Book Title: Paryavaran ke Sandharbh me Jain Drushtikon
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VOTALGO 16. 0 0 00. 0000.0000.90. ODDOOD 10000000000000 POCOC060 जन-मंगल धर्म के चार चरण ५८३ । पर्यावरण के संदर्भ में जैन दृष्टिकोण RANDONO0 - -डॉ. शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद प्रधान संपादक-"तीर्थंकरवाणी" पिछले दशक से 'पर्यावरण', प्रदूषण शब्द अधिक प्रचलित 'स्थावरजीव' की संज्ञा प्रदान की थी। धवला में कहा है-"स्थावर हुआ। आज विश्व का प्रत्येक देश उसके राजनीतिज्ञ, बौद्धिक, जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, वैज्ञानिक सभी इसकी चर्चा और चिंता व्यक्त कर रहे हैं। अच्छाई । सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है।" सर्वार्थसिद्धि में 20 यह उभरकर आई कि यह आम चर्चा का विषय बन सका। पर, कहा है जिसके उदय से एकेन्द्रियों में उत्पत्ति होती है वह स्थावर अधिकांशतः यह चिन्तन का एक फैशनेबल शब्द भी बनता जा । नाम कर्म है। पंचास्तिकाय मूलाचार में पृथ्वीकाय अप्काय, रहा है। अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय यह कायें जीव सहित हैंप्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्यों होने लगा। यदि हम पृथ्वी की ऐसा निर्देश है। इसे स्पष्ट करते हुए 'धवला' में कहा गया है कि वर्तमान स्थिति को देखें और विचार करें तो स्पष्ट होता है कि । स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जाना जाता है, देखता पृथ्वी का मूल परिवेश ही लोगों में अपने वैयक्तिक हित के लिए। है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है बदल डाला है। प्रकतिक संतलन जो वनस्पति, जीवधारी प्राणियों के । इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा गया है। कारण था उसे असंतुलित कर डाला। जिसके भयंकर विनाशकारी इन एकेन्द्रिय जीवों की प्रयोगात्मक स्थिति को ‘पंचास्तिकाय' परिणाम सामने आये और मानव चिंतित हो उठा। अस्तित्व का आदि ग्रंथों में समझाते हुए लिखा है-“अण्डे में वृद्धि पाने वाले खतरा बढ़ने लगा जिससे वह इस पर्यावरण की रक्षा के लिए प्राणी गर्भ में रहे हुए प्राणी और मूर्छा प्राप्त मनुष्य जैसे हैं-वैसे सोचने लगा। यह प्रश्न व्यक्ति का नहीं पर समग्र विश्व और एकेन्द्रिय जीव जानता है। यह एकेन्द्रियों को चैतन्य का अस्तित्व चराचर के प्राणी मात्र से जुड़ा होने के कारण सबके लिए चिन्ता होने संबंधी दृष्टान्त का कथन है। अण्डे में रहे हुए प्राणी, गर्भ में और चिन्तन का कारण बना। इसीलिए आज इस प्रश्न की चर्चा, रहे हुए और मूर्छा पाये हुए के जीवत्व का, उन्हें बुद्धि पूर्वक उपाय ढूँढ़े जा रहे हैं। व्यापार नहीं देखा जाता तथापि, जिस प्रकार निश्चय किया जाता 'पर्यावरण' शब्द को सामान्य रूप से समझेंगे इतना ही कहा है। उसी प्रकार एकेन्द्रियों के जीवत्व का भी निश्चय किया जाता है, जा सकता है कि पर्यावरण