Book Title: Prachin Vrajmandal me Jain Dharm ka Vikas
Author(s): Prabhudayal Mittal
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन ब्रजमंडलमें जैनधर्मका विकास श्री प्रभुदयाल मीतल, मथुरा जैन तीर्थंकरोंका सम्बन्ध-जैन धर्मके २४ तीर्थंकरोंमेंसे कईका घनिष्ठ सम्बन्ध शरसेन जनपद अर्थात् प्राचीन व्रजमंडलसे रहा है। जिनसेन कृत 'महापुराण' में जैन धर्म की एक प्राचीन अनुश्रुतिका उल्लेख हुआ है। उसके अनुसार आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथके आदेशसे इन्द्रने इस भूतलपर जिन ५२ देशोंका निर्माण किया था, उनमें एक शूरसेन भी था, जिसकी राजधानी मथुरा थी। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथका मथुरा से विशेष सम्बन्ध रहा था, जिसके उपलक्षमें कुवेरा देवीने यहाँपर एक स्तूपका निर्माण किया था। समें सुपार्श्वनाथजीका बिम्ब प्रतिष्ठित था। वह स्तूप जैन धर्मके इतिहासमें बड़ा प्रसिद्ध रहा है। चौदहवें तीर्थकर अनन्तनाथजीको स्मृति में भी एक स्तुपके बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथजी जैन मान्यताके अनुसार वासुदेव कृष्णके भाई थे, जो शूरसेन जनपदके प्राचीन शौरिपुर राज्य ( वर्तमान बटेश्वर, जिला आगरा ) के यादव राजा समुद्रविजयके पुत्र थे। उनके कारण शूरसेन प्रदेश और कृष्णका जन्मस्थान मथुरा नगर जैनधर्मके तीर्थस्थान माने जाने लगे थे। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथजी और अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर एवं जैनधर्म के प्रतिष्ठाता महावीरजीका मथुरामें विहार हआ था। जिस कालमें भगवान् महावीरजी मथुरा पधारे थे, उस समय यहाँके राजा उदितोदय अथवा भीदाम, राजकुमार कंवल और शंवल, नगर सेठ जिनदत्तके पुत्र अर्हदास तथा अन्य राजकीय पुरुष एवं प्रतिष्ठित नागरिक जैनधर्ममें दीक्षित हए थे । उनके कारण साधारण जनतामें भी जैनधर्मका प्रचार होने लगा था। जम्बूस्वामीका साधना-स्थल-भगवान् महावीरके प्रशिष्य सुधर्म स्वामीसे प्रव्रज्या लेकर जम्बू स्वामीने मथुराके चौरासी नामक स्थलपर तपस्या की थी। २. वर्ष तक मुनिवृत्ति धारण कर तपस्या करनेसे वे कैवल्यज्ञानी हए थे। ४४ वर्ष तक कैवल्यज्ञानी रहने के उपरान्त उन्हें सिद्ध पद प्राप्त हुआ था। इस प्रकार ८० वर्षकी आयुमें उन्होंने मोक्ष लाभ किया। जम्बू स्वामी जैनधर्मके अन्तिम केवली माने गये हैं। उनकी तपस्या और मोक्ष-प्राप्तिका केन्द्र होनेसे मथुराका चौरासी नामक स्थल जैनधर्मका 'सिद्ध क्षेत्र' माना जाता है। जम्बू स्वामी के प्रभावसे सद्गृहस्थोंके अतिरिक्त दस्युओंके जीवनमें भी धार्मिकताका उदय हुआ था। उस समयके कई भयंकर चोर अपने बहुसंख्यक साथियोंके साथ दुष्प्रवृत्तियोंको छोड़कर तप और ध्यानमें लीन हुए थे। मथुराके तपोवनमें उक्त दस्युओंको भी साधु-वृत्ति द्वारा परमगति प्राप्त हुई थी। कालान्तरमें जब चौरासीमें जम्बू स्वामीके चरण-चिह्न सहित मन्दिर बना, तब उनके समीप उन तपस्वी दस्युओंकी स्मृतिमें भी अनेक स्तूप बनवाये गये थे । देव निर्मित स्तूप-सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथजी की स्मृतिमें कुवेरा देवीने मथुरामें जिस स्तूपका निर्माण किया था, वह अत्यन्त प्राचीन कालसे ही जैनधर्मके इतिहास में प्रसिद्ध रहा है। 'मथुरापुरी कल्प' से ज्ञात होता है कि तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथजीके समय में उसे ईंटोंसे पुननिमित किया गया था। वह जैनधर्मका सबसे प्राचीन स्तूप था, जो कमसे कम तीन सहत्र पूर्व बनाया गया था। इतिहास और पुरातत्त्व : २५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक कालके अनेक विदेशी पुरातत्त्व वेत्ताओंने मथुराके कंकाली टीलाकी खुदाई की थी। उसमें जैनधर्मसे सम्बन्धित बड़ी महत्त्वपूर्ण वास्तु-सामग्री प्राप्त हुई। उस सामग्री में कुषाण कालीन एक मूर्तिकी अभिलिखित पीठिका है, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय ( संख्या जे० २० ) में है। उस पीठिकाके अभिलेखसे ज्ञात होता है कि कुषाण सं०७१ ( सन् १५७ ई० ) में कोट्टिय गणकी वैर शाखाके आचार्य वृद्धहस्तिके आदेशसे श्राविका दिनाने उक्त अहंत