख संग्रह, भाग २, सं० ३७२ । [ ६१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में नीलकंठ मंदिर के पास छोटे जैन मंदिर में यह मूर्ति इसमें सबसे ऊपर श्री रषबदेव प्रसादातु शब्द होने अब भी विद्यमान है । जावर में भी यह मूर्ति उपलब्ध है। से यह जैनधर्म से सम्बन्धित है। इसमें कई नाम तपागच्छ के रत्नशेखर सूरि से सम्बन्धित सुमति हैं। यथा देपा, जुपा, नरा, पेयोली, बीरम नाथा, उदा व साधु विवाहलो में एक घटना वर्णित है। इसके अनुसार मंगरा का समस्त संघ का उल्लेख है। उसमें महाराणा जावर के निवासी गणपति शाह के एक पुत्र नयराज हुआ। सांगा का नाम होने से महत्वपूर्ण है। यह अभी अप्रकाशित इसने रत्नशेखर सूरि से दीक्षा ग्रहण की। गुरु गुण रत्नाकर है। वि० सं० १५६७ का एक लेख बनवीर का भी यहाँ काव्य में भी रत्नशेखर सूरि के जावर पधारने का से मिला है। महाराणा प्रतापसिंह के समय की एक उल्लेख है ( श्री भेद पाट पृथिवीमुकटाभ मज्जा ग्रंथ प्रशस्ति वि० सं० १६४३ की मिली है। इसमें साधु पद्रभिधान नगर समहं समीपुः १०७ श्लोक)।११ उक्त दिन कृत्य की प्रतिलिपि जावर में करने का उल्लेख है विवाहलो में प्रारम्भ में इस नगर का सुन्दर वर्णन है। (संवत् १६४३ वर्षे आश्विन वदि ४ सोमे श्री मेवाड़देशे इसके अनुसार इस नगर में धातु की सात खाने थीं ( सातइ राणा प्रतापसिंह राज्ये श्री जावरमध्ये जीराऊलीया कीका धातु नई आगर)। वि० सं० १७४६ की शील विजय की लिखितं)। अकबर के बाद जहाँगीर ने मेवाड़ में कई तीर्थ माला में भी यहाँ सात धातु की खाने होने का उल्लेख _वर्षों तक निरन्तर आक्रमण किया। उस समय वहाँ के किया हुआ है ( सात धातु तणुअहिठाणं)। सुमति साधु सारे देवालय भग्न कर दिये। मेवाड़ और मुगल सन्धि हो विवाहलो में जावर का प्रारम्भ में जो वर्णन दिया गया जाने के बाद मेवाड़ के सारे जैन व वैष्णव मन्दिरों का व्यापक उसके अनुसार यहाँ काफी समृद्धि थी। १२ आसपास कई जीर्णोद्धार हुआ था। वि० सं० १६६४ में यहाँ के जैन तालाब बनाये गये थे। इस नगर में कई उल्लेखनीय मंदिर जीर्णोद्धार का लम्बा लेख है। लेख का कुछ अंश श्रेष्ठी रहते थे एवं अच्छा बाजार था। इस प्रकार है : 'संवत् १६६४ वर्षे शाके १५६० प्रवर्तमाने महाराणा कुम्भा के बाद महाराणा उदा शासक हुआ । वैशाख मासे शक्ल पक्षे तृतीया तिथौ शनिवासरे भेदपाटउसे हटाकर कंभा का दूसरा पुत्र रायमल शासक हुआ। देशे महाराजाधिराज महाराणा श्री जगतसिंहजी विजयराणो रायमल ने जावर अपनी बहिन रमाबाई को जागीर में कुमर श्री राजसिंह आदेशात योगिनीपुर वरे श्री शांतिनाथ दिया था। इसका विवाह गिरिनार के शासक चूड़ा बिंब स्थापित य उधरी मोहण-सुत वीर जी पंचोली सवराम, समा राजा मंडलीक के साथ हुआ था। इसके मोहम्मद दोसी सुजा तेलहरा धनजी सा० पंचाइण सा समरथ बेगड़ा से हारने के बाद मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लेने से सा दशरथ मुंजावत महता केसर महता लधु चोखा उतवेला रमाबाई मेवाड़ में आ गई थी तब उसे जावर दिया था। यहाँ धना भा० साम पोरवाड समस्तसंघ उधरी मोहण प्रसाद से वि० सं० १५५४ का एक विस्तृत शिलालेख मिला है ।