अर्थात् आवरण या रक्षण कवच। आज क्योंकि दोनों में बुद्धिपूर्वक व्यापार का अदर्शन है। इस रक्षाकवच को तोड़ा जा रहा है अतः पूरी पृथ्वी का रक्षण "राजवार्तिककार" ने माना है कि वनस्पति आदि में ज्ञान का डगमगाने लगा है। पृथ्वी ही ऐसा नक्षत्र है जिसमें प्राण और सद्भाव होता है। खान-पान आदि मिलने पर पुष्टि और न मिलने वनस्पति दोनों का स्थान है। प्रकृति से मनुष्य को बुद्धि का विशिष्ट पर मलिनता देखकर उनमें चैतन्य का अनुमान होता है। वरदान मिला है अतः यह अपेक्षा थी कि वह इस सृष्टि का स्याद्वादमंजरी में इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-"मूंगा रक्षण करेगा। पर, इस बुद्धि का दुरुपयोग करके उसने इस सृष्टि पाषाणादि रूप पृथ्वी सजीव हैं क्योंकि डाभ के अंकुर की तरह पर ही आघात किए। मनुष्येतर सभी प्राणी अपने नैसर्गिक जीवन । पृथ्वी के काटने पर वह फिर से उग आती है। पृथ्वी का जल के अलावा अन्य किसी भी विनाश या संग्रह या मौज शौक के लिए सजीव है, क्योंकि मैंडक की तरह जल का स्वभाव खोदी हुई पृथ्वी अन्य प्राणी या वनस्पति का घात नहीं करते-जबकि मनुष्य ने के समान है। आकाश का जल भी सजीव है, क्योंकि मछली की अपनी पेट की भूख के साथ अपनी पशुवृत्ति के पोषण एवं संग्रह तरह बादल के विकार होने पर वह स्वतः ही उत्पन्न होता है। अग्नि 5 के कारण अनेक प्राणी वध किए। जंगल उजाड़े और अपनी ही भी सजीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के मौत को आमंत्रित किया। प्रगति के नाम पर हुए वैज्ञानिक- ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती है। वायु में भी जीव है, क्योंकि गौ प्रौद्योगिक परीक्षण व निर्माण पृथ्वी के पर्यावरण को निरंतर दूषित की तरह वह दूसरे से प्रेरित होकर गमन करती है। वनस्पति में भी कर रहे हैं। इन्हीं तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में हम जैनदृष्टिकोण से जीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह छेदने से उसमें मलिनता पर्यावरण पर विचार करेंगे। देखी जाती है। कुछ वनस्पतियों में स्त्रियों के पदाघात आदि से जिस तथ्य का स्वीकार आज वैज्ञानिक कर रहे हैं कि वनस्पति विकार होता है इसलिए भी वनस्पति जीव है। अथवा जिन जीवों में में जीव होता है उसका प्रतिपादन और निरूपण जैनागम हजारों चेतना घटती हुई देखी जाती है वे सब सजीव हैं। सर्वज्ञ भगवान ने वर्ष पूर्व कर चुका था। इतना ही नहीं जैनदर्शन ने तो स्थावर पृथ्वी आदि को जीव कहा है। पंचास्तिकायिक जीवों में प्राणों की कल्पना की थी। कल्पना ही नहीं । इस प्रकार इस शास्त्रीय व्याख्या और लक्षण से यह सिद्ध हो परीक्षण से जीव के अस्तित्व को प्रामाणित किया था। इन्हें गया कि पृथ्वी आदि पाँचों प्रकार के स्थावर जीव एकेन्द्रिय हैं और BARB00000 20000000000000200. as- 0 060.COPENarespersonardseonip-06:00.065 DP/06600000000009DODODODO0 20.00 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000000000000 