प्रतिमाको देव निर्मित 'वोद्व स्तूप में प्रतिष्ठापित किया था । इस अभिलेखसे सिद्ध होता है कि कुवेरा देवोके स्तूपका नाम 'वोद्व स्तुप' था और यह मथुराके उस स्थलपर बनाया गया था, जिसे अब कंकाली टोला कहते हैं। दूसरी शताब्दी में ही वह स्तूप इतना प्राचीन हो गया था कि उसके निर्माण-काल और निर्माताके सम्बन्धमें किसी को कुछ ज्ञान नहीं था। फलतः उस कालमें उपे देव निर्मित स्तूप कहा जाने लगा था। उक्त स्तूपके सम्बन्धमें मान्यता है कि पहले एक मूल स्तुप था, बादमें पांच बन गये। कालान्तरमें अनेक छोटे-बड़े स्तुप बनाये गये, जिनकी संख्या ५०० से भी अधिक हो गयी थी। उन स्तूपोंके साथ-साथ जैनधर्म के अनेक देवालय और चैत्य भी वहाँ पर समय-समय पर निर्मित होते रहे थे। उन स्तूपों और देवालयोंमें विविध तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गई थीं। उन सबके कारण वह स्थल मथुरा मंडलमें ही नहीं, वरन् समस्त भारतवर्ष में जैनधर्मका सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र हो गया था। इसका प्रमाण वहाँके उत्खननमें प्राप्त सैकड़ों मूर्तियाँ और वास्तु-कलावशेष है । जैनधर्मसे सम्बन्धित इतनी अधिक और इतने महत्त्वकी पुरातात्त्विक सामग्री किसी अन्य स्थानसे प्राप्त नहीं हुई है। जैन मूर्तियों के साथ ही साथ कुछ मूर्तियाँ बौद्ध और हिन्दू धर्मोसे सम्बन्धित भी मिली हैं, जो उस कालके जैनियोंकी धार्मिक उदारता और सहिष्णुताकी सूचक हैं । ऐसा जान पड़ता है, उस स्थलके भारतव्यापी महत्त्वके कारण अन्य धर्मवालोंने भी अपने देवालय वहाँ बनाये थे। जैनधर्ममें तीर्थ-स्थलोंके दो भेद माने गये हैं, जिन्हें १-सिद्ध क्षेत्र और २-अतिशय क्षेत्र कहा गया है। किसी तीर्थंकर अथवा महात्माके सिद्ध पद या निर्वाण-प्राप्तिके स्थलको 'सिद्ध क्षेत्र' कहते हैं, और किसी देवताकी अतिशयता अथवा मन्दिरोंकी बहुलताका स्थान 'अतिशय क्षेत्र' कहलाता है। इस प्रकारके भेद दिगम्बर सम्प्रदायके तीर्थों में ही माने जाते हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ये भेद नहीं होते हैं । दिगम्बर सम्प्रदायके उक्त तीर्थ-भेदके अनुसार मथुरा सिद्ध क्षेत्र भी है और अतिशय क्षेत्र भी। 'सिद्ध क्षेत्र' इसलिये कि यहाँके 'चौरासी' नामक स्थल पर जम्बू स्वामीने सिद्ध पद एवं निर्वाण प्राप्त किया था। यह 'अतिशय क्षेत्र इसलिये है कि यहाँ के कंकाली टीलेके जैन केन्द्र में देव निर्मित स्तूप के साथ-साथ स्तूपों, देवालयों और चैत्योंकी अनुपम अतिशयता थी। कंकाली टीलाके उत्खननमें सर्वश्री कनिंघम, हाडिंग, ग्राउस, बर्गेस और फ्यूर जैसे विख्यात विदेशी पुरातत्त्वज्ञोंने योग दिया था । वहाँसे जो महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई थी, उसमेंसे अधिकांश लखनऊ संग्राहलयमें है । उसका अल्प भाग मथुरा संग्रहालयमें है, और शेष भाग भारत तथा विदेशोंमें बिखरा हुआ है । इसका परिचयात्मक विवरण डॉ० विसेण्ट स्मिथकी पुस्तक, लखनऊ संग्रहालयके विवरण और डॉ० वोगल कृत मथुरा संग्रहालयके सूचीपत्रसे जाना जा सकता है । कंकाली टीला प्रायः 1500 वर्ग फीटका एक ऊबड़-खाबड़ स्थल है। इसके एक किनारे पर कंकाली नामकी देवीका एक छोटासा मंदिर बना हुआ है, जिसके नामसे इस समय यह स्थल प्रसिद्ध है। इसकी खुदाई में 47 फीट व्यासका ईटोंका एक स्तुप और दो जैन देवालयोंके अवशेष मिले है। इसमेंसे जो सैकड़ों २६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तियाँ, वास्तु खंड और कलावशेष मिले हैं, उन सबका परिचय देना संभव नहीं है। इस संबंधमें पूर्वोक्त विवरण पुस्तिकाओंसे जाना जा सकता है। मतियों में जो सर्वाधिक महत्त्वकी हैं. उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तत है। कंधों तक जटा फैलाए हुए आदि तीर्थकर ऋषभनाथजीकी मूर्ति, बलभद्र-वासुदेवके साथ अंकित २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथजीकी मूर्ति, और सर्प-फणोंसे आच्छादित २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथजीकी मूर्ति तो अपने विशिष्ट चिह्नोंसे पहिचान ली गई हैं। इनके अतिरिक्त अन्य तीर्थकरोंकी जो बहुसंख्यक मूर्तियां हैं, वे विशिष्ट चिह्नोंके अभावमें