१३ उधराण कृतं प्रतिमा स्थापिता संघ पूजा कृत सलावट इसके अनसार इसने कंभलगढ में दामोदर मंदिर, एक ताजु चद...' वि० सं० १७२८ में जावर निवासी पंडित सरोवर एवं जावर में रमा स्वामी का मंदिर बनाया था। चतुराजी जो माड़ाहड़गच्छ के थे आबू में यात्राकर वहाँ जावर के निवासी ओसवाल सूरा ने नाणा ( गोड़ लेख भी उत्कीर्ण कराया; संवत १७२८ वर्षे वैशाख सुदि ११ दिने मड़ाहड़गच्छे पंडित चतरा जी यात्रा सफल वास वाड़) में पार्श्वनाथ की मूर्ति वि० सं० १५७२ में . स्थापित की थी। जावर में वि० सं० १५८० की १२वें जावर । किताबों की एक सुरह है जो काफी घिमी हुई है। बहुचर्चित गीत गोविन्द की सचित्र प्रति की प्रतिलिपि ११ गुरु गुण रत्नाकर, श्लोक १०१। १२ सुमति साधु विवाहलो की एक नकल स्व० अगरचंदजी नाहटा ने मुझे भिजवाई थी। यह वर्णन उसी के अनुसार है । १३ जावर का अभिलेख इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, वि० सं० १६५८, पृ० २१५-२२५ पर प्रकाशित है। वीर विनोद के पहले भाग में भी इसका मुल पाठ उपलब्ध है । ६२ ] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६वीं शताब्दी में जावर में की गई थी। जावर से माता रमानाथ मंदिर में भूमिदान का उल्लेख है। रमानाथ जी के मंदिर के आगे एक वि० सं० 1655 आषाढ़ शक्ल मंदिर के स्तम्भों पर वि० सं० 1776 का 14 पंक्तियों 6 की सुरह है। उसमें पेयोली माण्डण शाह भामा का लघु लेख है जिसमें हरिहर आदि के नाम हैं। इसी (प्रसिद्ध भामाशाह से भिन्न ) आदि द्वारा कुछ 'चढ़ावा' मंदिर के बाहर महाराणा भीमसिंह की सुरह लगी है / करने का वर्णन है / अम्बा माता के अतिरिक्त दूसरे माताजी यह सारी मिट्टी में दब गई केवल 'सिध श्री महाराजाके मंदिर के पास महाराणा राजसिंह का एक लेख है धिराज महाराणाजी श्री श्री श्री भीमसिंघ जी आदेसातु यह बहुत घिस गया है, केवल इतना पढ़ा जाता है 'सिद्ध प्रतदवे पेयोली परताप' लिखा है। श्री गणेश गौत्र देव्या प्रसादातु महाराजाधिराज महाराणा ऐसा प्रतीत होता है कि मराठा काल में यह नगर जी श्री राजसिंहजी आदेशात जावर...' पुरानी कचहरी उजड़ गया था। निरन्तर मराठों के आक्रमण से लोग के पास एक सुरह वि० सं० 1815 की है / इसमें महाराणा गांव छोड़कर चले गये। अब नयी बस्ती बस गई है। राजसिंह के समय देपुरा सदाराम द्वारा तालाब में किन्तु ये मंदिर अब खंडहर हैं। यह लेख जावर माइन्स के एक अधिकारी के आग्रह पर मैंने कई वर्षों पूर्व तैयार किया था। काफी सूचना श्री नाहटाजी से भी ली थी। जावर माइन्स के अधिकारियों ने घमने एवं लेखों की प्रतिलिपि करने में सहायता दी थी। मैं इन सबका कृतज्ञ हूँ। [63