Ri8000 1५८४ 2.00P उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जीव हैं। यद्यपि वे पंचेन्द्रिय संज्ञी मनुष्य की तरह अभिव्यक्त नहीं किया है। कुदरत के संतुलन हेतु प्रत्येक प्राणी का आहार-बिहारकर सकते पर उनमें सुखात्मक-दुखात्मक अनुभूति होती है यह / रूप-रंग आदि निश्चित हैं। मनुष्य को मूलतः निरामिष भोजी ही शास्त्रों में कहा गया है और वर्तमान विज्ञान ने भी प्रयोगों से इस बनाया गया। आश्चर्य तो इस बात का है कि अन्य किसी प्राणी ने तथ्य को सत्य पाकर उसका स्वीकार किया है। वनस्पति पर ऐसे । अपने नैसर्गिक जीवन को न तो बदला न तोड़ा। पर, मनुष्य ने प्रयोग हुए हैं कि यदि दो पौधे अलग-अलग अच्छी और दुष्ट प्रकृति उसमें आमूल तोड़-फोड़ की उसने अपना भोजन और जीवन का के मनुष्य में लगाये हों तो उनकी वृद्धि में फर्क देखा गया। इसी क्रम बदल डाला। जीभ के क्षणिक स्वाद के लिए उसने अनेक भोले प्रकार यदि एक पौधे को प्यार से और दूसरे को तिरस्कार से प्राणियों का वध किया। उनका भक्षण किया और उदर को सींचा गया तो उनकी वृद्धि में भी पर्याप्त अंतर देखा गया। और श्मशानगृह बना दिया। विवेकहीन होकर वह करुणा-दया को यह भी निरीक्षण से सिद्ध हुआ है कि एक पौधे को सुन्दर संगीत भूलकर क्रूर बनकर हत्यायें करने लगा। अरे ! हिंसक भोजी पशु सुनाया गया तो उसकी वृद्धि अकल्पित ढंग से हुई। इन सब प्रयोगों भी जब तक भूख नहीं लगती-शिकार नहीं करते। पर, इस मनुष्य से इन एकेन्द्रिय स्थावर में जीव की पुष्टि होती है। उनके सुख-दुख ने निहत्थे, निर्दोष पशुओं को मारकर उसे भोज्य बनाया। की अनुभूति का परिचय मिलता है। पशु-पक्षियों की कल आम बात हो गई। शास्त्रों में लिखा है कि जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है "जिओ और जीने की माँसाहारी एक जीव का ही वध नहीं करता पर माँस में उत्पन्न सुविधा प्रदान करो।" इसी सिद्धान्त का उमास्वामी ने 'परस्परोपग्रहो अनन्त त्रस जीवों की भी हिंसा करता है। प्रवचनसार में इसीलिए जीवानाम्' द्वारा प्रतिपादन किया। दोनों सिद्धांत और सूत्र प्रत्येक श्रमण को युक्ताहारी कहा है। ऐसा ही उपदेश सागारधर्मामृत आदि प्राणी के प्रति सहिष्णुता एवं सहयोग के प्रतीक हैं। थोड़ा विचार ग्रंथों में है। "मद्य-माँस-मधु" का सर्वथा त्याग इसी जीवहिंसा के करें कि जिस प्रकार हमें अपना जीव प्यारा है। थोड़ा-सा कष्ट भी। संदर्भ में कराया जाता है। तभी इनकी गणना अष्टमूलगुण के हमें व्याकुल कर देता है। यत्किंचित भी अन्य द्वारा दी जाने वाली अन्तर्गत की गई है। प्रवचनसार में आचार्य कुंदकुद ने कहा-“पके शारीरिक या मानसिक पीड़ा हमें प्रतिशोध से भर देती है-फिर हम हुए या कच्चे माँस के खंडों में उस माँस की जाति वाले निगोद यह महसूस क्यों नहीं करते कि अन्य सभी एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीवों का निरंतर जन्म होता है। जो जीव पक्की या कच्ची माँस की जीवों को भी ऐसी ही संवेदना