नहीं पहिचानी जा सकती हैं। जिन मूर्तियोंपर उनके नाम अंकित हैं, उन्हें पहिचान लिया गया है। ये तीर्थंकर मूर्तियां कैवल्य-प्राप्तिके लिये दंडवत् खड़ी हुई और ध्यानावस्थित अवस्था में बैठी हुईइन दोनों मुद्राओंमें मिली हैं। जैन देवियोंकी मूर्तियों में सर्वाधिक महत्त्वकी सरस्वती प्रतिमा है, जो लखनऊ संग्रहालय ( सं० जे० २४ ) में है । यह अभिलिखित है, और अबतक मिली हुई सरस्वतीकी मूर्तियोंमें सबसे प्राचीन है। दूसरी आदि तीर्थंकर ऋषभनाथकी यक्षिणी चक्र श्वरी देवीकी प्रतिमा है, जो दसवीं शतीकी है, और इस समय मथुरा संग्रहालयमें प्रदर्शित है। इनके अतिरिक्त सर्वतोभद्र अर्थात चतुर्मुखी मर्तियां भी हैं। इनमेंसे अनेक मूर्तियोंपर उनके निर्माण-काल और निर्माताओंके नाम अंकित हैं। इनसे जैन मूर्ति कलाके विकासको भली भांति समझा जा सकता है । मूर्तियोंसे भी अधिक महत्त्वके वे आयाग पट हैं, जो जैन मूर्तियों के निर्माणके पूर्वकी स्थितिके परिचायक है। जब जैनधर्ममें मूर्तियोंका प्रचलन नहीं हुआ था, तब शिलाखंडोंपर जैनधर्मके मांगलिक चिह्नोंका अंकनकर उन्हें तीर्थंकरोंके प्रतीक रूपमें पूजाके लिये प्रतिष्ठित किया जाता था । उक्त शिलाखंडोंको 'आयाग पट' कहते हैं। इस प्रकारके कई पट कंकाली की खुदाईमें मिले हैं, जो लखनऊ और मथ राके संग्रहालयोंमें प्रदर्शित हैं । उक्त पूजनीय पटोंके अतिरिक्त अनेक कलात्मक पट भी कंकालीसे मिले हैं । उनमें सबसे प्राचीन पट शुगकाल ( दूसरी शती पूर्व ) के हैं । ऐसे एक शिलापटमें भगवान् ऋषभनाथजीके समक्ष नीलांजना अप्सराके नृत्यका दृश्य अंकित है। यह प्राचीन भारतीय नृत्यकी मुद्राका अंकन है, के विगत कलात्मक वैभवको प्रकट करता है। शग कालीन एक अन्य शिलापट किसी धार्मिक स्थलका तोरण है। इसके एक ओर यात्राका दृश्य है, और दूसरी ओर सुपर्णों तथा किन्नरों द्वारा स्तूप के पूजनका दृश्य है। अनेक पटोंपर सुदरियोंकी विभिन्न चेष्टाओं और मुद्राओंके दृश्य अंकित है । इनसे प्राचीन जैनधर्मकी कलात्मक अभिरुचिका भली-भांति परिचय मिलता है। मथरामंडलके वे दोनों जैन केन्द्र-१. जम्ब स्वामीका निर्वाण-स्थल और २. देवनिर्मित स्तूप तथा उसके समीप बने हए बहसंख्यक देवालयोंसे समृद्ध कंकाली टीला-अपने निर्माणकालसे अनेक शताब्दियों पश्चात् तक समस्त जैनियोंके लिये समान रूप से श्रद्धास्पद थे। मगध जनपद और दाक्षिणात्य क्षेत्रोंके जैनसंघ कालांतरमें दिगंबर और श्वेतांबर नामक दो संप्रदायोंमें विभाजित हो गये थे, किन्तु प्राचीन व्रजमंडलका जैनसंघ उस भेद-भावसे अछूता रहा, और यहाँ के देव-स्थान सभी संप्रदाय वालोंके लिये पूजनीय बने रहे थे। प्राचीन ब्रजमंडलमें जैनधर्मकी इन महत्त्वपूर्ण उपलब्धियोंके साथ ही साथ इस भू-भागमें समय-समय पर ऐसी अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ भी हुई है, जिन्होंने जैनधर्मके इतिहासमें गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। यहाँ पर ऐसी कतिपय घटनाओंका उल्लेख किया जाता है। 'सरस्वती'-आन्दोलन और 'जिन वाणी' का लेखन-जैनधर्म के मूल सिद्धांत भगवान् महावीर इतिहास और पुरातत्त्व : २७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा कथित अर्धमागधी प्राकृत भाषामें हैं, जिन्हें 'जिन-वाणी' अथवा 'आगम' कहा जाता है। वैदिक संहिताओंकी भाँति जैन आगम भी पहले श्रत रूप में थे। सम्राट अशोकने बौद्धधर्मके प्रचारार्थ अपने साम्राज्य के विविध स्थानोंमें जो धर्म-लेख लिखवाये थे, उनसे जैनधर्मके विद्वानोंको भी आगमोंको लिखित रूपमें सुरक्षित करनेको आवश्यकता प्रतीत होने लगी; किंतु जैनाचार्योके प्रबल विरोधके कारण उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया जा सका था। जब कई शताब्दियों तक अन्य स्थानोंके जैनाचार्य आगमोंको लिपिबद्ध नहीं कर सके, तब मथुरामंडलके जैन विद्वानोंने उक्त प्रश्नको उठाया, और 'सरस्वती आंदोलन' द्वारा इस विषयका नेतृत्व किया था। विद्या बुद्धि और ज्ञान-विज्ञानकी अधिष्ठात्री देवीका नाम सरस्वती है। इसे ब्राह्मी, भारती, भाषा और गीर्वाणवाणी भी कहते हैं। यद्यपि सरस्वतीकी मूल कल्पना प्राचीन है, तथापि इसके स्वरूपका विकास और पूजनका प्रचार