Book Title: Purattva evam Kala Marmagnya Pratibhamutti Kantisagarji ko Shraddhanjali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सं० १९६६ के माघ महीने में समारोह पूर्वक मन्दिर को उदयपुर चातुर्मास किया। तदनन्तर गढसिवाणा चातुर्मास प्रतिष्ठा करवायी । तदनन्तर राजनांदगांव के चातुर्मास में कर गोगोलाव जिनालय की प्रतिष्ठा कराई । गुजरात छोड़े भी उपधान आदि करवाये । रायपुर होकर महासमुन्द में बहुत वर्ष हो गये थे, अहमदावाद संघ के आग्रह से वहां चातुर्मास किया। धमतरी पधारकर सं० २००१ के चातुर्मास कर पालीताना पधारे सं० २०१६ में उपधान फाल्गुन में अञ्जनशालाका प्रतिष्ठा, गुरुमूर्ति प्रतिष्ठादि तप हुआ। गिरिराज पर विमलवसही में दादासाहब को विशाल रूप में उत्सव करवाये। कान्तिसागरजी की प्रेरणा प्रतिष्ठा के समय जिनदत्तसूरि सेवासंघ के अधिवेशन व साधु से महाकोशल जैन सम्मेलन बुलाया गया जिसमें अनेक सम्मेलन आदि में सब से मिलना हुआ। विद्वान पधारे थे । फिर रायपुर चातुर्मास कर सम्मेतशिखर पालीताना-जैन भवन में चातुर्मास किये। आपकी महातीर्थ को यात्रार्थ पधारे। कलकत्ता संघ की वीनती प्रेरणा से जनभवन की भूमि पर गुरुमन्दिर का निर्माण से दो चातुर्मास किये, बड़ा ठाठ रहा। फिर पटना और वाराणसी में चातुर्मास किये, फिर मिर्जापुर, रीयां होते हुआ। दादा साहब व गुरुमूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। सं० २०२२ में घण्टाकर्ण महावीर को प्रतिष्ठा हुई। पालनपुर हुए जबलपुर पधारे। वहां ध्वजदण्डारोपण, अनेक तप के गुरु भक्त केशरिया कम्पनी वालों के तरफ से ५१ किलो श्चर्यादि के उत्सव हुए। वहां से सिवनी होते हुए राजनांद गांव में सं० २००८ का चातुर्मास किया। आपके उपदेश का महाघण्ट प्रतिष्ठित किया। दादासाहब के चित्र, से नवीन दादावाड़ी का निर्माण होकर प्रतिष्ठा सम्पन्न पंचप्रतिक्रमण एवं अन्य प्रकाशन कार्य होते रहे । हुई। वहां से सिवनी हो भोपाल व लश्कर, ग्वालियर वृद्धावस्था के कारण गिरिराज की छाया में ही विराजमान चातुर्मास किये। जयपुर पधारकर चातुर्मास किया। अज- " रह कर सं० २०२४ के वैशाख सूदि६ को आपका स्वर्गमेर दादासाहब के अष्टम शताब्दी उत्सव में भाग लेकर वास हो गया। . पुरातत्व एवं कलामर्मज्ञ प्रतिभामूर्ति मुनि श्रीकान्तिसागरजी को श्रद्धांजलि [लेखक-अगरचन्द नाहटा ] संसार में दो तरह के विशिष्ट व्यक्ति मिलते हैं । जिनमें जीका असामयिक स्वर्गवास ताः २८ सितम्बर की शाम से किसी में तो श्रमकी प्रधानता होती है किसी में प्रतिभा को हो गया है, वे ऐसे ही प्रतिभा सम्पन्न विद्वान मुनि थे। को। वैसे प्रतिभा के विकास के लिए श्रमको भी आवश्य- जिनका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है । कता होती है और अध्ययन व साधना में परिश्रम करने वीसवीं शताब्दो के जैनाचार्यों में खरतरगच्छ के से प्रतिभा चमक उठती है । फिर भी जन्म जात प्रतिभा आचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी बडे गीतार्थ विद्वान और कुछ विलक्षण ही होती है, जो बहुत परिश्रम करने पर भी क्रियापात्र आचार्य हो गये हैं। जो पहले बीकानेर के प्रायः प्राप्त नहीं होती। अभी-अभी जयपुर में जिन साहि- यति सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। आगे चलकर अपने सारे त्यालंकार पुरातत्ववेत्ता और कलामर्मज्ञ मुनिश्री कान्तिसागर परिग्रह को बीकानेर के खरतरगच्छ संघ को सुपुर्द करके Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t १६४ । forare करते हुए साधु हो गये । आगमों आदि का विशेष अध्ययन करके आचार्य बने । उनके शिष्य उपाध्याय सुखसागरजी ने अनेकों ग्रन्थों को प्रकाशित कराया और अच्छे वक्ता थे । उनके लघुशिष्य स्वर्गीय कान्तिसा गरजी हुए। जिनके बड़े गुरुभाई मंगलसागरजी अभी पालीताना में हैं । जन्मतः वे सौराष्ट्र जामनगर के थे। छोटी अवस्था में ही जेनेतर कुल में जन्म लेने पर भी उ० सुखसागरजी दीक्षित शिष्य बने । अपनी असाधारण प्रतिभा से थोड़े समय में ही उन्होंने अनेक विषयों में अच्छी गति प्राप्त कर ली । हिन्दी भाषा पर उनका बहुत अच्छा अधिकार हो गया। संस्कृतनिष्ठ प्राञ्जल भाषा में उनके लिखे हुए ग्रन्थ एवं लेख विद्वद्- मान्य हुए । 'खण्डहरों का वैभव' और 'खोज की पगडंडिया' ये दो महत्वपूर्ण ग्रन्थ तो भारतोय ज्ञानपीठ जैसी प्रसिद्ध संस्था से प्रकाशित हुए । उत्तरप्रदेश सरकार ने इनकी श्रेष्ठता पर पुरस्कार भी घोषित किया । विशालभारत, अनेकान्त, भारतोय, साहित्य, नागरी प्रचारणी पत्रिका आदि हिन्दी की कई प्रसिद्ध और विशिष्ट पत्रिकाओं में आपके महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित होते रहे हैं । जिनसे हिन्दी साहित्य में आपका अच्छा स्थान बन गया । 'ज्ञानोदय' आदि कई पत्रों के दो आप सम्पादकमण्डल में भी रहे हैं । वक्तृत्वकला भी आपकी उच्चकोटि की थी साधारणतया बहुत से व्यक्ति अच्छे लेखक तो होते हैं वे उत्कृष्ट वक्ता नहीं होते । या वक्ता होते हैं तो अच्छे लेखक नहीं होते । पर आप दोनों में समान गति रखते थे । अर्थात् अच्छ लेखक और प्रभावशाली वक्ता दोनों रूपों में आपने अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त की थी । पुरातत्त्व और कला के तो आप मर्मज्ञ विद्वान थे । जनसाधुओं और आचार्यों में तो इन विषयों के आप सर्वोच्च विद्वान माने जा सकते हैं। प्राचीन मन्दिरों, मूर्तियों और कलावशेषों के खोज एवं अध्ययन में आपकी जबरदस्त रुचि थी । मध्यप्रदेश के अनेक गांव नगरों में घूमकर आपने उपरोक्त दोनों ग्रन्थ और बहुत से महत्वपूर्ण लेख लिखे थे । छोटी-छोटी बातों पर भी आप बहुत सूक्ष्मता से ध्यान देते थे और थोड़ी सी बात को अपनी प्रतिभा के बल पर बहुत विस्तार से और बड़े अच्छे रूप में प्रगट कर सकते थे । इतिहास, पुरातत्व और कला में तो आपकी गहरी पेठ थी । जबलपुर चौमासे के समय आपने काफी प्राचीन अवशेषों ( मूर्तिखण्डों) को इधर उधर से बड़े प्रयत्न पूर्वक संग्रह किया था । जिसे मध्यप्रदेश सरकार ने अधिकार में ले लिया । राजस्थान में रहते हुए आपने उदयपुर महाराणा के इष्ट देव - एकलिंगजी पर एक बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ तैयार किया था। आस-पास के नागदा आदि प्राचीन कलाधामों - जैन मन्दिरों व मूर्तियों पर आपने नया प्रकाश डाला। सैकड़ों कलापूर्ण प्राचीन अवशेषों के फोटों लिवायें । खेद है आप के घोर परिश्रम से तैयार किया हुआ एकलिंग जी वाला महत्वपूर्ण वृहद् ग्रंथ अभी तक प्रकाश में नहीं आ सका । प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति जिस किसी विषय को हाथ में लेता है उसी में अद्भुत चमत्कार पैदा कर देता है । उदयपुर रहते हुए कई कारणों से आपको आर्युवेद का अध्ययन व प्रयोग करना आवश्यक हो गया, तब आपने बहुत से असाध्य रोगियों को रोग मुक्त कर दिया था । आयु र्वेदिक सम्बन्धी अनुभूत प्रयोगों का एक संग्रह "आयुर्वेदना अनुभूत प्रयोगो" भाग १ नामक ग्रन्थ आपने गुजराती में प्रकाशित किया है। वैसे और भी कई ग्रन्थ आप प्रकाशित करने वाले थे। पर आयुष्य कर्म ने साथ नहीं दिया । 