होती होगी। जैसे हम सुख से जीना डली खाता है या स्पर्श करता है वह अनेक करोड़ जीवों का चाहते हैं वैसे ही प्रत्येक प्राणी भी अपने ढंग से जीना चाहता है। निश्चित रूप से घात करता है। इतना ही नहीं अंडा, कंदमूल आदि फर्क इतना है कि हमने अपनी बुद्धि-विकास-चतुराई या बुद्धि के को अभक्ष्य इसीलिए माना है कि उससे जीव हिंसा निश्चित रूप से विकार से अपना जीना ही महत्त्वपूर्ण माना। अपनी सुख सुविधा के होती है। हिंसा एवं माँसाहार के दूषणों से शास्त्र भरे पड़े हैं। यहाँ लिए दूसरों का घात किया, कष्ट दिया और उनका विनाश किया। उनकी भावना ही प्रस्तुत है। अन्य प्राणी ऐसा नहीं कर सके। उनकी असहाय स्थिति को समझ इसी प्रकार भोजन के उपरांत शिकार के व्यसन ने भी इस कर उनके मौन दर्द को जान कर यदि हममें यह संवेदना जाग जाये | मानव को हिंसा-पशुवध के लिए उकसाया है। शिकारी का विकृत तो निश्चित रूप से हम अनुभव करेंगे कि जैसी सुखात्मक-दुखात्मक मानसिक शीक निरपराध प्राणी की जान ले लेता है। काश ! शिकारी अनुभूति हमारे अंदर घटित होती है-वैसी ही प्रत्येक प्राणी में घटित उस पशु-पक्षी की आँखों की करुणा-असहायता को देख पाता। होती है। यदि हमारे पास बुद्धि और शक्ति है तो हमें उन सभी शिकारी स्वभाव से क्रूर ही होता है। कुदरत के धन पशु-पक्षियों का प्राणियों को जीने की सुविधा प्रदान करनी होगी जो उनका भी वध करके आनंद प्राप्त करने वाले मानव को क्या कहें ? घर की जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके लिए दया-करुणा-क्षमा और ममता के दीवान खाने सजाने को उसने कितने मासूमों की जान लीं। भावों का विकास करना होगा। ये भाव जैन सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में इसी प्रकार प्राकृतिक सौन्दर्य को स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन देखें तो अहिंसा के गुण से ही उत्पन्न होते हैं और पनपते हैं। के बदले बाह्य प्रसाधनों से सजाने की धुन में सैंकड़ों पशुओं की 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के मूल में इसी अहिंसा के सिद्धान्त की निर्मम हत्यायें की गई। महँगे सेन्ट, लिपिस्टिक, स्प्रे आदि में इन्हीं मुख्यता है। जैनदर्शन की नींव या रीढ़ यह अहिंसा है। हिंसा की पशुओं का रक्त झलकता है। जिस क्रूरता से उनकी हत्या की जाती भावना कभी परस्पर उपकार की भावना को दृढ़ीभूत नहीं कर है उसका वर्णन भी पढ़ने से आँखें छल-छला जाती हैं। चमड़े की सकती। यद्यपि सभी धर्मों ने अहिंसा की महत्ता का स्वीकार किया मँहगी बनावट में जीवित पशुओं की चमड़ी उधेड़ दी जाती है। इस पर जैनधर्म ने उसे मूलतत्त्व या आधार के रूप में स्वीकार किया। प्रकार जीभ की लोलुपता, शिकार का शौक और फैशन ने क्रूर यहाँ चूंकि हम पर्यावरण के प्ररिप्रेक्ष्य में बात कर रहे हैं अतः द्रव्य हत्याओं के लिए मनुष्य को प्रेरित किया। इससे पशुओं की संख्या हिंसा की ही विशेष चर्चा करेंगे। घटने लगी। अरे ! कुछ पशुओं की तो नस्लें ही अदृश्य होती जा मूलतः मानव शाकहारी प्राणी है। उसके शरीर, दाँत आदि की । रही हैं। इससे प्रकृति का संतुलन डगमगाया है और पर्यावरण की संरचना भी तदनुकूल है। कुदरत ने प्रत्येक जीव का भोजन निश्चित । समस्या गंभीर हई है। SOOT 500 SA0040col SNOR 4060.0. 