जैनधर्मकी देन है। मथुराके जैन विद्वानोंको यह श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने परंपरागत श्रुत एवं कंठस्थ 'जिन वाणी' को लिखित रूप प्रदान करने के लिये 'सरस्वती आंदोलन' चलाया था, और मथुराके मूर्ति-कलाकारोंने सर्वप्रथम पुस्तकधारिणी सरस्वती देवीकी प्रतिमाएँ निर्मितकर उस आंदोलनको मुत्त रूप प्रदान किया था। उक्त आंदोलन का यह परिणाम हुआ कि जिन-वाणीको लिपिबद्ध करने का विरोध क्रमश: कम होता गया। पहिले दिगंबर विद्वानोंने आगम ज्ञानको संकलित कर लिपिबद्ध किया, बादमें श्वेतांबर विद्वान् भी उसके लिये सहमत हो गये । यद्यपि इस कार्यमें कई शताब्दियों तक ऊहापोह होता रहा था। 'माथुरी-वाचना'-दिगंबर विद्वानों द्वारा आगमोंके संकलन और लेखनसे उत्पन्न स्थितिपर विचार करनेके लिये सं 370 वि० के लगभग मथुरामें श्वेतांबर यतियोंका एक सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता आर्य स्कंदिलने की थी। उस सम्मेलनमें आगमोंका पाठ निश्चित कर उनकी व्याख्या की गई, जिसे 'माथुरी वाचना' कहा जाता है। उसी समय आगमोंको लिपिबद्ध करनेपर भी विचार किया गया, कितु भारी मतभेद होने के कारण तत्संबंधी निर्णय स्थगित करना पड़ा। बादमें विक्रमकी छठी शताब्दीके आरंभमें सुराष्ट्र के वल्लभी नगर में देवधिगणी क्षमा-श्रमणको अध्यक्षतामें श्वेतांबर मान्यताके आगमोंको सर्वप्रथम संकलित एवं लिपिबद्ध किया गया था। श्वेतांबर साधु जिनप्रभ सूरि कृत 'मथुरापुरी कल्प'में लिखा है, जब शूरसेन प्रदेशमें शवर्षीय भाषण दुर्भिक्ष पड़ा था, तब आर्य स्कंदिलने संघको एकत्र कर आगमोंका अनुयोग किया था। मथुराके प्राचीन देवनिर्मित स्तूप में एक पक्षके उपवास द्वारा देवताकी आराधनाकर जिनप्रभ श्रमणने दीमकोंसे खाये हुए त्रुटित 'महानिशीथ सूत्र' की पूर्ति की थी। साहित्य-प्रणयन-जैनधर्मका प्राचीन साहित्य अर्धमागधी प्राकृतमें है, जिसे 'जैन प्राकृत' कहा जाता है। बादका साहित्य संस्कृत, अपभ्रंश और प्रांतीय भाषाओं में रचा हआ उपलब्ध है । प्राचीन साहित्य में प्रमुख स्थान आगमोंका है। उनके पश्चात् पुराणोंका महत्त्व माना जाता है। पुराणोंमें जैन तीर्थंकरोंकी महिमाका वर्णन किया गया है। उनके साथ राम और कृष्णका भी उल्लेख हआ है; किंतु उनके चरित्र जैन विद्वानों ने वैष्णव विद्वानोंकी अपेक्षा कुछ भिन्न दृष्टिकोणसे लिखे हैं । वासुदेव कृष्णको तीर्थंकर नेमिनाथजीका भाई माना गया है, अतः कृष्णके पिता वसुदेव, भाई बलभद्र और पुत्र प्रद्युम्नके चरित्र लिखने में जैन विद्वानोंने बड़ी रुचि प्रकट की है। ऐसे ग्रंथोंमें जिनसेनाचार्य कृत 'हरिवंश पुराण' विशेष रूपसे उल्लेखनीय है। यह 66 सर्गोका विशाल ग्रंथ है । इसकी रचना सं0 840 में हुई थी। इसके आरंभिक सर्गोमें अन्य तीर्थंकरोंका संक्षिप्त कथनकर 18 वें सर्ग से 61 सर्ग तक तीर्थंकर नेमिनाथजीका और उनके साथ वसुदेव, वासुदेव, कृष्ण, बलभद्र तथा प्रद्युम्नका अत्यंत विशद वर्णन किया गया है। सबके अंतमें भगवान महावीरका चरित्र वर्णित है। २८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस कालके ग्रंथोंमेंसे जो ग्रंथ ब्रजमंडलमें रचे गये थे, उनका प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है। 'ऐसा अनुमान है संस्कृत, शौरसेनी प्राकृत और शौरसेनी अपभ्रंशमें कुछ ग्रंथ अवश्य रचे गये होंगे, जो कालके प्रवाहमें नष्ट हो गये। कालांतरमें जो ग्रथ व्रजभाषामें रचे गये थे, वे अब भी विद्यमान हैं, और उनसे व्रजमंडल के जैन विद्वानोंकी साहित्य-साधनापर अच्छा प्रकाश पड़ता है। हणों का आक्रमण-मौर्य-शुग कालके पहिलेसे लेकर गुप्त शासन के बाद तक, अर्थात् एक सहस्रसे अधिक काल तक प्राचीन व्रजमंडल में जैनधर्मसे संबंधित इमारतें प्रायः अक्षुण्ण रही थीं। उस कालमें जैन धर्मकी उत्तरोत्तर उन्नति करता रहा था। गुप्त शासनके अंतिम कालमें जब असभ्य हूणोंने प्राचीन ब्रजमंडल पर आक्रमण किया, तब उन्होंने यहाँकी अन्य इमारतोंके साथ ही साथ जैन इमारतोंको भी बड़ी हानि पहँचाई थी। यहाँका सुप्रसिद्ध देव निर्मित स्तूप उस कालमें क्षतिग्रस्त हो गया था, और अन्य स्तूप एवं मंदिर-देवालय भी नष्टप्राय हो गये थे। देवस्थानोंका जीर्णोद्धार और धार्मिक स्थितिमें सुधार हूणोंके आक्रमणसे प्राचीन व्रजमंडलकी जो इमारतें क्षतिग्रस्त हो गई थीं, उनके जीर्णोद्धारका श्रेय जिन श्रद्धालु महानुभावोंको है, उनमें वप्पभट्टि सरिका नाम उल्लेखनीय है । 