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जन-मंगल धर्म के चार चरणाम
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हिंसा की इस भावना से मनुष्य की मनोवृतियाँ दूषित हुईं। दया । प्रस्तुत कर रहे हैं पर यह भूल गये कि विद्युत उत्पादन, का तत्त्व ही अदृश्य हो गया। पशु-वध करते-करते उसकी क्रूरता अणुरीएक्टर के रजकण, ईंधन के विविध प्रयोग (पेट्रोल-डीजलइतनी बढ़ी कि वह मानव-हत्या करने में भी 'नहीं' हिचकिचाया। केरोसीन) कितना प्रदूषण फैला रहे हैं। कारखानों का धुंआ परस्पर प्रीत करने वाला मानव बड़े-बड़े युद्धों का जनक बना।। आकाशीय वातावरण को प्रदूषित कर रहा है तो उनका गंदा पानी आज विश्व का मानवतावादी संतुलन इसी हिंसात्मक युद्ध की नदियों के जल को प्रदूषित बना चुका है। इससे असंख्य जलचर परिस्थिति के कारण है।
जीव जो पानी को फिल्टर करते थे-उनका विनाश हो रहा है।
हमारी पवित्र नदियाँ, झीलें, सरोवर आज प्रदूषित हो गये हैं। गैस पर्यावरण की असंतुलिता का दूसरा कारण बढ़ती हुई
उत्पादक कारखाने तो हमारे पड़ोस में बसने वाली साक्षात् मीत ही जनसंख्या है। यदि हमने जैनधर्म के महत्त्वपूर्ण अंग 'ब्रह्मचर्य' का
है। भोपाल का गैस कांड या चार्नोबिल का अणुरिसाव हमारी 'अणुरूप' भी पालन किया होता तो इस परिस्थिति का निर्माण नहीं
शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी है। सच तो यह है कि वर्तमान में होता। पश्चिमी भौतिकवाद एवं काम विज्ञान की अधूरी समझ,
फैल रहे रोगों का मूल यह प्रदूषित जल एवं हवा ही है। विकसित हिंसात्मक भोजन ने मनुष्य की वासनायें भड़काईं। वह कामांध बन
देश चालाकी से ऐसे मानवसंहारक कारखाने अपने यहाँ नहीं गया। परिणाम बड़ा विस्फोटक हुआ। आज यह जनसंख्या का विस्फोट बम विस्फोट से अधिक भयानक है। बढ़ती हुई जनसंख्या
लगाते-वरन् उन अविकसित देशों में लगाते हैं जहाँ मानव संहार
का मानों कोई मूल्य ही नहीं। फिर ऐहसान तो यह जताते हैं कि वे के कारण मनुष्य को निवास, खेती, उद्योग के लिए अधिक भू-भाग
हमारी प्रगति के कर्णधार हैं। यदि ऐसे कारखाने फैलते गये तो यह की आवश्यकता पड़ी।
| प्रदूषित वातावरण ही इस सृष्टि के विनाश हेतु प्रलय सिद्ध होगा। मनुष्य यह भूल गया कि वनस्पति आदि पंचास्तिकाय जीव भी । जैनदृष्टि से इन तथ्यों पर विचार करें तो हम कह सकते हैं कि प्रकति के वैसे ही अंग हैं जैसा वह है। अपने रहने के लिए उसने । यदि अहिंसा और अपरिग्रह का सिद्धान्त लाग किया जाये तो जंगलों को काटना शुरू किया। जंगल सिमटते गये। जहाँ कभी घने । मनुष्य पैसे कमाने और संग्रह की होड़ से बच सकता है। वह जंगल थे-पशु-पक्षी थे-वहाँ आज खेत या मनुष्य के रहने के आवश्यक जीवनयापन की सामग्री की उपलब्धि तक अपने आपको घर-नगर बस गये। जंगल सिकुड़ गये। इसी प्रकार ईंधन के लिए सीमित कर देगा। फिर वह उन उत्पादनों द्वारा संसृति का विनाश उसने आँखें बन्द करके वृक्षोच्छेदन किया। वह भूल गया कि हमारे नहीं होने देगा। धन की लालसा चाहे व्यक्ति की हो या देश की कार्बनडाइ ऑक्साइड को पीकर