0.4 20.3 So ततळणतात 600DDDGE093Doolasses कलन्कएलगत p 5000000000000000GBsanPPPORDP-900000000000000000 SD52RU Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000 a6:00:0000 600000 NAME0 29.00ASNNAMONDS:090.08 s240070690010 SDAD Free जन-मंगल धर्म के चार चरणाम ५८५ ROCDA / हिंसा की इस भावना से मनुष्य की मनोवृतियाँ दूषित हुईं। दया । प्रस्तुत कर रहे हैं पर यह भूल गये कि विद्युत उत्पादन, का तत्त्व ही अदृश्य हो गया। पशु-वध करते-करते उसकी क्रूरता अणुरीएक्टर के रजकण, ईंधन के विविध प्रयोग (पेट्रोल-डीजलइतनी बढ़ी कि वह मानव-हत्या करने में भी 'नहीं' हिचकिचाया। केरोसीन) कितना प्रदूषण फैला रहे हैं। कारखानों का धुंआ परस्पर प्रीत करने वाला मानव बड़े-बड़े युद्धों का जनक बना।। आकाशीय वातावरण को प्रदूषित कर रहा है तो उनका गंदा पानी आज विश्व का मानवतावादी संतुलन इसी हिंसात्मक युद्ध की नदियों के जल को प्रदूषित बना चुका है। इससे असंख्य जलचर परिस्थिति के कारण है। जीव जो पानी को फिल्टर करते थे-उनका विनाश हो रहा है। हमारी पवित्र नदियाँ, झीलें, सरोवर आज प्रदूषित हो गये हैं। गैस पर्यावरण की असंतुलिता का दूसरा कारण बढ़ती हुई उत्पादक कारखाने तो हमारे पड़ोस में बसने वाली साक्षात् मीत ही जनसंख्या है। यदि हमने जैनधर्म के महत्त्वपूर्ण अंग 'ब्रह्मचर्य' का है। भोपाल का गैस कांड या चार्नोबिल का अणुरिसाव हमारी 'अणुरूप' भी पालन किया होता तो इस परिस्थिति का निर्माण नहीं शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी है। सच तो यह है कि वर्तमान में होता। पश्चिमी भौतिकवाद एवं काम विज्ञान की अधूरी समझ, फैल रहे रोगों का मूल यह प्रदूषित जल एवं हवा ही है। विकसित हिंसात्मक भोजन ने मनुष्य की वासनायें भड़काईं। वह कामांध बन देश चालाकी से ऐसे मानवसंहारक कारखाने अपने यहाँ नहीं गया। परिणाम बड़ा विस्फोटक हुआ। आज यह जनसंख्या का विस्फोट बम विस्फोट से अधिक भयानक है। बढ़ती हुई जनसंख्या लगाते-वरन् उन अविकसित देशों में लगाते हैं जहाँ मानव संहार का मानों कोई मूल्य ही नहीं। फिर ऐहसान तो यह जताते हैं कि वे के कारण मनुष्य को निवास, खेती, उद्योग के लिए अधिक भू-भाग हमारी प्रगति के कर्णधार हैं। यदि ऐसे कारखाने फैलते गये तो यह की आवश्यकता पड़ी। | प्रदूषित वातावरण ही इस सृष्टि के विनाश हेतु प्रलय सिद्ध होगा। मनुष्य यह भूल गया कि वनस्पति आदि पंचास्तिकाय जीव भी । जैनदृष्टि से इन तथ्यों पर विचार करें तो हम कह सकते हैं कि प्रकति के वैसे ही अंग हैं जैसा वह है। अपने रहने के लिए उसने । यदि अहिंसा और अपरिग्रह का सिद्धान्त लाग किया जाये तो