'विविध तीर्थकल्प' से ज्ञात होता है कि वप्पभट्टि सूरिने अपने शिष्य ग्वालियर नरेश आमराजसे सं० 826 वि० में मथुरा तीर्थका जीर्णोद्धार कराया था। उसी समय ईंटोंसे बना प्राचीन 'देवनिर्मित स्तूप', जो उस समय जीर्णावस्थामें था, पत्थरोंसे पुननिर्मित किया गया और उसमें भ० पार्श्वनाथजीके जिनालय एवं भ० महावीरजीके बिम्ब की स्थापना की गई थी। वप्पट्टि सूरिने मथुरामें एक मंदिरका निर्माण भी कराया था, जो यहाँपर श्वेतांबर संप्रदायका सर्वप्रथम देवालय था। . बौद्धधर्मके प्रभावहीन और फिर समाप्त हो जानेपर मथरामंडल में जो धर्म अच्छी स्थितिमें हो गये थे, उनमें जैनधर्म भी था। 10 वीं, 11 वीं और 12 वीं शताब्दियोंमें यहाँपर जैनधर्मकी पर्याप्त उन्नति होनेके प्रमाण मिलते हैं। उस कालमें मथुरा स्थित कंकाली टीलाके जैन केन्द्र में अनेक मंदिर-देवालयोंका निर्माण हआ था और उनमें तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गई थीं। उस कालकी अनेक लेखांकित जैन मूर्तियाँ कंकाली टीलेकी खुदाईमें प्राप्त हुई हैं । मथुराके अतिरिक्त प्राचीन शौरिपुर (बटेश्वर, जिला आगरा) भी उस काल में जैनधर्मका एक अच्छा केन्द्र हो गया था और वहाँ प्रचुर संख्या में जैन मंदिरोंका निर्माण हुआ था। महमूद गज़नवीके आक्रमणका दुष्परिणाम-सं० 1074 में जब महमूद गज़नवीने मथुरापर भीषण आक्रमण किया था, तब यहाँके धार्मिक स्थानोंकी बड़ी हानि हुई थी। कंकाली टीलाका सुप्रसिद्ध 'देवनिर्मित स्तुप' भी उसी कालमें आक्रमणकारियोंने नष्ट कर दिया था, क्योंकि उसका उल्लेख फिर नहीं मिलता है। ऐसा मालूम होता है, उक्त प्राचीन स्तूपके अतिरिक्त कंकाली टीलाके अन्य जैन देवस्थानोंकी बहत अधिक क्षति नहीं हुई थी, क्योंकि उससे कुछ समय पूर्व ही वहाँ प्रतिष्ठित की गई जैन प्रतिमाएँ अक्षण्ण रूपमें उपलब्ध हुई हैं । संभव है, जैन श्रावकों द्वारा उस समय वे किसी सुरक्षित स्थानपर पहुँचा दी गई हों, और बादमें स्थिति ठीक होनेपर उन्हें प्रतिष्ठित किया गया हो । महमूद गज़नवीके आक्रमण कालसे दिल्लीके सुल्तानोंका शासन आरंभ होने तक अर्थात् 11 वीं से 13 वो शतियों तक मथुरामंडलपर राजपूत राजाओंका शासनाधिकार था। उस कालमें यहाँ जैनधर्मकी स्थिति कुछ ठीक रही थी। उसके पश्चात वैष्णव संप्रदायों का अधिक प्रचार होनेसे जैनधर्म शिथिल होने लगा था। इतिहास और पुरातत्त्व : २९ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थों की यात्रा-वैष्णव संप्रदायोंका अधिक प्रचार होनेसे इस कालमें जैनधर्मका प्रभाव तो घट गया था, किंतु जैन देवस्थानों के प्रति जनताकी श्रद्धा बनी रही थी। वैष्णव संप्रदायोंका केन्द्र बननेसे पहिले मथुरा नगर जैनधर्म का प्रसिद्ध केन्द्र था। श्वेतांबर और दिगंबर दोनों संप्रदायोंके जैन साधु और श्रावकगण मथरा तीर्थकी यात्रा करने आते थे। ऐसे अनेक तीर्थ-यात्रियोंका उल्लेख जैनधर्मके विविध ग्रंथोंमें हुआ है। सुप्रसिद्ध शोधक विद्वान श्री अगरचंदजी नाहटाने उक्त उल्लेखोंका संकलनकर इस विषयपर अच्छा प्रकाश डाला है। उनके लेखसे ज्ञात होता है कि प्रथम शतीसे सतरहवीं शती तक जैन यात्रियोंके आनेका क्रम चलता रहा था। मथुरा तीर्थकी यात्रा करनेवाले जैन यात्रियोंमें सर्वप्रथम मणिधारी जिनचंद्र सूरिका नाम उल्लेखनीय है। 'युग प्रधान गुर्वावली' के अनुसार उक्त सूरिजीने सं० 1214-17 के काल में मथुरा तीर्थकी यात्रा की थी । उक्त गुर्वावलमें खरतर गच्छके 14 शताब्दी आचार्य जिनचंद्र सूरिके नेतृत्वमें ठाकुर अचल द्वारा संगठित एक बड़े संघ द्वारा भी यात्रा किये जाने का उल्लेख हआ है। वह यात्री-संघ सं० 1374 में मथुरा आया था। उसने मथुराके सुपा-र्व और महावीर तीर्थोकी यात्रा की थी। मुहम्मद तुगलकके शासन काल ( सं० 1382-सं० 1408 ) में कर्णाटकके एक दिगंबर मुनिकी मथुरा यात्राका उल्लेख मिलता है। उसी कालमें समराशाहने शाही फरमान प्राप्तकर एक बड़े यात्री-संघका संचालन किया