वे हमें ऑक्सीजन देकर प्राणों में } उसके कारण ही ये जहरीले धंधे किए जा रहे हैं। इसी प्रकार संचार भरते थे। वह भूल गया कि हमारे पानी के यही संवातक थे। जैनदर्शन का सह अस्तित्त्व का सिद्धांत यदि समझा जाये, प्रत्येक भूस्खलन इनसे रुकता था। हरियाली, शुद्धता एवं सौन्दर्य के ये प्राणी के साथ मैत्री का भाव उदय हो तो फिर हम ऐसा कोई कार्य प्रतीक थे। बस जंगल कटे और आफत आई। आज देश में ही नहीं नहीं करेगे जो जीवहिंसा एवं प्रकृति को विकृत करता हो। मनुष्य • विश्व में पीने के पानी की समस्या है। आये दिन होने वाला ने अपने स्वार्थ के कारण प्रकति के वैज्ञानिक संतुलन जिसमें पदार्थ भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़ इन्हीं के परिणाम हैं। पानी खूब गहराई में { विज्ञान, रसायन विज्ञान एवं जीवविज्ञान का समावेश है उसके साथ उतर गया है। ऋतुओं का संतुलन बिगड़ गया है। यदि हमने वृक्ष भी खिलवाड़ किया। परिणाम स्वरूप 'ऑजोन' की परत भी आज काटने को पाप और दुख का कारण माना होता तो यह आत्मघाती छिद्रयुक्त बन रही है जो भीषण विनाश का संकेत है। वास्तव में कार्य हम कभी न करते।
थोड़ी सी दृश्य सुविधा के लिए हमने पृथ्वी के स्वरूप पर बलात्कार खेती में हमने पेस्टीसाइड्स द्वारा उन जीवों की हत्या की जो
ही किया है। वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि यदि ऐसी ही मनमानी फसल को थोड़ा खाकर अधिक बचाते थे। कीड़े तो मार दिये पर ]
होती रही तो शताब्दी के अंत तक लाखों जीवों की प्रजातियाँ ही उनका विष नहीं मार सके। वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध हुआ है कि
नष्ट हो जायेंगी। जिससे पर्यावरण में असंतुलन हो जायेगा। बार-बार ऐसी दवायें मानव रक्त में जहरीलापन भर देती हैं। यही आल्बर्ट स्वाइट्जर के शब्दों में-“मानव आज अपनी कारण है कि विश्व के समृद्ध या विकसित देशों ने इनका उत्पादन दूरदर्शिता खो बैठा है जिससे वह सृष्टि को विनाश की ओर ले बंद कर दिया है जबकि हम उसके उत्पादन को अपना गौरव मान जायेगा।" यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि विकास की आड़ रहे हैं। भय तो इस बात का है कि एक दिन इनके कारण भूमि की में हम विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। यदि हम चाहते हैं कि इस उर्वरकता ही नष्ट न हो जाये। तात्पर्य कि जंगलों की कटाई ने भूमि विनाश को रोकें तो हमें प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करना के संतुलन को बिगाड़ दिया और जहरीली खाद ने भूमि की । होगा। उर्वरकता पर प्रहार किया।
पर्यावरण की इस सुरक्षा या विनाश का आधार हमारी जीवन बड़े-बड़े उद्योग धंधे भी प्रदूषण उत्पन्न कर पर्यावरण को शैली से भी जुड़ा हुआ है। यदि हम जैन जीवन शैली अपनायें तो विषाक्त बना रहे हैं। हम प्रौद्योगिकी के विकास के सुनहरे चित्र अवश्य इसकी सुरक्षा में एक कदम बढ़ाया जा सकता है। जैनों की
। शैली से भी जुड़ा हुआ है। यदि हम जन जीवन शैली अपनाये तो
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