जंगलों को काटना शुरू किया। जंगल सिमटते गये। जहाँ कभी घने । मनुष्य पैसे कमाने और संग्रह की होड़ से बच सकता है। वह जंगल थे-पशु-पक्षी थे-वहाँ आज खेत या मनुष्य के रहने के आवश्यक जीवनयापन की सामग्री की उपलब्धि तक अपने आपको घर-नगर बस गये। जंगल सिकुड़ गये। इसी प्रकार ईंधन के लिए सीमित कर देगा। फिर वह उन उत्पादनों द्वारा संसृति का विनाश उसने आँखें बन्द करके वृक्षोच्छेदन किया। वह भूल गया कि हमारे नहीं होने देगा। धन की लालसा चाहे व्यक्ति की हो या देश की कार्बनडाइ ऑक्साइड को पीकर वे हमें ऑक्सीजन देकर प्राणों में } उसके कारण ही ये जहरीले धंधे किए जा रहे हैं। इसी प्रकार संचार भरते थे। वह भूल गया कि हमारे पानी के यही संवातक थे। जैनदर्शन का सह अस्तित्त्व का सिद्धांत यदि समझा जाये, प्रत्येक भूस्खलन इनसे रुकता था। हरियाली, शुद्धता एवं सौन्दर्य के ये प्राणी के साथ मैत्री का भाव उदय हो तो फिर हम ऐसा कोई कार्य प्रतीक थे। बस जंगल कटे और आफत आई। आज देश में ही नहीं नहीं करेगे जो जीवहिंसा एवं प्रकृति को विकृत करता हो। मनुष्य • विश्व में पीने के पानी की समस्या है। आये दिन होने वाला ने अपने स्वार्थ के कारण प्रकति के वैज्ञानिक संतुलन जिसमें पदार्थ भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़ इन्हीं के परिणाम हैं। पानी खूब गहराई में { विज्ञान, रसायन विज्ञान एवं जीवविज्ञान का समावेश है उसके साथ उतर गया है। ऋतुओं का संतुलन बिगड़ गया है। यदि हमने वृक्ष भी खिलवाड़ किया। परिणाम स्वरूप 'ऑजोन' की परत भी आज काटने को पाप और दुख का कारण माना होता तो यह आत्मघाती छिद्रयुक्त बन रही है जो भीषण विनाश का संकेत है। वास्तव में कार्य हम कभी न करते। थोड़ी सी दृश्य सुविधा के लिए हमने पृथ्वी के स्वरूप पर बलात्कार खेती में हमने पेस्टीसाइड्स द्वारा उन जीवों की हत्या की जो ही किया है। वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि यदि ऐसी ही मनमानी फसल को थोड़ा खाकर अधिक बचाते थे। कीड़े तो मार दिये पर ] होती रही तो शताब्दी के अंत तक लाखों जीवों की प्रजातियाँ ही उनका विष नहीं मार सके। वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध हुआ है कि नष्ट हो जायेंगी। जिससे पर्यावरण में असंतुलन हो जायेगा। बार-बार ऐसी दवायें मानव रक्त में जहरीलापन भर देती हैं। यही आल्बर्ट स्वाइट्जर के शब्दों में-“मानव आज अपनी कारण है कि विश्व के समृद्ध या विकसित देशों ने इनका उत्पादन दूरदर्शिता खो बैठा है जिससे वह सृष्टि को विनाश की ओर ले बंद कर दिया है जबकि हम उसके उत्पादन को अपना गौरव मान जायेगा।" यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि विकास की आड़ रहे हैं। भय तो इस बात का है कि एक दिन इनके कारण भूमि की में हम विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। यदि हम चाहते हैं कि इस उर्वरकता ही नष्ट न हो जाये। तात्पर्य कि जंगलों की कटाई ने भूमि विनाश को रोकें