था। उसी संघके साथ यात्रा करते हुए गुजरातके श्वेतांबर मुनि जिनप्रभ सूरि सं० 1385 के लगभग मथुरा पधारे थे। उन्होंने यहाँके जैन देवालयोंके दर्शन और जैन स्थलोंकी यात्रा करने के साथ ही साथ व्रजके विविध तीर्थोकी भी यात्रा की थी। उक्त यात्राके अनंतर जिनप्रभ सूरिने सं० 1388 में 'विविध तीर्थ कल्प' नामक एक बड़े ग्रंथकी रचना प्राकृत भाषामें की थी, उसमें उन्होंने जैन तीर्थोका विशद वर्णन किया है। इस ग्रंथका एक भाग 'मथुरापुरी कल्प' में है, जिसमें मथरा तीर्थसे संबंधित जैन अनुश्रतियोंका उल्लेख हआ है। इसके साथ ही उसमें मथुरामंडलसे संबंधित कुछ अन्य ज्ञातव्य बातें भी लिखी गई हैं। उनसे यहाँकी तत्कालीन धार्मिक स्थितिपर अच्छा प्रकाश पड़ता है। कृष्ण-भक्तिके प्रचार और सुलतानोंकी नीतिका प्रभाव-जब व्रजमंडलके कृष्ण-भक्ति का व्यापक प्रचार हआ, तब यहाँके बहसंख्यक जैनी जैनधर्मको छोड़कर कृष्ण-भक्तिके विविध संप्रदायोंके अनुयायी हो गये थे । नाभा जी कृत 'भक्तमाल' और वल्लभ संप्रदायी 'वार्ता' में ऐसे अनेक जैनियोंके नाम मिलते हैं। जैनधर्मकी उस परिवर्तित परिस्थितिमें व्रजमंडलके जैन स्तूप-मंदिर, देवालय आदि उपेक्षित अवस्थामें जीर्ण-शीर्ण होने लगे थे। फिर दिल्ली के तत्कालीन मुसलमान सुलतान अपने मजहबी तास्सुबके कारण बारबार आक्रमण कर उन्हें क्षति पहुँचाया करते थे। सेठ समराशाह जैसे धनी व्यक्ति समय-समय पर उनकी मरम्मत कराते थे, किन्तु वे बार-बार क्षतिग्रस्त कर दिये जाते थे। इस प्रकार मुगल सम्राट अकबरके शासनकालसे पहिले मथुरा तीर्थका महत्त्व जैन धर्मको दृष्टिसे कम हो गया था, और वहाँके जैन देव-स्थानोंकी स्थिति शोचनीय हो गयी थी। कृष्ण-भक्तिके वातावरणमें रचित जैन ग्रंथ-श्रीकृष्णके पुत्र प्रद्युम्नके संबंध जैन मान्यताका सर्वप्रथम व्रजभाषा ग्रंथ सुधार अग्रवाल कृत 'प्रद्युम्न चरित' है। यह एक सुन्दर प्रबंध काव्य है 'ब्रजभाषाके अद्यावधि प्राप्त ग्रंथोंमें सबसे प्राचीन' होने के साथ ही साथ यह हिन्दी जैन ग्रंथके रूपमें भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका रचना-काल १४वीं शताब्दी है । इस ग्रंथके पश्चात् जो हिन्दी जैन रचनाएँ प्रकाश में आई. उनमें से १. 'व्रज भारती', वर्ष ११, अंक २ में प्रकाशित-'मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्रा।' ३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकतर मुगल सम्राट अकबरके शासनकालकी, अथवा उसके बादकी हैं। उनमें भी अधिकांश अकबरकी राजधानी आगरा अथवा उसके निकटवर्ती स्थानोंमें रची गई थीं। अकबर कालीन स्थिति-मुगल सम्राट अकबरका शासनकाल व्रजमंडलके लिये बड़ा हितकर और यहाँके धर्म-सम्प्रदायोंके लिये बड़ा सहायक सिद्ध हुआ था। उससे जैन धर्मावलम्बी भी प्रचुरतासे लाभान्वित हुए थे। उस कालके पहिले व्रजमंडलमें मथुरा और बटेश्वर ( प्राचीन शौरिपुर ) और उनके समीपस्थ ग्वालियर जैन धर्मके केन्द्र थे । अकबरके शासनकालमें उसकी राजधानी आगरा नगर जैनधर्मका नया और अत्यन्त शक्तिशाली केन्द्र बन गया था। मथुरा, बटेश्वर और ग्वालियरका तो धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व था; किन्तु आगरा राजनैतिक कारणोंसे जैन केन्द्र बना था। सम्राट अकबर सभी धर्म-सम्प्रदायोंके प्रति उदार थे। वे सबकी बातोंको ध्यानपूर्वक सुनते थे, और उनमेंसे उन्हें जो उपयोगी ज्ञात होतीं, उन्हें ग्रहण करते थे। वे जैनधर्मके मुनियोंको भी आमंत्रित कर उनका प्रवचन सुना करते। उन्होंने अन्य विद्वानोंके अतिरिक्त गुजरातके विख्यात श्वेतांबराचार्य हीरविजय सूरिको बड़े आदरपूर्वक फतेहपुर सीकरी बुलाया था, और वे प्रायः उनके धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा-आगरा आदि समस्त व्रजमंडलमें बसे हुए जैनियोंमें आत्म-गौरवका भाव जाग्रत हुआ था। वे मंदिरदेवालयोंके नव-निर्माण अथवा जीर्णोद्धारके लिये भी तब प्रयत्नशील होने लगे थे। आचार्य हीरविजय सूरि जी स्वयं मथुरा पधारे थे। उनकी यात्राका वर्णन 'हीर सौभाग्य काव्य' के १४वें सर्गमें हुआ था। उसमें लिखा है, सूरि जीने मथुरामें विहारकर वहां पार्श्वनाथ और जम्बूस्वामी के स्थलों तथा 527 स्तूपोंकी यात्रा