'जैन धातु प्रतिमा लेख,' नगर वर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह आदि आपके और भी ग्रन्थ प्रकाशित हैं । संगीत के भी आप अच्छे ज्ञाता थे। बुलन्द आवाज और अच्छा कंठ होने से आप 'अजित शान्ति स्तोत्र' आदि को ताल लय बद्ध बड़े अच्छे रूप में गाते थे । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 15) पुरातत्व और कला के प्रति आपको बाल्यकाल से ही किया है, फलस्वरूप खण्डहरों का वैभव एवं प्रस्तुत गहरी अनुरक्ति रही है / खोज की पगडण्डियां के प्रार- पुस्तक है।" म्भिक वक्तव्य में आप ने लिखा है कि "बचपन से ही मुझे उपरोक्त दोनों पुस्तकें सन् 1953 में प्रकाशित हुई थी। निर्जन वन व एकांत खण्डहरों से विशेष स्नेह रहा है। 'खोज को पगडण्डियों को प्रस्तावना डा० हजारीप्रसाद अपनी जन्मभूमि जामनगर की बात लिख रहा हूं। वहां दिवेदी जैसे विद्वान ने लिखी थी। उन्होंने लिखा है "श्री का खण्डित दुर्ग ही मेरा क्रीडास्थल रहा है। आज से 22 मनि कान्तिसागरजी प्राचीन विद्याओं के मर्मज्ञ अनुवर्ष पूर्व की बात है-सरोवर के किनारे पर टूटे हुए सन्धाता हैं। मुनिजी प्राचीन स्थानों को देखकर स्वयं खण्डहरों की लम्बी पंक्ति थीं। जहां बारहमास प्रकृति आनन्द विह्वल होते हैं और अपने पाठकों को भी उस स्वाभाविक शृगार किये रहतो है / कहना चाहिये वे खण्ड आनन्द का उपभोक्ता बना देते हैं। उनकी दृष्टि बहुत ही हर संस्कृति, प्रकृति और कला के समन्वयात्मक केन्द्र थे। व्यापक एवं उदार है। जैन शास्त्रों के वे अच्छे ज्ञाता भी उनदिनों में गुजराती चौथी कक्षा में पढ़ता था। पढ़ने में मनिजी के कहने का ढंग भी बहुत रोचक है / बीच-बीच भारी परेशानी को अनभव होता था। शाला के समय में उन्होंने व्यंग विनोद की भी हल्की छींट रख दी हैं। अपने बस्ते लेकर हमलोग सरोवर तटवर्ती खण्डहरों में इतिहास को सहज और रसमय बनाने का उनका प्रयल छिपा देते और वहीं खेला करते। खण्डहर बनाने वालों के बहुत ही अभिनन्दनीय है।" प्रति उन दिनों भी हमारे बाल-हृदय में अपार श्रद्धा थी। जैन कल में उत्पन्न न होते हैं भी अल्पवय में मैंने जैन मनि करीब डेढ़ साल पहले जयपुर संघ के अनुरोध से वे दोक्षा अंगीकार की। सौभाग्यवश चातुर्मास के लिये बंबई लम्बा विहार करके पालोताना से जयपुर चौमासा करने जाना पड़ा। वहां प्राचीन गुजराती भाषा और साहित्य पहुँचे तो अस्वस्थ हो गये। उसी हालत में पर्युषणा के के गम्भीर गवेषक श्रीयुक्त मोहनलाल भाई दलीचन्द देसाई व्याख्यान आदि का श्रम अधिक पड़ा। तब से उनका एडवोकेट, भारतीय विद्या भवन के प्रधान संचालक-पुरा- शरीर क्षीण होने लगा। जयपुर संघ ने उपचार में कोई तत्वाचार्यमुनि श्रीजिनविजय और प्रख्यात पुरातत्वज्ञ डा. कमो नहीं रखी पर स्वास्थ्य गिरता हो गया और ता० 28 हंसमुखलाल धीरजलाल सांकलिया आदि अध्यवसायी सितम्बर को शाम को हृदयगति अवरुद्ध हो के स्वर्गवास हो अन्वेषकों का सत्संग मिला। उनके दीर्घ अनुभव द्वारा गया। जैन संघ ने एक नामी लेखक और उद्भट पुरातत्वज्ञ शोधविषयक जो मार्ग दर्शन मिला उससे मेरी अभिरुचि और विद्वान और प्रतिभाशालो मुनि को खो दिया जिसकी पूर्ति भी गहरी होती गयी। मेरे मानसिक विकाश पर और होनी कठिन है / मुनिजी के प्रति मैं अपनो हार्दिक श्रद्धांजलि कलापरक दृष्टिदान में उपर्युक्त विद्वत् त्रिपुटी ने जो श्रम अर्पित करता हूँ।