तो हमें प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करना के संतुलन को बिगाड़ दिया और जहरीली खाद ने भूमि की । होगा। उर्वरकता पर प्रहार किया। पर्यावरण की इस सुरक्षा या विनाश का आधार हमारी जीवन बड़े-बड़े उद्योग धंधे भी प्रदूषण उत्पन्न कर पर्यावरण को शैली से भी जुड़ा हुआ है। यदि हम जैन जीवन शैली अपनायें तो विषाक्त बना रहे हैं। हम प्रौद्योगिकी के विकास के सुनहरे चित्र अवश्य इसकी सुरक्षा में एक कदम बढ़ाया जा सकता है। जैनों की । शैली से भी जुड़ा हुआ है। यदि हम जन जीवन शैली अपनाये तो 00.0000.00DCAR0 अकोलाDिEOHDDOCOGRAO66000 606:00:00:00: 00 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6900000000000000000000000000000000000000000000 0 000 16000000000 1586 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / दिनचर्या उनके परिमाणव्रत, बारहव्रत बारहतप को जीवन में / जैनदर्शन मन-वचन-काय की एकाग्रता और संयम पर जोर उतारा जाये तो अनेक विनाशकारी तत्त्वों से बचा जा सकना संभव देता है। 'मौन' पर उसने विशेष जोर दिया। सामायिक, ध्यान, योग है। जैन शास्त्रों में गृहस्थ एवं साधू की जो जीवन शैली वर्णित है। में मौन की महत्ता है। वास्तव में जितना उत्तम चिंतन मौन में होता उसमें किसी भी प्राणी, वनस्पति, जल, पृथ्वी, अग्निकायिक जीवों है उतना अन्यत्र नहीं। आज 'आवाज' का प्रदूषण भी कम की विदारणा न हो इसका पूरा निर्देश है। आसक्ति से मुक्ति, खतरनाक नहीं है। निरंतर आवाजें, ध्वनियंत्र की चीखें, रेडियोइच्छाओं का शमन, प्राणीमात्र के प्रति करुणा उसके मूल में हैं। टेलीविजन के शोर ने मानव की चिंतन शक्ति खो दी है। उसके विचारों की स्वच्छता ऐसे ही भाव और भोजन से आती है जो शुद्ध विचारों पर इनका इतना आक्रमण हुआ है कि वह अच्छा रक्षण में सहायक तत्त्व होते हैं। भी सोच ही नहीं पाता। इस प्रकार पूरे निबंध का निष्कर्ष यही है कि थोड़ा-सा और गहराई से विचार करें तो हमारा संबंध प्रकृति यदि हम हिंसा से बचें, पंचास्तिकायिक जीवों की रक्षा करना सीखें, एवं उसके अंगों से कितना रहा है उसका प्रमाण है हमारे तीर्थंकरों / भोजन का संयम रखते हुए जीवन शैली में योग्य परिवर्तन करें तो के लांछन, उनके चैत्यवृक्ष। इनमें पशु-पक्षी एवं वृक्षों की महत्ता है। / हम सृष्टि के मूल स्वरूप को बचा सकते हैं। हिन्दू शास्त्रों में जो चौबीस अवतार की चर्चा है उममें भी जलचर, म इसके उपाय स्वरूप हमें वायु, जल एवं ध्वनि के प्रदूषण को / थलचर, नभचर पशु-पक्षियों का समावेश है। गाय को माता मानकर / रोकना होगा। पूजा करना। पशुपालन की प्रथा क्या है? वट वृक्ष की पूजा या वृक्षों की सुरक्षा करनी होगी। कटे वनों में पुनः वृक्षारोपण वसन्त में पुष्पों की पूजा क्या प्रकृति का सन्मान नहीं। देवताओं के वाहन पशु-पक्षी हमारे उनके साथ आत्मीय संबंधों का ही प्रतिक्वि करना होगा। जिससे हवा में संतुलन हो। भूस्खलन रोके जा सकें। है। तात्पर्य