की थी। अकबरके शासनकालसे आगरा नगर जैनधर्मका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र हो गया था। वहाँके अनेक विद्वानों, कवियों और लेखकोंने बहुसंख्यक ग्रंथोंकी रचना कर जैनधर्मकी साहित्यिक समृद्धि करनेके साथ . ही साथ व्रजभाषा साहित्यको भी गौरवान्वित किया था। साह टोडर और मंत्रीश्वर कर्मचंद-अकबरके शासनकालमें वे दोनों प्रतिष्ठित जैन-भक्त मथुरा तीर्थकी यात्रा करने गये थे। साहू टोडर भटानिया ( जिला कोल, वर्तमान अलीगढ़ ) के निवासी गर्ग गोत्रीय अग्रवाल जैन पासा साहके पुत्र थे। वे अकबरी शासन के एक प्रतिष्ठित राजपुरुष होनेके साथ ही साथ धनाढ्य सेठ भी थे। उन्होंने प्रचुर धन लगाकर मथुरामंडलके भग्न जैन स्तूपों और मंदिरोंके जीर्णोद्धारका प्रशंसनीय कार्य किया था। वह धार्मिक कार्य सं० 1630 की ज्येष्ठ शुक्ल 12 बुधवारको पूर्ण हुआ था। उसी समय उन्होंने चतुर्विध संघको आमंत्रित कर मथुरामें एक जैन समारोहका भी आयोजन किया था। तीर्थ-पुनरुद्धारके साथ ही साथ उन्होंने मथुराके चौरासी क्षेत्र पर तपस्या कर निर्वाण प्राप्त करनेवाले कैवल्यज्ञानी जम्बूस्वामीके चरित्र ग्रंथोंकी रचनाका भी प्रबन्ध किया था। फलतः उनकी प्रेरणासे संस्कृत और व्रजभाषा हिन्दीमें जम्बूस्वामी चरित्र उस कालमें लिये गये थे। संस्कृत 'जम्बूस्वामी चरित्र' का निर्माण उस समयके विख्यात जैन विद्वान पांडे राजमल्लने सं० 1632 की चैत्र कृ० 8 को और व्रजभाषा छन्दोबद्ध ग्रंथकी रचना पांडे जिनदासने सं० 1642 में की थी। बीकानेरके राज्यमंत्री कर्मचन्द्रने भी मथुरा तीर्थकी यात्रा कर यहाँके कुछ चैत्योंका जीर्णोद्धार कराया था। उसका उल्लेख 'कर्मचन्द्र वंशोत्कीर्तन' काव्यमें हुआ है। पं० बनारसीदासकी महत्त्वपूर्ण देन-पं० बनारसीदास जौनपुर निवासी श्रीमाली जैन थे। वे मुगल सम्राट् जहाँगीरके शासनकालमें आगरा आये थे, और फिर उसी नगरके स्थायी निवासी हो गये थे। वे गृहस्थ होते हए भी जैन दर्शन और अध्यात्मके अच्छे ज्ञाता, सुप्रसिद्ध साहित्यकार और क्रांतिकारी विद्वान इतिहास और पुरातत्त्व : ३१ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। उन्होंने जैनधर्मके अन्तर्गत एक आध्यात्मिक पंथ की स्थापना की, और अनेक ग्रंथों की रचना की थी । उनके पंथको पहिले 'अध्यात्मी पंथ' अथवा 'बनारसी मत' कहा जाता था, बाद में वह 'तेरह पंथ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था । उस सुधारवादी मतके कारण उस कालके दिगम्बर सम्प्रदायी चैत्यवासी भट्टारकों की प्रतिष्ठा में पर्याप्त कमी हुई थी । पं० बनारसीदास हिन्दीके जैन ग्रंथकारोंमें सर्वोपरि माने जाते हैं। उनकी ख्याति उनकी धार्मिक विद्वत्तासे भी अधिक उनके ग्रन्थोंके कारण है। उनकी रचनाओंमें 'नाटक समयसार' और 'अर्थ कथानक' अधिक प्रसिद्ध हैं। 'नाटक समयसार' अध्यात्म और वेदान्तकी एक महत्वपूर्ण रचना है। इसका प्रचार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में है। 'अर्थ कथानक' उनका आत्म-चरित्र है, जो उनके जीवन के प्रथम अर्थ भागसे संबंधित है। यह भी अपने विषयको महत्त्वपूर्ण रचना है। उनकी दो अन्य रचनाएँ 'बनारसी नाम माला' और 'बनारसी विलास है। ये सब ग्रंथ पद्यात्मक है। इनके अतिरिक्त उनकी एक गद्य रचना 'परमार्थ वचनका' भी है। यह जैन साहित्यकी आरंभिक हिन्दी गद्य रचनाओंमेंसे है, अतः इसका भी अपना महत्व है । औरंगजेबी शासनका दुष्परिणाम - मुगल सम्राट् अकबर, जहाँगीर और शाहजहांक शासनकालमें जैनधर्मकी जितनी उन्नति हुई थी, औरंगजेबके शासन में उससे अधिक अवनति हो गयी थी। उस कालमें व्रजमंडलके गैर मुसलिम धर्म-सम्प्रदायोंके सभी देव स्थान नष्ट कर दिये गये थे उक्त धर्म-सम्प्रदायोंके अधिकांश आचार्य, संत, महात्मा, विद्वान् और गुणी जन व्रजमंडल छोड़कर हिन्दू थे । उस कालमें जैनधर्मकी स्थिति भी अत्यन्त शिथिल और प्रभावशून्य हो गयी थी केन्द्र कंकाली टीला और चौरासीमेंसे कंकाली टीला तो पहिले ही वीरान सा था, क्षेत्र भी महत्त्वशून्य हो गया। बटेश्वर और आगरा केन्द्रोंकी भी तब प्रतिष्ठा भंग हो गयी थी । - । आधुनिककालकी स्थिति - औरंगजेबी शासनकाल के बादसे अंग्रेजी राज्यकी स्थापना तक समस्त