कि पशु-पक्षियों और वनस्पति के साथ हमारा अभिन्न ऋतुओं को असंतुलित होने से बचाया जा सके। शुद्ध वायु की। रिश्ता रहा है। कहा भी है-“यदि गमन या प्रवेश के समय सामने प्राप्ति हो। हिंसात्मक भोजन, शिकार एवं फैशन के लिए की जाने / मुनिराज, घोड़ा, हाथी, गोबर, कलश या बैल दीख पड़े तो जिस वाली हिंसा से बचना होगा। कार्य के लिए जाते हों। वह सिद्ध हो जाता है। (हरिषेणवृहत्कथा- कलकारखानों की गंदगी से जल को बचाना होगा। हवा में / कोश स्व. पं. इन्द्रलाल शास्त्री के लेख प्राकृत विद्या से साभार) फैलती जहरीली गैस से बचना होगा। जैनदर्शन की दृष्टि को विश्व / हमारे यहाँ शगुनशास्त्र में भी पशुपक्षियों का महत्त्व सिद्ध है। में प्रचारित करते हुए परस्पर ऐक्य। प्रेम एवं 'परस्परोपग्रहो एक ध्यानाकर्षण वाली बात यह भी है कि हमारे जितने तीर्थंकर, जीवानाम्' की भावना के संदर्भ में सह-अस्तित्व एवं प्राणीमात्र के प्रति दया, ममता, प्रेम, आदर एवं मैत्री के भाव का विकास करना मुनि एवं सभी धर्मों के महान् तपस्वियों ने तपस्या के लिए पहाड़, गिरिकंदरा, नदी के किनारे जैसे प्राकृतिक स्थानों को ही चुना। होगा। गीत की ये पंक्तियाँ सजीव करनी होंगीप्रकृति की गोद में जो असीम सुख-शांति मिलती है, निर्दोष "तुम खुद जिओ जीने दो जमाने में सभी को, पशु-पक्षियों की जो मैत्री मिलती है वह अन्यत्र कहाँ ? तीर्थंकर के अपने से कम न समझो सुख-दुख में किसी को।" समवसरण में प्रथम प्रातिहार्य ही अशोक वृक्ष है। गंधोधक वर्षा में सर्वे भवन्तु सुखिनः के मूल मंत्र के साथ याद रखना होगा वह पुष्पों की महत्ता है। ज्योतिषशास्त्र की 12 राशियों में भी पशु-पक्षी सिद्धांतकी महत्ता स्वीकृत है। इस देश की संस्कृति ने तो विषैले सर्प को भी दूध पिलाने में पुण्य माना है। तुलसी की पूजा की है और जल जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सये। चढ़ाने की क्रिया द्वारा जल का महत्त्व एवं वृक्ष सिंचन को महत्ता जयं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पापं ण वज्झई। प्रदान की है। यदि हम सामूहिक आत्महत्या से अपने आपको बचाना चाहते सम्राट अशोक या सिद्धराज-कुमारपाल के राज्यों में गुरुओं की / हैं तो हमे पर्यावरण की रक्षा पर पूरा सहिष्णुता पूर्वक ध्यान देना प्रेरणा से जो अमार घोषणा (हिंसा का पूर्ण निषेध) हुई थी उसमें होगा। हिंसा से बचने के साथ परोक्ष रूप से तो पर्यावरण की ही रक्षा का मा. भाव था। डॉ. शेखरचन्द्र जैन जैनदर्शन का जलगालन सिद्धांत, रात्रि भोजन का निषेध, प्रधान सम्पादक "तीर्थंकरवाणी" अष्टमूल गुणों का स्वीकार इन्हीं भावनाओं की पुष्टि के प्रमाण हैं। } 6, उमिया देवी सोसायटी कहा भी है "जैसा खाये अन्न वैसा उपजे मन। जैसा पीए पानी वैसी नं.२ अमराईबाडी. अहमदाबाद बोले वानी।" प्रधानमंया दवा वितरवाणी" OYMOQ.3000. 0034600. BywapersonRIEORS AGO 92006-0.090. 00 ameriyog 2240072830660030920 SAVDAVIDAS0.0.0000000000000