व्रजमंडल जैनधर्मकी स्थिति बिगड़ी हुई रही थी। अंग्रेजी शासनकालमें मथुराके सेठों द्वारा जैनधर्मको बड़ा संरक्षण मिला था। इस परानेके प्रतिष्ठाता सेठ मनीराम दिगम्बर जैन श्रावक थे वे पहिले ग्वालियर राज्यके दानाधिकारी श्रीगोकुलदास पारिखके एक साधारण मुनीम थे । जब पारिखजी अपने साथ करोड़ों की धर्मादा सम्पत्ति लेकर उससे व्रजमें मंदिराविका निर्माण कराने सं0 1870 में मथुरा गये थे, तब मनीराम मुनीम भी उनके साथ थे। पारिखजी अपनी मृत्यु पहिले मनीरामजी के ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मी चन्दको अपना उत्तराधिकारी बना गये थे । उनके बाद मनीराम लक्ष्मीचन्द पारिखजीकी विपुल सम्पत्ति के स्वामी हुए । उन्होंने व्यापार द्वारा उस सम्पत्तिको खूब बढ़ाया और विविध धार्मिक कार्यों में उसका सदुपयोग किया। उन्होंने मथुराके 'चौरासी' सिद्ध क्षेत्रका जीर्णोद्वार कर वहाँ जैन मन्दिरका निर्माण कराया था। उसमें उन्होंने अष्टम तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रभकी मूर्ति प्रतिष्ठित कर दिगम्बर विधिके अनुसार उनकी पूजा की यथोचित व्यवस्था की थी। बाद में सेठ लक्ष्मीचन्दके पुत्र रघुनाथदासने वहाँ द्वितीय तीर्थंकर भगवान् अजितनाथकी संगमरमर प्रतिमाको प्रतिष्ठित किया था। मथुरामंडल के आधुनिक जैन देवालयों में यह मन्दिर सबसे अधिक प्रसिद्ध है । यहाँ पर कार्तिक कृ० 2 से कृ० 8 तक प्रति वर्ष एक बड़ा उत्सव होता है, जिसमें रथयात्राका भी आयोजन किया जाता है । राज्यों में आकर बस गये मथुरा के प्रसिद्ध जैनफिर चौरासीका सिद्ध वर्तमान स्थिति - इस समय मथुरामें जैनधर्मका प्रसिद्ध केन्द्र चौरासी स्थित क्षेत्र ही है। यहाँ पर 'अखिल भारतीय दिगम्बर जैन संघ का केन्द्रीय कार्यालय है। ३२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ जम्बूस्वामीका सिद्ध साप्ताहिक पत्र 'जैन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेश' इसी स्थानसे प्रकाशित होता है। यहाँके 'ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम' में जैनधर्म और संस्कृत भाषाके साथ ही साथ वर्तमान प्रणालीकी शिक्षा दी जाती है। इस स्थानके 'सरस्वती भवन' में जैनधर्मके ग्रन्थोंका अच्छा संग्रह है। व्रजमंडलमें जैनधर्मका सबसे बड़ा केन्द्र आगरा है। यहाँ पर मध्यकालसे ही जैन धर्मावलम्बियोंकी प्रचुर संख्या रही है। जैन-ग्रन्थकार तो अधिकतर आगराके ही हुए हैं। इस समय वहाँ जैनधर्मको अनेक संस्थायें हैं, जो उपयोगी कार्य कर रही हैं। वहाँका जैन कालेज ग्रन्थभंडार भी प्रसिद्ध है। मथुराके कंकाली टीलाका जैनकेन्द्र, जो 'देव निर्मित स्तूप' तथा अन्य स्तूपों और मन्दिर-देवालयोंके कारण विगतकालमें इतना प्रसिद्ध रहा था, इस समय वीरान पड़ा हआ है। आश्चर्यकी बात यह है, जिस कालमें वह नष्ट हआ. उसके बादसे किसीने उसका पनरुद्धार कराने की ओर ध्यान नहीं / सेठोंने भी उसके लिये कुछ नहीं किया, जबकि उन्होंने 'चौरासी' के सिद्ध स्थलका पुनरुद्धार कराया था। वास्तविक बात यह है कि कई शताब्दियों तक उपेक्षित और जड़ पड़े रहने के कारण कंकाली टीलाको गौरवगाथाको लोग भूल गये थे। मथुराके सेठोंके उत्कर्ष-कालमें भी यही स्थिति थी। यदि उस समय उन्हें इस स्थलकी महत्ताका बोध होता, तो वे अपने विपुल साधनोंसे वहाँ बहुत कुछ कर सकते थे / ___ अबकी बार मथुरामें श्रीमहावीर जयन्तीका जो समारोह हुआ था, उसकी अध्यक्षता करने के लिए मझे आमंत्रित किया गया यद्यपि मैं जैन धर्मावलम्बी नहीं है। मैंने उस अवसरका सदुपयोग कंकालीकी गौरव-गाथा सुनाने में किया। उपस्थित जनसमुदायने मेरी बात बड़े कौतूहलपूर्वक सुनी। उन्हें इस बातका विश्वास नहीं हो रहा था कि मथरामें किसी समय इतने महत्त्वका स्थल था। उत्सवकी समाप्तिके पश्चात् अनेक व्यक्तियोंने मुझसे पूछताछ की। जब मेरे बतलाये हुए ऐतिहासिक प्रमाणोंसे उन्हें विश्वास हो गया, तब वे उक्त स्थलका पुनरुद्धार करानेको व्यग्र होने लगे। उसी कालमें मुनि विद्यानन्दजी मथुरा पधारे थे। उनके समय इस चर्चाने और जोर पकड़ा। अब ऐसी स्थिति बन गई है कि निकट भविष्यमें इस पुरातन स्थलका पुनरुद्धार हो सकेगा। इतिहास और पुरातत्त्व : 33